Struggle of Bajirao Peshwa I : निमाड़ अंचल न केवल नीम के वृक्षों से भरा हुआ है बल्कि मां रेवा के अतिरिक्त लाड़ से लबरेज भी है और ऐतिहासिकता को अपने भीतर सजाए हुए नजर आता है। पूर्वी निमाड़ में रेवा का लाड़ कुछ इस तरह बहता है कि यहां प्राणदायिनी के रूप में नर्मदा का स्थान है। इसी नर्मदा के आंचल में एक स्थान ऐसा भी है, जहां 40 वर्षीय, वीर भारतीय सेना नायक, चतुर्थ मराठा छत्रपति शाहू जी के पेशवा बाजीराव प्रथम ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था।
बाजीराव का जन्म 18 अगस्त 1700 को महाराष्ट्र के नासिक के पास सिन्नर में भट्ट परिवार में हुआ था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ तो शाहू प्रथम के पेशवा थे और उनकी मां राधाबाई बर्वे थीं। बाजीराव का एक छोटा भाई चिमाजी अप्पा और दो छोटी बहनें अनुबाई और भिउबाई थीं। शिक्षित चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा में पढ़ना, लिखना और संस्कृत सीखना शामिल था।
हालांकि वे अपनी किताबों तक ही सीमित नहीं रहे। बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरन्दाजी, तलवार-भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक़ था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते हुए युद्धनीति, दरबारी चाल-चलन व रीतिरिवाजों को आत्मसात करते रहते थे। बचपन से ही सेना और राष्ट्र के लिए अपने हौंसलों से उन्होंने पिता के साथ सेना में कार्य करना आरम्भ कर दिया था।
उनके दो विवाह हुए, उनकी पहली पत्नी काशीबाई थीं। उनका विवाह 1720 में हुआ था। उनके चार पुत्र थे, जिनमें से बालाजी बाजीराव और रघुनाथराव, जो आगे चल कर पेशवा बने। बाजीराव की दूसरी पत्नी मस्तानी थीं, जो कि बुंदेलखंड के हिंदू राजा छत्रसाल और उनकी एक फ़ारसी मुस्लिम पत्नी रुहानी बाई की बेटी थीं। पेशवा परिवार ने इस शादी को स्वीकार नहीं किया।
कुछ लोगों का मानना है कि बाजीराव ने मस्तानी से विवाह किया था, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि वह उनकी उपपत्नी थीं। बाजीराव और मस्तानी का एक बेटा था, जिसका नाम कृष्ण राव रखा गया था, बाद में उसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया।
बाजीराव 1719 में अपने पिता के साथ दिल्ली के अभियान पर गए थे और उन्हें विश्वास था कि मुग़ल साम्राज्य बिखर रहा है और उत्तर की ओर मराठा विस्तार का विरोध करने में असमर्थ होगा। उसी संघर्ष के दौरान जब 1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो गई, तो शाहू ने अन्य सरदारों के विरोध के बावजूद 20 वर्षीय बाजीराव के सैन्य कौशल को देखकर उन पर विश्वास करते हुए उन्हें 17 अप्रैल 1720 को पेशवा (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया।
भाट (भट्ट) वंश के नौ पेशवाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली पेशवा बाजीराव ही माने जाते हैं। उनके अनथक श्रम और अभूतपूर्व युद्ध कौशल के कारण मराठा राज्य के विस्तार में महत्ती भूमिका रही। उन्होंने मालवा, निमाड़, गुजरात, निजाम, पुर्तगालियों तथा दिल्ली के सुल्तान की सेनाओं को परास्त किया। गुजरात के गायकवाड़, ग्वालियर के शिंदे, जिन्हें सिंधिया कहा जाता है, इन्दौर के होलकर, धार के पंवार, नागपुर के भोंसले को मराठा साम्राज्य के अधीन कर मराठा संघ बनाया।
कुल 40 वर्षों के जीवन में अधिकांशतः बाजीराव ने युद्ध ही किए। उत्तर भारत के युद्ध अभियान के दौरान अपने एक लाख से अधिक सैनिकों के साथ बाजीराव निमाड़ में नर्मदा तट पर डेरा डाले हुए थे। लगातार युद्धों और सैन्य अभियानों के कारण बाजीराव का शरीर कमजोर हो गया था।
वैसे निमाड़ में गर्मी और लपट बहुत तेज होती है। इस दौरान 23 अप्रैल को बाजीराव को पहली बार ग्रीष्माघात यानी लू लग गई, तब लक्षण हल्के थे। 26 अप्रैल को बुखार इतना बढ़ गया कि बाजीराव बेसुध हो गए। रविवार यानी 28 अप्रैल 1740 को उनकी मृत्यु हो गई। उसी दिन नर्मदा नदी के तट पर रावेरखेड़ी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड माण्टोगोमेरी ने बाजीराव पेशवा को 'भारत के इतिहास का सबसे महानतम सेनापति' कहा है। उन्होंने विशेष रूप से बाजीराव प्रथम की पालखेड़ युद्ध में निजाम को हराने की क्षमता की प्रशंसा भी की है। इतिहासकार वी.एस. स्मिथ ने बाजीराव पेशवा की युद्ध कला और रणनीतिक कौशल को देखते हुए उन्हें 'भारत का नेपोलियन' कहा था।
जबकि क्या स्मिथ को यह ज्ञात नहीं कि बाजीराव का जन्म 1700 ई. में हुआ और निधन 28 अप्रैल 1740 ई. में हो गया। और नेपोलियन बोनापार्ट का जन्म 1769 ई. में हुआ। इस मायने से तो नेपोलियन ने बाजीराव के शौर्य का अनुसरण किया होगा और इस कारण से तो नेपोलियन को विश्व का बाजीराव कहा जाना चाहिए।
बालाजी बाजीराव ने राणोजी शिंदे को स्मारक के रूप में एक छतरी बनाने का आदेश दिया। स्मारक एक धर्मशाला से घिरा हुआ है। परिसर में दो मंदिर हैं, जो नीलकंठेश्वर महादेव (शिव) और रामेश्वर (राम) को समर्पित हैं। यह स्मारक बाजीराव के सबसे वफ़ादार सरदार माने जाने वाले ग्वालियर के शिंदे यानी सिंधिया ने रावेरखेड़ी में उनकी समाधि बनवाई। श्रीमंत पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट को 'बाजीराव बल्लाळ' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से भी जाना जाता है।
इतिहास और प्राकृतिक आह्लाद से परिपूर्ण रावेरखेड़ी निमाड़ में इंदौर से लगभग 106 किमी दूर है। ओंकारेश्वर-सनावद से क़रीब 27 किमी दूर रावेर गांव से पास 5 किमी दूर खेड़ी गांव आता है। मध्यप्रदेश के दक्षिणी पश्चिमी हिस्से में बसे निमाड़ अंचल के खरगोन जिले में नर्मदा नदी के दक्षिण तट पर यह बसा है।
यह सिद्धक्षेत्र ओंकारेश्वर से पश्चिम में 40 किलोमीटर एवं महेश्वर से पूर्व में 45 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। मुख्य नर्मदा परिक्रमा मार्ग पर होने एवं पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधि स्थल के कारण देश भर में प्रसिद्ध है।
इस छोटे से गांव में एक परकोटा बना है, जिसके बीचो-बीच एक छोटी-सी समाधि बनी हुई है। बलुआ पत्थर से बनी इस समाधि और परकोटे की बनावट सादगीपूर्ण है और इसके पास बहने वाली नर्मदा नदी इसकी ख़ूबसूरती में चार चांद लगा देती है।
यूं तो इसका ज्यादातर हिस्सा पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुका है लेकिन जितना भी भाग बचा है, वह इसकी ख़ूबसूरती, भव्यता और मजबूती की दास्तां सुनाता है। इस समाधि स्थल के पास ही नर्मदा नदी बहती है, जो बरसात में और भी ख़ूबसूरत नजर आती है।
रावेरखेड़ी में स्थित यह समाधि शांत वातावरण में है, नर्मदा का सहज भाव में बहना इसके शांतिपूर्ण और राजसी माहौल को और भी बढ़ा देता है। समाधि की वास्तुकला मराठा और मुग़ल शैलियों का एक शानदार मिश्रण है, जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है।
रावेर गांव में एक विशाल प्रवेश द्वार मिलेगा, जो जटिल नक़्क़ाशीदार आकृतियों और रूपांकनों से सुसज्जित है। प्रवेश द्वार एक विशाल प्रांगण की ओर जाता है, जिसमें सुंदर ढंग से बनाए गए बग़ीचे हैं, जो शांत एवं सुखद वातावरण की अनुभूति करवाते हैं।
वर्तमान में समाधि स्थल पर एक बग़ीचा भी तैयार करवाया गया है। वैसे इस गांव के पास में ही बेड़िया मंडी, डूडगांव इत्यादि गांव हैं, जो कृषि उपज, मंडी क्षेत्र के लिए पूरे निमाड़ में प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में देखभाल के अभाव में समाधि स्थल के आस-पास बिखरे कचरे के ढेर और अंदर से जीर्ण-शीर्ण होती इमारत एक भय को पैदा करने वाली रही कि भविष्य में शौर्य सम्राट के वृहद् इतिहास को आने वाली पीढ़ी कैसे जानेगी! समाधि स्थल पर लगे बोर्ड केवल बाजीराव के रावेरखेड़ी में रुकने और निधन की गाथा को बताते है किन्तु बाजीराव के शौर्य की दास्तां वह भी नहीं कह पाते।
मध्यप्रदेश सरकार चाहे तो समाधि स्थल पर शिलालेखों के माध्यम से अथवा पुस्तकालय के माध्यम से पेशवा बाजीराव प्रथम के जीवन वृत की प्रदर्शनी भी बनवा सकती है और आने वाले पर्यटकों की सुविधा के लिए भी कार्य कर सकती है। एक अच्छे ऐतिहासिक पर्यटन स्थल के रूप में रावेरखेड़ी को तैयार किया जा सकता है।
बाजीराव पेशवा की समाधि स्थल रावेरखेड़ी में अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान:
1. समाधि स्थल
2. अंत्येष्टि ओटला (जहां पेशवा बाजीराव की अंत्येष्टि की गई)
3. सराय (धर्मशाला)
4. रामेश्वरम मंदिर (बाजीराव द्वारा स्थापित शिवलिंग, जिसकी पूजा बाजीराव ने सपत्नी की)
5. वृंदा द्वार
पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधि: अफ़गान के शासक नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और लूट पाट मचाना शुरू कर दिया, इसके बाद मुग़ल बादशाह को तख़्त से हटाकर ख़ुद उस पर क़ाबिज हो गया।
जब इस बात की ख़बर पेशवा के पास पुणे पहुंची तो पेशवा बाजीराव ने 1 लाख सैनिकों के साथ पुणे से दिल्ली की ओर युद्ध के लिए कूच किया, जब पेशवा बाजीराव अपनी सैनिक छावनी सहित रावेरखेड़ी में 20 अप्रैल 1740 के लगभग पहुंचे। उन्होंने विश्राम किया, नर्मदा स्नान के और निमाड़ की भीषण गर्मी के कारण पेशवा बाजीराव को लू लग गई एवं तेज दिमाग़ी बुखार आने के कारण 28 अप्रैल 1740 को सैनिक छावनी रावेरखेडी में ही पेशवा बाजीराव का निधन हो गया।
पेशवा के ख़ास, मराठा सूबेदार राणो जी शिंदे ग्वालियर ने, अपने पेशवा की स्मृति में इस समाधि का निर्माण कराया था। समाधि सराय के मध्य में बनी हुई है, जो चार तल में निर्मित है। नीचे का भाग आयताकार, उसके ऊपर अष्टकोण एवं उसके ऊपर षटकोण आकार में पूर्ण रूप से पत्थर की बनी है, जिसके ऊपर शिवलिंग की स्थापना की गई है। समाधि पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं।
समाधि के पत्थरों को तराश कर फूल जाली एवं नक़्क़ाशी से सुशोभित किया गया है। इतिहासकारों का मानना है कि पेशवा के अस्थि कलश रखकर समाधि का निर्माण कराया गया है। इसे 18 अप्रैल 1930 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण रिकॉर्ड में दर्ज कर लिया गया था।
अंत्येष्टि ओटला: 28 अप्रैल 1740 को बाजीराव पेशवा के जीवन की अंतिम यात्रा जिस स्थान पर पहुंची, उस अंत्येष्टि स्थान से ही बाजीराव की देह पंचतत्व में विलीन हो गई, यह चबूतरा अंत्येष्टि स्थल के नाम से जाना जाता है, जो खेड़ी ग्राम में ही नर्मदा तट पर बना हुआ है। समाधि के झरोखों से उत्तर दिशा में नर्मदा के बीच में पत्थर का ओटला दिखाई देता है, जिस पर शिवलिंग स्थापित है। इतिहासकारों का यह मानना है कि इसी स्थान पर पेशवा बाजीराव का अंतिम क्रियाकर्म किया गया था।
कुछ लोगों का मानना है कि यह बाजीराव के घोड़े की समाधि है किन्तु किसी घोड़े की समाधि पर शिवलिंग की स्थापना सहज स्वीकार नहीं होता क्योंकि मराठा साम्राज्य के जिन योद्धाओं की समाधियां बनी हैं, उन योद्धाओं की प्रत्येक समाधि पर शिवलिंग स्थापित है, जिसकी पूजा नहीं होती। ऐसे में घोड़े की समाधि गले नहीं उतरती।
सराय (धर्मशाला): सराय का अर्थ धर्मशाला होता है। बाजीराव पेशवा प्रथम की समाधि सराय के मध्य में बनी हुई है। चारों ओर धर्मशालानुमा स्थान पर यात्रियों के लिए रहने का खुला स्थान है। सराय और समाधि के पत्थरों को तराशकर नक़्क़ाशीदार खिड़कियां बनाई हैं, जिससे रहने वाले लोग नर्मदा दर्शन कर सकें।
रामेश्वरम मंदिर: पेशवा की समाधि की पूर्व दिशा में एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। इतिहासकार बताते हैं कि पेशवा बाजीराव ने पत्नी काशीबाई के कहने पर 1731 में इस मंदिर का निर्माण कराया था, जिसमें पेशवा बाजीराव सपत्नी पूजा-पाठ करते थे।
दस्तावेजों के अनुसार बाजीराव के जीवन के अंतिम दिनों में बाजीराव के स्वास्थ्य और जीवन की अनुकूलता के लिए लाखों महामृत्युंजय महामंत्र के जाप इसी मंदिर में कराए गए थे। वर्तमान में मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इसके संरक्षण की आवश्यकता है। शिवरात्रि के पर्व पर विशेष दर्शन के लिए क्षेत्र के श्रद्धालु आते हैं।
'वृन्दा द्वार' या 'चुंगी नाका': रावेरखेड़ी ग्राम में प्रवेश करते वक्त एक नाका मिलता है। इतिहासकारों द्वारा इस स्मारक को चुंगी नाका, कचहरी के नाम से उल्लेखित किया गया है। वहीं पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार इसे वृन्दा द्वार कहा जाता है जो कि 18 जनवरी 1930 से पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड में दर्ज है।
इस स्थान पर एक तुलसी का पौधा होने से इसे वृन्दा द्वार कहा जाता है। मालवा प्रांत पेशवा के सूबेदार के अधीन होने के कारण जो लोग नर्मदा पार कर मालगुजारी करते थे, उन्हें इस स्थान पर 'कर' देना होता था। उस काल में वृन्दा द्वार पर कुछ सैनिक स्थाई रूप से इसमें निवास करते थे। यहां रसोईघर और कुछ कमरे बने हुए थे। आज यह स्थान खंडहर में बदल चुका है, केवल द्वार शेष रह गया है।
[ लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)