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Written By WD

बस, एक टिकट चाहिए जिंदगी के लिए!

बस, एक टिकट चाहिए जिंदगी के लिए! -

वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का स्तंभ 'झोले-बतोले' में उनका भोपाली अंदाज अखबारी पाठकों को काफी रास आया था। अब वेबदुनिया के पाठक 'सूरमा भोपाली' का यह स्तंभ नियमित रूप से पढ़ सकेंगे

WD
को खां, गजब टिकटिया माहोल हे। हर कोई टिकट के वास्ते मरा जा रिया हे। अगर खुदा नेता से पूछे के तेरी रजा क्या हे तो वो बोल पड़ेगा के एक अदद टिकट! पार्टी कोई सी हो, झंडा किसी रंग का हो, उसूल कोई भी हों, विचारधारा केसी भी हो, इससे क्या मतलब। बस एक चुनावी टिकट, जो दे दे। चाहे वो चरण छू के मिले या अगले की पीठ में छुरा भोंक के मिले, धमकी से मिले या गुहार से मिले, बगावत से मिले या पेसे की ताकत से मिले। अगले का टिकट काट के मिले या थूक के चाट के मिले, रिश्तेदारी के कारण मिले या फिर सियासी रंजिश के कारण मिले पर टिकट मिले। बाकी तो अपन मेनिज कर लेंगे।

मियां, चुनाव पेले भी होते थे। पार्टियां तब भी वोटों के मेदान में जोर आजमाइश करती थीं, पर टिकट की मारामारी का एसा नजारा आम न था। पार्टियों की कोशिश रेती थी के पेले उस कारकर्ता को मिले, जिसने बरसों पार्टी की खिदमत में पसीना बहाया हे। या फिर उसे मिले, जो दबंगई के दम पे सीट निकाल ले। कुछ ईमानदार चेहरो को भी टिकट से नवाजने का रहम बरता जाता था। कई दफे गेरतमंद कारकर्ता जमीनी हकीकत पिचान के टिकट के आफर ठुकरा भी देते थे। टिकट बंटते थे पर उनकी लूट न थी। टिकट न मिले तो भी नेताओं के पिराण नई छूटते थे। चुनाव का फारम भरने के बाद ये टिकटों का दंगल थम भी जाता था। पिरचार की गाड़ी अपनी चाल चलने लगती थी।

खां, इस बार तो बीजेपी हो या कांगरेस, हर कोई सर पे कफन बांध के टिकट मारने निकला हुआ हे। पार्टियों में इत्ते कारकर्ता रेते हें, ये टिकटार्थियों की भीड़ देख के आंखों को यकीन हुआ। क्यों न हो। आखिर इन्ही पार्टियों ने ई तो माहोल को मचा रखा हे। दोनो पार्टियों ने शुरु से हवा बनाई के गुरु अपनी सरकार ई बन रई हे। फिर क्या था, अंधे भी देखने लगे ओर लंगड़ों ने पार्टी दफ्तरों पे चढ़ाई कर मारी। बेईमान ईमानदारी का तमगा लटका के घूमने लगे। पांच साल माल गपाने वाले अचानक दानी हो गए। ठेका-परमिट के समय नाते-रिश्ते निभाने वालों को अचानक गरीब वोटर भगवान की माफिक याद आने लगा। आलाकमान को जताया जाने लगा के सारे वोटर उसी के कब्जे में हें।

आलम ये हे के टिकट के लिए कई ने खाना-पीना-सोना तक छोड़ रखा हे। टिकटों के जंगीमोर्चे पे आखिरी सांस तक डटे रेने की कसम खाई हुई हे। कोशिश ये भी हे के इस पार्टी का न मिले तो उस पार्टी का तो मिल ई जाए। आज तक इसकी जय बोली, कल को अगले की पालकी उठा लेंगे। टिकटों के धंधेबाजों को देख के तवायफें भी घूंघट काढ़ने लगी हें। हथकंडे ये भी हें के टिकट अपन को न मिले तो सियासी दुश्मन को तो किसी कीमत पे न मिले। लिहाजा अगले के 'कारनामों' के पर्चे बंट रिए हें। सीडियां बाजार में सज गई हें। टिकट के लिए तलाक की तर्ज पे पार्टी छोड़ने की धमकियां दी जा रई हें। उधर पाकदामन होने का दिखावा करने वाली पार्टियां भी कत्ल, धोखाधड़ी, गबन ओर बलात्कार के आरोपियों की 'शोहरत' को वोटों में भुनाने में लग पड़ी हें। टिकट जीने-मरने का सवाल हो गया हे। बिना टिकट भी क्या जीना।