चुनावी शोर थमने के बाद भी खामोश वोटर्स ने बढ़ाई उम्मीदवारों की बेचैनी
भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव का चुनावी शोर अब थम गया है और शुक्रवार को होने वाली वोटिंग से पहले उम्मीदवार अब आखिरी दौर का डोर-टू-डोर जनसंपर्क कर रहे है। उम्मीदवार अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते है। वहीं 37 दिनों तक चले चुनावी शोर के बाद अब भी यह सबसे बड़ा रहस्य बना हुआ है कि प्रदेश में कौन सरकार बनाएगा।
प्रदेश के विभिन्न जिलों में लोगों से बात करने पर एक बात पूरी तरह साफ है कि वोटर्स पूरी तरह साइलेंट है, उसके मन में क्या चल रहा है, यह किसी को पता नहीं है। वहीं जो लोग चुनावी चर्चा में दिलचस्पी लेते है वह कहते है कि फंसा हुआ चुनाव है। अधिकांश सीटों पर वोटर्स बताते है कि कांटे का चुनाव है। इस बार कांटे की टक्कर है, जीत हार का फैसला बहुत कम वोटों से होगा।
दरअसल मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार कोई ऐसा मुद्दा नहीं रहा है जो पूरे चुनाव प्रचार में छाया रहा है। इस बार विधानसभा चुनाव में न तो नेताओं ने ऐसे बयान दिए जो पूरे चुनावी रूख को मोड़ पाते और न ही हिंदुत्व और ध्रुवीकरण की सियासत का कोई रंग वोटर्स पर चढ़ पाया। हलांकि चुनाव प्रचार के दौरान अयोध्या मे राममंदिर के शिलान्यास की तारीख सामने आई औऱ पीएम मोदी से लेकर अमित शाह और भाजपा ने इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन वोटर्स के बीच यह मुद्दा नहीं बन पाय़ा।
इस बार के विधानसभा चुनाव का अगर विश्लेषण किया जाए तो अधिकांश सीटों पर प्रत्याशी का चेहरा बड़ा फैक्टर है। वोटर्स स्थानीय मुद्दों और उम्मीदवारों के चेहरे पर ही वोट करने का मन बना चुके है। हलांकि ग्रामीण इलाकों में लाड़ली बहना और लाभार्थी कार्ड का असर देखने को मिल रहा है। यहीं कारण है कि भाजपा ने पूरा चुनाव पीएम मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे पर लड़ा है। लाड़ली बहना की जमीनी फीडबैक का असर था कि जिस भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान को अपना मुख्यमंत्री का चेहरा बन बनाया, उसने बीच चुनाव में शिवराज सिंह चौहान को अपना चेहरा बनाया और पीएम मोदी को भी अपने भाषणों में लाड़ली बहना योजना का जिक्र करना पड़ा।
पूरे विधानसा चुनाव में एंटी इनकंबेंसी का मुद्दा भी खासा छाया रहा है। विधानसभा क्षेत्रों का दौरा करने पर यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि प्रत्याशी और सरकार दोनों के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी बड़ा मुद्दा रही है। हलांकि लोगों में सरकार की अपेक्षा प्रत्याशी के खिलाफ अधिक इंटी इनकंबेंसी है और इसका खामिया सत्ता पक्ष को चुनाव में उठाना पड़ सकता है।
अब जब वोटिंग में चंद घंटों का समय शेष बचा है तब भी वोटर्स का पूरी तरह खमोश रहना सियासी दलों के साथ उम्मीदवारों को भी बैचेन कर रहा है। ऐसे में अब प्रत्याशी आखिरी दौर में वोटर्स को रिझाने के लिए हर दांव-पेंच चल रहे है जिससे उनकी चुनावी नैय्या पार लग सके।