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Written By Author कमलेश सेन

History of Madhya Pradesh Assembly Elections: मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का इतिहास

History of Madhya Pradesh Assembly Elections: मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का इतिहास - History of Madhya Pradesh Assembly Elections: मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का इतिहास
मध्यप्रदेश के गठन के बाद पहला चुनाव 1957 में हुआ। मध्यप्रदेश विधानसभा गठन के पहले विंध्य प्रदेश विधानसभा, भोपाल विधानसभा, मध्य भारत विधानसभा, ग्वालियर एवं सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार विधानसभा अस्तित्व में थीं। मध्य भारत विधानसभा में कुल 99 सदस्य थे। लीलाधर मंडलोई को मध्य भारत का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था। 1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश का जन्म हुआ और नई विधानसभा अस्तित्व में आई। इस विधानसभा में 288 सीटों की संख्या थी। आइए जानते हैं मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव का इतिहास... 
 
1952 में मध्य भारत के पहले मुख्‍यमंत्री बने मिश्रीलाल गंगवाल : मध्य भारत विधानसभा के पहले चुनाव मार्च 1952 में संपन्न हुए। पहले विधानसभा चुनाव में मध्य भारत में 7 राष्ट्रीय पार्टी, 2 राज्य पार्टी एवं एक निर्दलीय समेत 10 दलों ने चुनाव में भाग लिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सभी 99 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए और उसे 75 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। कांग्रेस के मात्र दो उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई, हिंदू महासभा और भारतीय जनसंघ को क्रमशः 11 एवं 4 स्थानों पर विजय हासिल हुई थी, निर्दलीय एवं अन्य 9 प्रत्याशी विजयी हुए थे। मध्यभारत के प्रथम मुख्यमंत्री मिश्रीलाल गंगवाल बने थे।
 
1957 में मध्यप्रदेश राज्य का पहला चुनाव : मध्यप्रदेश बनने के बाद राज्य के ये पहले विधानसभा चुनाव थे। राज्य में कुल 288 सीटें थीं। वैसे 218 सीटें थीं, परंतु 70 स्थानों पर दो उमीदवार खड़े किए थे। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के जिस क्षेत्र में ज्यादा मतदाता थे उन स्थानों पर विकास को गति देने के (एक सामान्य श्रेणी से और एक आरक्षित श्रेणी से उम्मीदवार खड़े किए गए थे) लिए यह डबल प्रणाली थी, जो 1962 के चुनावों में समाप्त कर दी गई। 1 करोड़ 38 लाख 71 हजार 727 मतदाता थे। इनमें से 41 प्रतिशत ने मतदान में हिस्सा लिया।
 
कांग्रेस ने 288 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए और 232 सीटों पर जीत हासिल की। जनसंघ ने 124 उम्मीदवार खड़े किए थे, जिनमें से 10 ही विजयी रहे। पीएसपी के 12, भाकपा 2, राम राज्य परिषद ने 5, हिन्दू महासभा ने 7 और निर्दलीय 20 स्थानों पर विजयी रहे थे। पंडित रविशंकर शुक्ल सर्वानुमति से मध्यप्रदेश के पहले मुख्‍यमंत्री बनाए गए। 1956 में शुक्ल का निधन हो गया और अंतरिम व्यवस्था तक भगवंत राव मंडलोई को मुख्‍यमंत्री बनाया गया। 31 जनवरी 1957 को कैलाश नाथ काटजू मुख्यमंत्री बनाए गए। 
 
1962 में मुख्यमंत्री बने मंडलोई : प्रदेश निर्माण के बाद ये दूसरे चुनाव थे। राज्य में 1 करोड़ 58 लाख 74 हजार 238 मतदाता थे। चुनाव में 44.52 प्रतिशत मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। इस चुनाव में कांग्रेस 142, जनसंघ 41, पीएसपी 33, भाकपा 1, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 14, स्वतंत्र दल 2, राम राज्य परिषद 10, हिन्दू महासभा 6 एवं निर्दलीय 39 स्थानों पर विजयी रहे थे। 12  मार्च 1962 को भगवंत राव मंडलोई मुख्यमंत्री बनाए गए, जो सितंबर 1963 तक इस पद पर रहे। इनके बाद सितंबर 1963 में पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री बनाए गए। 
 
सीटें 288 से बढ़कर 296 हुईं : 1967 के विधानसभा चुनाव प्रदेश के साथ देश के लिए भी कांग्रेस नेतृत्व में के शीर्ष परिवर्तन के साथ हुए थे। मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया था और कांग्रेस का नेतृत्व श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों में आ गया था। 1965 में भारत-पाक के बीच हुए विवाद का प्रभाव भी इस चुनाव पर था।
 
प्रदेश में विधानसभा सीटें 296 हो गईं। मतदाताओं की संख्या 1 करोड़ 83 लाख 94 हजार 846 थी। इनमें 53.48 फीसदीमतदाताओं ने अपने मत का उपयोग किया। कांग्रेस ने 167, जनसंघ 78, पीएसपी 9 एसएसपी ने 10 स्वतंत्र दल के 7 निर्दलीय एवं अन्य 25 प्रत्याशी विजय हुए। राम राज्य परिषद एवं जनता कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव में विजय रहे थे। पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री चुने गए।
 
जुलाई 1967 से मार्च 1969 तक राजमाता सिंधिया सदन की नेता रही, 30 जुलाई 1967 को गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री चुने गए जो इस पद पर 25 मार्च 1969 तक रहे। प्रदेश में राजनीतिक में उथल-पुथल के चलते राजा नरेश चंद्र सिंह मार्च 1969 में मुख्यमंत्री बने, उन्हें बहुत ही अल्प समय में त्यागपत्र देना पड़ा। आखिर श्यामाचरण शुक्ल 26 मार्च 1970 को प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी गई।
 
1972 में राज्य विधानसभा 296 सीटों के लिए चुनाव संपन्न हुए इसमें 2 करोड़ 8 लाख 57 हजार। 747 मतदाता थे। इनमें से 55.27 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया। कांग्रेस ने इस चुनाव में 220, जनसंघ ने 48, भाकपा 3, सोशलिस्ट पार्टी 7, निर्दलीय 18 विजय रहे थे। 26 मार्च 1969 को श्यामाचरण शुक्ला मुख्यमंत्री बनाए गए। फिर 29 जनवरी, 1972 प्रकाश चंद सेठी मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए।
 
आपातकाल की आंधी में कांग्रेस का सफाया : जून 1975 को श्रीमती गांधी द्वारा देश में लागू किए गए आपातकाल का प्रभाव वर्ष 1977 के विधानसभा चुनाव पर साफ नजर आया। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर सभी प्रमुख विपक्ष की दल एकजुट हो गए। सयुक्त विपक्ष की नई पार्टी जनता पार्टी का गठन किया गया। इसका चुनाव चिन्ह हलधर किसान था।
 
सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव लड़े। राज्य विधानसभा में 320 सीटों के लिए मतदान हुआ।  परिसीमन के पश्चात प्रदेश में सीटों में वृद्धि हो गई थी। जनता पार्टी की आंधी में कई दिग्गज चुनाव में हार गए आजादी के बाद पहली बार विपक्षी दल की सरकार सत्ता में काबिज हुई। इस चुनाव में जनता पार्टी को सर्वाधिक 47.28% वोट मिले, जबकि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को 35.88 फीसदी वोट मिले। निर्दलीय प्रत्याशियों को 15.35% और 5 उम्मीदवार जीतने में भी सफल रहे थे। 
 
इस चुनाव में जनता पार्टी 230, कांग्रेस 84, निर्दलीय उम्मीदवार 5 सीटों पर विजयी हुए, जबकि अखिल भारतीय राम राज्य परिषद का भी एक उम्मीदवार विजयी हुआ था। 24 जून 1977 को कैलाश जोशी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि जोशी मुश्किल से 6 माह का कार्यकाल पूरा कर पाए। उनके बाद जनवरी 1978 को वीरेंद्र कुमार सकलेचा मुख्यमंत्री बनाए गए। 
 
मुख्‍यमंत्री बदलने का सिलसिला यहीं नहीं थमा। दो साल बाद जनवरी 1980 में सुंदरलाल पटवा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस तरह जनता पार्टी की सरकार ने प्रदेश में तीन मुख्यमंत्री का कार्यकाल देखा। प्रदेश में 30 अप्रैल 1977 से 23 जून 1977 तक राष्ट्रपति शासन रहा था।
 
1980 में भाजपा का उदय हुआ : मध्य प्रदेश में 1980 के चुनाव में कांग्रेस ने 246 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी की और चुरहट से विधानसभा चुनाव जीतने वाले अर्जुन सिंह राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। प्रदेश विधानसभा की 320 सीटों के लिए मतदान हुआ। प्रदेश में 2 करोड़ 53 लाख 84 हजार 215 मतदाता थे। मतदान प्रक्रिया में 48.93 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया। 
 
कांग्रेस को इस चुनाव में 246, भारतीय जनता पार्टी 60, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 2, जनता पार्टी जयप्रकाश 2 और 10 निर्दलीय प्रत्याशी इस चुनाव में विजय रहे थे। इस चुनाव से कांग्रेस का नाम इंदिरा कांग्रेस हुआ। पूर्व जनसंघ के स्थान पर नए दल भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ। चुनाव परिणाम के बाद अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए जिनका कार्यकाल मार्च 1985 तक रहा था।
 
1985 में एक दिन के मुख्यमंत्री बने अर्जुन सिंह : राज्य विधानसभा चुनाव 1985 में एक बार फिर कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की। हालांकि अर्जुन सिंह एक बार फिर मुख्‍यमंत्री बने, लेकिन वे एक दिन ही इस पद पर रह पाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें राज्यपाल बनाकर पंजाब भेज दिया।
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के चलते कांग्रेस की जबर्दस्त बहुमत के साथ सत्ता में वापसी हुई। चुनाव में कांग्रेस के प्रति जनता का झुकाव ज्यादा था। 320 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस ने 250 सीटें जीतीं। इस चुनाव में 2 करोड़ 91 लाख 7 हजार 283 मतदाता थे, उनमें से 49.79 प्रतिशत मतदाताओं ने चुनाव प्रक्रिया में भाग लिया। विपक्षी भाजपा को 58, जनता पार्टी जयप्रकाश को 5, भाकपा को 1 एवं 6 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहे।
 
अर्जुन सिंह को मुख्‍यमंत्री बनने के बाद दूसरे ही दिन यानी 12 मार्च 85 को उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा। 13 मार्च 85 को मोतीलाल बोरा ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इससे पहले की विधानसभा का कार्यकाल पूरा होता पार्टी ने 10 दिसंबर 1990 को श्यामाचरण शुक्ल की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी कर दी। वे मार्च 1990 तक इस पद पर रहे। 
 
 
1990 में राम लहर पर सवार भाजपा को सत्ता मिली : 1990 का चुनाव आते-आते भारत में राम मं‍दिर आंदोलन की शुरुआत हो चुकी है। लोगों पर इसका असर देखने को मिल रहा था। खासकर हिन्दी भाषी में राज्यों में इसका असर ज्यादा था। यही कारण था कि 1990 के चुनाव पर राम मंदिर आंदोलन का असर स्पष्ट देखा गया। भाजपा को विधानसभा चुनाव में इसका फायदा भी मिला। 
 
320 सीटों के लिए संपन्न में विधानसभा चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या 3 करोड़ 75 लाख 95 हजार 559 थी। चुनाव में 54.21 प्रतिशत मतदाताओं ने चुनाव प्रक्रिया में भाग लिया। चुनाव परिणाम में कांग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। 1985 में 250 सीटें जीतने वाली कांग्रेस मात्र 56 सीटों पर सिमट गई। 
 
भाजपा इस चुनाव में 220 सीटों पर विजयी रही थी। जनता दल 28, बसपा 2, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 3 और 11 निर्दलीय प्रत्याशी विजयी रहे थे। 8 मार्च 1990 को सुंदरलाल पटवा ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। पटवा ढाई साल से ज्यादा इस पद पर रहे। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा गिराने के बाद भड़की हिंसा के चलते पटवा सरकार को राष्ट्रपति द्वारा बर्खास्त कर दिया गया। 15 दिसंबर 1992 से 6 दिसंबर 1993 तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा।
 
1993 में दिग्विजय सिंह बने मुख्‍यमंत्री : राष्ट्रपति शासन के बाद मध्यप्रदेश में नवंबर 1993 में हुए चुनाव के बाद राज्य में कांग्रेस की एक बार फिर सत्ता में वापसी हुई। उस समय केन्द्र की राजनीति में रहे अर्जुन सिंह अपने खास समर्थक दिग्विजय सिंह मुख्‍यमंत्री बनवाने में सफल रहे थे। विधानसभा के 320 सीटों के लिए हुए चुनाव में 4 करोड़ 21 लाख 12 हजार 490 मतदाताओं में से 60.17 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया। इस चुनाव में कांग्रेस की सरकार पुनः सत्तारूढ़ हुई।
 
कांग्रेस को 174, भाजपा को 117, बसपा 11, निर्दलीय 12, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी 1,  जनता दल के 4 प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहे थे। बहुमत मिलने के बाद 7 दिसंबर 1993 को दिग्विजय सिंह ने प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस चुनाव में कांग्रेस को 40.67 प्रतिशत वोट मिले, जबकि विपक्षी भाजपा को 38.82% वोट मिले थे। निर्दलीय उम्मीदवारों को इस चुनाव में 5.88 फीसदी वोट मिले थे।
 
1998 में अविभाजित मप्र के आखिरी चुनाव : अविभाजित मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव आखिरी बार 1998 में लड़ा गया। कांग्रेस ने 316 सीटों पर चुनाव लड़ा और वह 172 सीटें जीतने में सफल रही थी। बहुमत का आंकड़ा एक बार फिर कांग्रेस के पक्ष में गया। दिग्विजय सिंह दूसरी बार राज्य के मुख्‍यमंत्री बने। दिग्गी ने अपने गृह क्षेत्र राघौगढ़ से विधानसभा चुनाव जीता था। 
 
वर्ष 1998 के चुनाव में 4 करोड़ 48 लाख 61 हजार 760 मतदाताओं में से 60.21 प्रतिशत मतदाताओं ने वोटिंग में हिस्सा लिया। इस चुनाव में कांग्रेस 172, भाजपा 119, जनता दल 1, बसपा 11, जनता पार्टी 1, समाजवादी पार्टी 4 एवं निर्दलीय और अन्य  12 उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे थे। 
 
दिसंबर 1998 में दिग्विजय सिंह ने प्रदेश की कमान पुनः संभाली वे एक बार फिर यानी दूसरे कार्यकाल के लिए राज्य के मुख्‍यमंत्री निर्वाचित हुए। इस चुनाव में कांग्रेस को 40.59 फीसदी वोट मिले थे, जबकि मामूली अंतर से भाजपा को 39.28 प्रतिशत वोट मिले थे। 
 
2003 में उमा भारती बनीं पहली महिला मुख्‍यमंत्री : एक नवंबर 2000 को मध्य प्रदेश का विभाजन हुआ और छत्तीसगढ़ के रूप में एक नए राज्य का उदय हुआ। पृथक राज्य बनने से 90 विधानसभा की सीटें छत्तीसगढ़ में चली गईं। इसलिए मध्य प्रदेश में 230 विधानसभा सीटें रह गईं। चुनाव में 3 करोड़ 19 लाख 36 हजार 518 मतदाताओं में से 67.25  प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया था।
 
विभाजित मध्य प्रदेश की 230 सीटों पर चुनाव हुआ। भाजपा ने इस चुनाव में 173 सीटें जीतकर भारी बहुमत हासिल किया था। चुनाव के बाद उमा भारती राज्य की पहली महिला मुख्‍यमंत्री निर्वाचित हुईं। 8 दिसंबर को उमा भारती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि अगस्त 2004 को उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनके बाद 23 अगस्त 2004 को बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने, जो 29 नवंबर 2005 तक इस पद पर रहे। 29 नवंबर 2005 को शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पहली बार शपथ ली।  ‍
 
2008 में शिवराज दूसरी बार बने मुख्‍यमंत्री : वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सरकार बनाने में तो सफल रही, लेकिन उसे 30 सीटों को नुकसान हुआ। 2003 की 173 के मुकाबले उसे 143 सीटें हासिल हुईं। नए परिसीमन के तहत 230 सीटों पर संपन्न हुए इस चुनाव में प्रदेश के 3 करोड़ 62 लाख 66 हजार 970 मतदाताओं में से 69.28 प्रतिशत मतदाताओं ने वोटिंग में हिस्सा लिया। 
 
भाजपा 143, कांग्रेस 71, बसपा 7, समाजवादी पार्टी 1, भारतीय जनशक्ति पार्टी 5 एवं अन्य 3 उम्मीदवार विजयी हुए। इस  चुनाव में भाजपा को उमा भारती की बगावत के कारण नुकसान उठाना पड़ा था। उमा ने इस चुनाव भारतीय जनशक्ति पार्टी के बैनर तले अपने उम्मीदवार उतारे थे। हालांकि उमा की पार्टी 5 सीटें जीतने में ही सफल हो पाई थी। 12 दिसंबर 2008 शिवराज सिंह चौहान ने दूसरी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
 
2013 में मतदाताओं को मिला नोटा का विकल्प : भाजपा ने 2013 के विधानसभा चुनाव में 2008 के मुकाबले अपने प्रदर्शन में सुधार तो किया, लेकिन वह 2003 के आंकड़े पर नहीं पहुंच पाई। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में लड़े इस चुनाव में भाजपा 165 सीटें जीतने में सफल रही थी। इस चुनाव में प्रदेश के 4 करोड़ 66 लाख 36 हजार 788 मतदाताओं में से 3 करोड़ 38 लाख 52 हजार 504 (72.07 प्रतिशत) मतदाताओं ने मतदान में हिस्सा लिया। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के प्रयोग से मतों के निरस्त होने का प्रतिशत भी कम हुआ। 
 
इस चुनाव में भाजपा के 165, कांग्रेस के 58, बहुजन समाज पार्टी के 4 एवं निर्दलीय 3 प्रत्याशी विजयी हुए थे। खास बात यह रही कि भाजपा मालवा की 50 में से 45 सीटें जीतने में सफल रही थी। अन्य क्षेत्रों में भी उसका प्रदर्शन अच्छा रहा था। कांग्रेस को इस चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले 13 सीटों का नुकसान हुआ था, जबकि बसपा की सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले 3 कम रही थीं। 
 
इस चुनाव में मतदाताओं को पहली बार नोटा (कोई पसंद नहीं) ऑप्शन भी मिला। बहुमत प्राप्त करने वाली भाजपा को 44.88 फीसदी वोट मिले, जबकि 1.9 फीसदी मतदाताओं ने नोटा का बटन ‍दबाया। 14 दिसंबर 2013 को शिवराज सिंह चौहान ने तीसरी बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
 
2018 में कमलनाथ की ताजपोशी : मध्यप्रदेश में 15वीं विधानसभा के लिए चुनाव में कांग्रेस 114 सीटें जीतकर बहुमत से मात्र 2 सीट दूर रह गई थी। लेकिन, निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थन से कमलनाथ मुख्‍यमंत्री बने। इस तरह कांग्रेस को 15 साल के अंतराल के बाद सत्ता में लौटने का मौका मिला। 
 
वर्ष 2018 में प्रदेश विधानसभा की 230 सीटों पर कुल मतदाताओं की संख्या 5 करोड़ 4 लाख 95 हजार 251 थी इसमें से 74.9  मतदाताओं ने अपने मत का उपयोग किया लगातार भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में रहने से मतदाताओं का कुछ मोहभंग हुआ और भाजपा को 109, कांग्रेस 114 और बहुजन समाज पार्टी 2 समाजवादी पार्टी 1 और निर्दलीय 4 उम्मीदवार विजयी रहे। 17 दिसंबर 2018 को कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए परंतु ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक 22 विधायकों के पाला बदलने से कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई। 20 मार्च 2020 को कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा और शिवराज सिंह चौहान 23 मार्च 2020 को एक बार फिर मुख्यमंत्री चुने गए।
 
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