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Written By भाषा
Last Modified: नई दिल्ली (भाषा) , मंगलवार, 19 मई 2009 (13:57 IST)

भाजपा पर भारी पड़े राहुल गाँधी

भाजपा पर भारी पड़े राहुल गाँधी -
किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने के लिए आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के साथ चुनावी दंगल में उतरी भाजपा की 'पिता तुल्य' रणनीति पर कांग्रेस के 'राहुल बाबा' भारी पड़ गए।

आम चुनावों में विज्ञापन प्रचार अभियान पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया। भाजपा ने तो विज्ञापन एजेंसियों को अपने चुनाव प्रचार का ठेका देते समय ही स्पष्ट कर दिया था कि वह किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना चाहती है। इसके साथ ही भाजपा ने वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को विज्ञापनों में 'पिता तुल्य' रूप में पेश किए जाने की भी सख्त हिदायत दी थी और उसके विज्ञापनों में यह साफ तौर पर दिखा भी।

लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस ने जहाँ विज्ञापन एजेंसी को 'आम आदमी' के अपने पुराने नारे पर जोर देने के निर्देश दिए वहीं महिला और युवा वर्ग सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए स्वच्छ प्रशासन तथा मुंबई हमलों के मद्देनजर सरकार में जनता का भरोसा बहाल करने की तीन अन्य रणनीतियों को भी प्रमुखता से पेश करने को कहा।

पिछले 35 साल से चुनावी गतिविधियों का बारीकी से विश्लेषण करने वाले सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के भास्कर राव ने कहा कि इस चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मात्र विज्ञापनों और मीडिया में मौजूदगी जीत का पैमाना नहीं हो सकती।

कांग्रेस ने देश के कुल मतदाताओं में 38 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले युवा वर्ग को लुभाने के लिए विज्ञापन एजेंसियों को युवा नेता राहुल गाँधी को भी एक नई उम्मीद के रूप में पेश करने के निर्देश दिए थे।

भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान की कमान जहाँ फ्रैंक सिमोस, टैग और यूटोपिया को सौंपी गई, वहीं कांग्रेस ने प्रतिष्ठित विज्ञापन कंपनी जेडब्ल्यूटी और केयान एडवरटाइजिंग को इस काम में लगाया।

राव ने कहा कि यह चुनाव प्रचार नकारात्मक बनाम सकारात्मक पर आधारित था जिसमें सकारात्मकता विजयी रही। उन्होंने कहा कि प्रचार की दृष्टि से देखा जाए तो मीडिया में वरुण गाँधी को सोनिया, राहुल, मनमोहन और यहाँ तक कि लालकृष्ण आडवाणी से अधिक कवरेज मिला। लेकिन इसका नतीजा क्या रहा यह सबके सामने है।

विज्ञापनों के जरिये प्रचार अभियान की दृष्टि से देखा जाए तो भाजपा अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी से मीलों आगे थी और उसने एफएम रेडियो, टीवी और प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों,
इंटरनेट और एसएमएस के जरिये कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक और पूरी तरह नकारात्मक अभियान चलाया लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के सकारात्मक और रक्षात्मक प्रचार ने उसकी हवा निकाल दी।

वोट हासिल करने के लिए कांग्रेस द्वारा अपनाई गई रणनीति के बारे में पार्टी सूत्रों ने कहा यह रणनीति 2004 जैसी ही थी। विज्ञापन के मामले में हमारा पूरा अभियान भाषायी मीडिया तथा विशेष क्षेत्रीय चैनलों तक सीमित था। विपक्ष पर हमला करने में जगह और समय बर्बाद करने के बजाय हमने संप्रग सरकार की उपलब्धियों को प्रमुखता से पेश करने पर ध्यान दिया।

उधर भाजपा ने अपनी आक्रामक प्रचार नीति के तहत अपने 'मजबूत नेता' लालकृष्ण आडवाणी के लिए 'कमजोर पीएम' मनमोहन सिंह के साथ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी आदि का सहारा लेने को बाध्य होना पड़ा और इसके लिए उसने प्रसिद्ध सर्च इंजन गूगल से एक करार भी किया।

गूगल सूत्रों ने बताया कि इस करार के तहत भाजपा ने अपनी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस के नेताओं सोनिया, राहुल, मनमोहन, कांग्रेस, सपा और बसपा सहित करीब 850 की-वर्ड्स (महत्वपूर्ण शब्द) खरीदे थे। इन 850 की-वर्ड्स पर क्लिक करते ही आडवाणी के विज्ञापन भी उनके साथ इंटरनेट पर मौजूद थे।

भाजपा ने इसके अतिरिक्त देशभर के 35 करोड़ से अधिक मतदाताओं को एसएमस भेजने के साथ ही विभिन्न राज्यों के 280 एफएम रेडियो स्टेशनों और ऑनलाइन प्रचार के लिए याहू इंडिया से भी गठजोड़ किया था, लेकिन भाजपा की ये सारी रणनीतियाँ धरी की धरी रह गईं।

भास्कर राव कहते हैं कि इस चुनाव में अतीत बनाम भविष्य भी एक निर्णायक कारक साबित हुआ। पार्टियाँ यह भूल गईं कि देश में युवा मतदाता आगे आ रहा है जो बीती बातों को रोने के बजाय भविष्य की ओर देखना चाहता है और राहुल गाँधी ने उसके सामने भविष्य की सुनहरी तस्वीर पेश की। उन्होंने कहा कि इस मामले में भाजपा गड़े मुर्दे ही उखाड़ने में लगी रही। इसके अलावा राहुल का जनता से संपर्क अभियान भी अधिक कारगर साबित हुआ।

उधर वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक अरविंद मोहन ने कहा कि केवल विज्ञापनों से चुनाव नहीं जीता जाता। भाजपा के विज्ञापन भले ही कितने शानदार रहे हों लेकिन जनता उसके चरित्र के दोहरेपन में झाँक चुकी है।

उन्होंने कहा अब भाजपा ऐसे मुकाम पर पहुँच गई है जहाँ उसकी पार्टी विद ए डिफरेंस की छवि समाप्त हो गई है और वह कांग्रेस का एक दूसरा रूप हो गई है। ऐसे में यदि उसके पास युवा सोच और युवा नेतृत्व का अभाव रहेगा तो पार्टी की स्थिति में सुधार होना मुश्किल है।