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Last Updated : मंगलवार, 7 मई 2024 (16:36 IST)

आत्मकथा : मेरी अपनी कथा-कहानी

आत्मकथा : मेरी अपनी कथा-कहानी - my own story
Prabhudayal Srivastava
 
autobiography : विद्युत् मंडल में एक्सिक्यूटिव इंजिनियर के पद से सेवानिवृत होने 21 साल बाद आज बचपन की ओर लौटता हूँ तो संघर्षों का वह कठिन दौर आँखों के सामने साक्षात उपस्थित होकर अपनी कहानी कहने लगता है और यह घोषणा भी करने लगता है की इस दुनिया में कठिन कुछ नहीं होता। जहाँ चाह होती है वहाँ राह निकलती ही है, भले देरी कितनी भी लगे।
   
मेरे परदादा लाला पीताम्बर लाल एक छोटी से रियासत धरमपुरा जो की दमोह नगर से दो मील दूर बांदकपुर रोड पर स्थित है में मुख्त्यार थे। अब तो धरमपुरा दमोह शहर का एक मोहल्ला है। छोटी रियासतों के मंत्री ही शायद मुख्त्यार कहलाते थे। बड़ा रूतबा था उनका। लगभग आधे एकड़ जमीन में मकान बना था जो लालाओं की बाखर कहलाता था। राज दरबार में बहुत सम्मान था उनका। घर में पूजा-पाठ होते रहते। साधु-संन्यासियों की भीड़ लगी रहती। दान-दक्षिणा, भोजन, प्रसादी का रोज दौर चलता। परिवार के लोगों के परिवरिश की सारी जुम्मेवारी भी उन्होंने अपने सिर पर ओढ़ रखी थी। जब तक वे जीवित थे जब तक तो सब ठीक चला, लेकिन उनकी आँखें मुंदते ही सारी व्यवस्थाएं चरमरा गई। 
 
शाही खर्च के कारण कोई भी पूँजी संचित थी ही नहीं और मेरे दादाजी लाला चोखेलाल जी भी खास कुछ नहीं कर सके। पिताजी लाला रामसहाय जी जरूर रेल महकमें में काम करने लगे थे। घर से दूर मुंबई और पूना, झांसी जैसी जगहों में वे कार्यरत रहे। लेकिन रेल कर्मचारियों की लंबी हडताल और बर्खास्तगी के चलते वे अपने घर लौट आए थे। 
 
अंग्रेजी प्रशासन ने बाद में सब कर्मचारियों की सेवाएं बहाल कर दी थीं लेकिन घर के बुजुर्गों ने बाद उन्हें नौकरी में नहीं जाने दिया। लाला पीताम्बर लालजी की मृत्यु के बाद ही घर के आर्थिक हालत बिगड़ने लगे थे। इधर पिताजी भी एक लम्बी सी बीमारी के चलते बेवक्त ही काल के गाल में समा गए। यह परिवार के लिए बहुत बड़ा आघात था। अल्प आयु में जब उनकी मृत्यु हुई, मेरे बड़े भाई साहब नौवीं कक्षा पास कर दसवीं में पहुंचे थे। बीमारी में पैसा लगभग सभी समाप्त हो चुका था। 
 
ऐसे में मेरी मां भगवती देवी पर मेरे बड़े भाई, एक बड़ी बहन और मेरे एक छोटे भाई के भरण पोषण का दायित्व आ पड़ा। सहारे के नाम पर मात्र थोड़ीसी खेती थी जिसमें बामुश्किल दो क्विंटल अनाज ही साल भर में मिलता। परिवार के वे लोग जिनकी परदादा पीताम्बर लाल जी ने जी जान से परवरिश की थी मौकापरस्त हो, दूर गए। 
 
किसी भी तरह बड़े भाई साहब ने टयूशन पढ़ाते हुए और खुद पढ़ते हुए मैट्रिक पास किया और शिक्षक हो गए। हां, मेरे मामाजी ने जरूर उनकी आर्थिक सहायता की। मामाजी अयोध्या प्रसाद खरे और उनके पुत्र स्वामी प्रसाद खरे जी ने यथायोग्य सहायता हमारे परिवार को दी। मैंने पहली कक्षा धरमपुरा दमोह के पृथ्वीराज चौहान प्राइमरी स्कुल से पास की अब तो यह स्कूल हायर सेकेंडरी स्कूल हो गया है और नाम भी बदलकर सरदार पटेल स्कूल हो गया है।
 
मेरा यह सौभाग्य रहा कि भाई साहब की पोस्टिंग जिस रहली नामक कस्बे में हुई वह वीर क्रांतिकारी सदाशिवराव मलकापुरकर जो कि अमर शहीद चंद्रशेखर के अभिन्न साथी थे, का गृह ग्राम था। भाग्य से हम लोग उन्हीं के मकान में किराए से रहे। और एक और विशेष बात रही कि जिस कमरे में हम रहे उस कमरे में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की माता जगरानी देवी दो साल पहले रहकर झांसी जा चुकी थीं। सदाशिव जी झांसी में शिक्षक थे और गर्मियों और सर्दियों में छुट्टियों में रहली आते रहते थे। और हम लोगों को आज़ाद के बारे ढेर से किस्से-कहानियां सुनाते थे। 
 
सदाशिव जी जिन्हें हम काका कहते थे तो अविवाहित थे, लेकिन उनके बड़े भाई शंकरराव जी के बच्चे और हम भाई-बहन उनको घेर के बैठ जाते और देर रात तक क्रांतिवीरों की कहानियां चलती। काका भी हम बच्चों के साथ बच्चे बन जाते और मजे से, कैसे अंग्रेजों को चकमा देते थे, कहां-कहां छुपते थे, सब बातें बताते थे। बड़े भाई साहब भी स्कूल की लाइब्रेरी से कहानी, उपन्यास इत्यादि की किताबें ले आते थे। शायद क्रांतिकारियों के किस्से और लायब्रेरी की किताबों ने मुझे बचपन से ही साहित्य को पढ़ने-लिखने की और आकर्षित किया। पहली कक्षा धरमपुरा में पढ़ने के बाद मैं दूसरी से पांचवीं कक्षा और आधे साल तक रहली में पढ़ा। पहले प्राइमरी चौथी तक ही होती थी और पांचवीं से आठवीं तक मिडल स्कूल कहलाता था। 
 
रहली में सुनार नामक नदी बहती है उसी नदी में मैंने तैरना सीखा। मैंने 'नदी की वो गुट-गुट' संस्मरण इसी नदी में होने वाली घटना के आधार पर लिखा है। जो बाल साहित्य की धरती नामक बाल पत्रिका में रावेन्द्र रवि ने प्रकाशित किया है। वेबदुनिया में भी यह छपा है। मैं पढ़ने में बहुत ठीक था और अक्सर कक्षा में प्रथम आता था। उस समय शिक्षा विभाग का नियम था कि जो विद्यार्थी पांचवीं की तिमाही परीक्षा में प्रथम आता था, उसे पांचवीं से आठवीं कक्षा तक बारह रुपए प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी। मैं प्रथम आया और मुझे यह छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। और आठवीं कक्षा तक सतत मिलती रही। रहली में बिताए गए दिन शायद मेरे जीवन के सबसे सुनहरे दिन थे। दूसरी कक्षा से पांचवीं तक की पूरी पढाई वहीं हुई। 
 
मेरे बड़े भाई साहब उसी स्कूल में पढ़ाते थे जिसमें मैं पढता था। सारे शिक्षकों का वरद हस्त मेरे सिर पर होता था। भाई साहब की स्कूल में बड़ी धाक थी। सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम उन्हीं के संरक्षण में होते थे। मैं भी भाषण प्रतियोगिताओं कविता पाठों में भाग लेता था। कभी-कभी तो अपने ही स्कूल के फटीचर होने के सबूत भी बच्चे देते थे जब नारे लगते, 'एग्रीकल्चर हाईस्कूल टूटे बेंच फटे स्टूल।'  
 
एक वाकया जो मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा वह बहुत ही मजेदार है। हर शनिवार को स्कूल में रामायण होती थी शाम को सात बजे, मैं अपने मित्र रवि के साथ रामायण में शामिल होने गया था। रामायण शुरू होने में कुछ समय बाकि था सो हम सभी मित्रगण भूतों के बारे चर्चा करने लगे थे। भूत होते हैं अथवा नहीं होते हैं, इसी बात खूब बहस हुई। पांचवीं में पढ़ने वाले मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि भूत नहीं होते लेकिन कुछ मित्र ठोस सबूत दे रहे थे कि भूत होते हैं। 
रामायण समाप्त कर मैं अपने मित्र रवि के साथ रात साढ़े दस बजे घर लौट रहा था। रवि का घर पहले पड़ जाता था। उसके घर चले जाने पर मैं अकेला रह गया, मेरा घर लगभग पांच सौ फुट आगे था। उन दिनों बस्ती में बिजली तो थी नहीं सो सड़क पर अंधकार पसरा पड़ा था। मैं जल्दी-जल्दी तारों की रौशनी में घर की तरफ कदम बढ़ने लगा। भूतों की गर्मागर्म बहस मेरे दिमाग में बहुत दौड़ रही थी। तभी अचानक सामने आकाश में एक तारा टूटा और नीचे की और जाकर सामने लगे एक पेड़ के ठूंठ पर लोप होने लगा। उसी समय एक कुत्ता बड़ी जोर से रोया। 
 
दिमाग के भूत ने मुझे इतना डरा दिया की मैं चिल्लाकर वापस उसी तरफ भगा जहां से आया था। पेड़ के ठूंठ में मुझे भूत नज़र आया। फिर पीछे भागने पर ऐसा जैसे लगा भूत मेरे पीछे दौड़ रहा है। यह तो अच्छा हुआ की मेरी एक बुआ के लड़के दिन्नू भैया जो खाना खाकर उसी सड़क पर टहल रहे थे ने मुझे पकड़ लिया। मैं तो बस भागने के मूड में ही था। 
 
उन्होंने मुझे जोर से झकझोर दिया और कहां जा रहे हो मुन्ना? क्यों चीख रहे हो? मुझे कुछ होश आया, भूत .....शायद कुछ है उधर। इतने में मेरी चीख सुनकर हमारे मकान मालिक वीर क्रांतिकारी शंकरराव मलकापुरकर भी दौड़े आए और मुझे पकड़कर घर ले आए। मैंने उन्हें भी हांफते हुए भूत होने की बात बताई तो वे हंसने लगे। कहां होता है भूत? भूत-वूत कुछ नहीं होता। भय का भूत तुम्हारे ऊपर चढ़ गया है। फिर मुझे समझाने लगे 'पेड़ के ऊपर तारा टूटा और कुत्ता रोया और तुम्हारे मन में यही भय था भूत का, तो तुम डर गए। थोड़ी देर में मैं सामान्य हो गया और अपनी मूर्खता पर बहुत शर्मिंदा भी हुआ। 
 
सर्दियों में तो बाकायदा बड़े लक्कड़ जलाकर अलाव के सामने हम लोग तापने बैठते थे। फिर काका सदाशिवराव, अपने चंद्रशेखर आज़ाद के साथ रहते हुए बहादुरी और रोमांच पैदा कर देने वाले किस्से सुनाते। तीन-चार किस्से तो मैं अभी भी नहीं भूला हूं। काश उस समय मैं जानता होता कि काका एक महान क्रांतिकारी है और जिस घर में मैं रहता हूं वह देश सच्चे सपूतों का घर है तो मैं काका साहब से ढेर सारे किस्से-कहानियां हासिल कर लेता। लेकिन क्या करूं, दस-ग्यारह साल की उम्र में मुझे इतनी समझ भी नहीं थी। वह तो बाद में पता लगा कि जिस कमरे में मैं पढता था उस कमरे में देश माता जगरानी देवी के कदम पड़ चुके थे। आज़ाद के किस्से मैं अलग से आगे दूंगा।
 
रहली कस्बे के बीच से बहने वाली सुनार नदी में मैंने तैरना सीखा। मेरे पांचवीं कक्षा पास करते करते बड़े भाई साहब शिक्षक की नौकरी छोड़ कर रेलवे महकमें में चले गए थे। भुसावल, धोंड में ट्रेनिंग के बाद जबलपुर फिर गृह नगर दमोह आ गए थे। मैं भी रहली छोड़कर परिवार के साथ दमोह आ गया और छठवीं कक्षा में शासकीय हाईस्कूल में दाखिला ले लिया। परंतु यहां विधाता की नज़र फिर टेढ़ी हो गई। दमोह में जो मेरा गृह नगर है में आगे पढ़ने के रंगीन सपने संजोएं मैं शाला जाने लगा था कि यहां आने के मात्र सात महीने बाद ही भाई साहब की बिलकुल अज्ञात और विचित्र बीमारी के चलते केवल बाइस साल की आयु में ही मृत्यु हो गई। फिर कुठाराघात, ईश्वर तो माने तमंचा ताने ही बैठा था। अब तो आगे अंधकार ही था बिलकुल अंधेरा| 
 
मैं तेरह साल का बालक, छठवीं पास होकर सातवीं में पहुंचा था। बड़ी बहन सावित्री मात्र बीस साल की थीं। उनकी पढाई तो आठवीं पास करने के बाद पहले ही बंद हो चुकी थी। हम दो भाई, एक बहन और मां, चार लोगों का गुज़ारा कैसे हो यह प्रश्न मुंह फाड़कर सामने खड़ा था। घर में बस एक पुराने घर के सिवाए कुछ नहीं था। परिवार के साझे में जमीन जिसमें हमारे हिस्से में मात्र साढ़े चार-पांच एकड़ और वह भी भगवान भरोसे। 
 
चाचा बाबा सब दूर खड़े होकर तमाशा देखने वाले। पर कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान तो होता ही है। परिवार के लोग ठीक नहीं थे तो क्या हुआ, पर बाहर के लोग तो ठीक थे। पर आज पीताम्बर लाल जी की साख , पिताजी का ईमान और भाई साहब के मित्रों की लंबी कतार सबके हाथ सहायता के लिए आगे आ गए। बड़ी बहन की नगर पालिका के स्कूल में शिक्षिका के पद पर तैनाती हो गई। गाड़ी आगे चलने लगी। 63 रुपए मासिक पगार, इतने में महीने भर का गुजारा तो हो ही सकता था। डूबते को तिनके का भी सहारा बहुत होता है। मेरी और छोटे-भाई की पढ़ाई भी बदस्तूर जारी रही। मुझे जो रहली में रुपए बारह की छात्रवृति मिलती थी, वह दमोह आने पर किसी नियम के तहत बंद हो गई थी लेकिन भाई साहब की मृत्यु के बाद किन्हीं अदृश्य हाथों ने छात्रवृत्ति फिर से बहाल करा दी। 
 
मैनें सातवीं और आठवीं प्रथम अथवा द्वितीय रहकर उत्तीर्ण कर ली थी। नौवीं कक्षा की प्रथम तिमाही परीक्षा में मैं फिर प्रथम आया और मुझे बीस रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्ति प्राप्त हो गई, जो ग्यारहवीं कक्षा मिलती रही। पढ़ने में अच्छा होने के कारण शिक्षक वृन्दों का वरदहस्त हमेशा मेरे ऊपर रहा। ग्यारहवीं पास करने के बाद प्रश्न फिर खड़ा हुआ कि मुझसे नौकरी कराई जाए अथवा आगे पढ़ाया जाए । नौकरी में बाबू बनना पड़ता अथवा प्राइमरी स्कूल में मास्टरी करना पड़ती। उच्च प्रथम श्रेणी छह विषयों में विशेष योग्यता आगे की पढाई करने पर जोर दे रहे थे लेकिन बहन की मात्र तिसयासी रुपए की पगार हाथ वापस खींच लेते थे। इतने से रुपए में घर का खर्च चले या मैं धरमपुरा दमोह छोड़कर बाहर पढ़ने जाऊं। सब कुछ अनिश्चित। तभी हमारे केमिस्ट्री के व्याख्याता मिस्टर घोष ने नौगावं में मेरे रहने की व्यवस्था अपनी दीदी के घर पर करवा दी। 
 
जहां के पॉलिटेक्निक कॉलेज में मुझे दाखिला दिला दिया गया। उनके घर में मैं ऐसा पेइंग गेस्ट बनकर रहा जहां मैंने एक भी रुपया पे नहीं किया। एडमिशन सूची में कॉलेज में सबसे अधिक मार्क्स मेरे ही थे। यहां भी मुझे प्रथम वर्ष में राज्य की चालीस रुपए माह की छात्रवृत्ति मिलने लगी। राष्ट्रीय छात्रवृत्ति की परीक्षा जिसमें प्रथम तीन विद्यार्थियों को साठ रुपए छात्रवृत्ति मिलना थी में मैं चौथे नंबर पर आ पाया। हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले मुझसे अंग्रेजी माध्यम का परचा शायद ठीक से हल न हो सका हो या हो सकता है बहुत से बच्चे बी.एस.सी. करके आए थे, मुझसे ज्यादा होशियार हों क्योंकि मैं तो बस ग्यारहवीं पास करके ही गया था।। लेकिन यहाँ फिर भाग्य ने जोर मारा। 
 
जो विद्यार्थी इस स्कॉलरशिप परीक्षा में प्रथम आया था, वह फस्ट ईयर पॉलिटेक्निक की अंतिम परीक्षा में फेल हो गया। चौथे नंबर पर रहने वाला मैं प्रथम तीन की सूची में आ गया और मुझे साठ रुपए की स्कॉलरशिप मिलने लगी जो की पॉलिटेक्निक के अंतिम वर्ष तक मुझे मिलती रही। मैंने इलेक्ट्रिकल विषय लिया था। अंतिम वर्ष की परीक्षा देने और नतीजे घोषित होने के बाद शीघ्र ही मैं मध्य प्रदेश विद्युत् मंडल में नौकरी पा गया। 
 
मध्य प्रदेश विद्युत् मंडल में जूनियर इंजीनियर के पद पर भर्ती होकर एक्सीक्यूटिव इंजीनियर के पद से में सेवा निवृत्त हुआ। हालांकि मैंने गणित साइंस की पढ़ाई की थी लेकिन मेरा रुझान हमेशा हिंदी साहित्य की तरफ ही रहा। घर के हालात ठीक होते और इंजीनियर बनकर और जल्दी नौकरी पाकर घर का बोझ हल्का करने की जरूरत न होती तो मैं भी हिंदी विषय लेकर स्नातक होता और पीएचडी करके किसी कॉलेज में प्राध्यापक होता। हिंदी विषय में हमेशा टॉपर रहा। कविताएं तो मैं आठवीं कक्षा से ही लिखने लगा था। शाला के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा भाग लेता था और पुरस्कार जीतता था। 
 
वैसे तो घर में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था, लेकिन खुद की बचपन से ही विशेष रूचि काव्य रचना की ओर रही। शायद यह पैदाइशी ही रही। नाइंथ क्लास तक पहुंचते-पहुंचते मैंने प्रेमचंद, टैगोर, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय और वृन्दावन लाल वर्मा के अधिकांश उपन्यास कहानियां पढ़ डाले थे। लिखने-पढ़ने का शौक तो बदस्तूर जारी रहा लेकिन विद्युत् मंडल की नौकरी जनसंपर्क की सेवा थी और चौबीस घंटे तनाव और सतर्कता की भेंट चढ़ती रहती थी। ऐसे में लेखन में व्यवधान पड़ना स्वाभाविक था। लिखा तो बहुत पर छपा नहीं और कागजों, कॉपियों तक ही सीमित रह गया। मेरे जमाने में तो ऐसा कुछ माना जाता था कि आर्ट्स विषय कम बुद्धि और कमजोर बच्चे ही लेते हैं कुशाग्र बुद्धि वालों को तो मैथ्स-साइंस पढ़ना चाहिए। फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद तो नौकरी पक्की ही होती थी। घर बैठे ही आर्डर आ जाता था। मध्य प्रदेश में तो शिक्षित इंजीनियर थे ही नहीं। आर्ट्स में तो यह सुविधा थी ही नहीं, टेस्ट और साक्षात्कार बस यही करते रहो। खैर जो बीत गई सो बात गई।
 
मेरा प्रमोशन जब सहायक इंजीनियर के पद पर हुआ और फील्ड से मुक्त होकर जब मुझे ऑफिस में काम करने का मौक़ा मिला तब ही मुझे ठीक से लिखने का समय मिल पाया। ऑफिस का समय दस बजे से पांच बजे तक होता था, उसके बाद मुझे लिखने का मौका ही मौका था। मेरी रचनाएं अमृत सन्देश रायपुर और नव भारत रायपुर में छपना शुरू हो गई। पहले तो मैं कविताएं ही लिख रहा था। लेकिन नौकरी में रहते हुए मैंने जो अधिकारीयों के दुरंगे चरित्र और उनमें विसंगतियां देखी तो कलम विद्रोह से भर उठी और मैंने अपनी व्यथा व्यंग्यों के माध्यम से उकेरी। सेवानिवृत्ति के पहले के आठ साल मैंनें छिंदवाड़ा में नौकरी की और यहाँ मैंने खूब व्यंग्य लिखे। देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में मेरे दो सौ के लगभग व्यंग्य प्रकाशित हुए। कहानियां, लघुकथाएं भी मेरी खूब छपीं। 
 
बाल साहित्य तो मैंने सेवा निवृत्ति के बाद उस समय से शुरू किया जब मेरा सारा समय मेरे दो पोतों और तीन पोतियों के साथ बीतने लगा। बच्चों में रहे बच्चा बनकर फिर तो बाल मन में हिलेरें उठना ही थीं। प्रथम बाल कविता 'रोटी का सम्मान' महेश सक्सेना जी ने अपना बचपन अखबार भोपाल में प्रकाशित की थी। फिर तो बाल कविताओं गीतों का ही दौर चला देश की लगभग सभी बाल पत्रिकाओं /पत्रों में मेरी रचनाएं प्रकाशित की। 
 
बचपन की कुछ और घटनाएं जो मुझे अभी तरोताज़ा लगती रहतीं हैं और उद्देलित करती रहती हैं। शायद कुछ सोच रही है कि कायस्थों के मुंह का थूंक फोड़े फुंसियों /दाद इत्यादि बीमारी में बहुत लाभकारी होता है। इसी तारतम्य में मेरे घर पर गरीब तबके की महिलाएं पान लेकर आतीं थीं और मुझसे पान चबाकर उसकी पीक देने की गुजारिश करतीं थी ताकि उस पीक से घर के फोड़े फुंसियों के रोगी को लगाकर उससे निजात पाई जा सके। पहले तो मुझे बहुत मज़ा आता था। लेकिन बाद में मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा। ये कैसी बेहूदगी है किसी का थूक किसी की दवा बन जाए। मैनें ऐसा करने को रोकना चाहा लेकिन मोहल्ले के लोग गुस्सा न हो जाएं और उनके मन को दुःख न पहुंचे इंकार करना कठिन होता था। 
 
आठवीं कक्षा में प्यारे मोहन श्रीवास्तव हमारे कक्षा शिक्षक थे। एक दिन मैं उनके पीरियड की पुस्तक घर पर भूल आया। श्रीवास्तव सर ने इस बात पर मुझे सिर के पीछे जोर से चांटा मार दिया। मैं स्कूल में पहली बार पिटा था इसलिए सहना सम्भव नहीं हुआ और मैं रोने लगा। पहले पीरियड से पांच पीरियड तक मैं लगातार रोता रहा दूसरे शिक्षकों ने खूब समझाया तब भी मैं चुप नहीं हुआ। अंत में प्यारे मोहनजी आए और बोले 'मेरे बाप अब चुप हो जा अब कभी नहीं मारूंगा।' उसके बाद में तो मैं उनका प्रिय शिष्य हो गया। प्यारे मोहनजी बहुत अच्छे मिलनसार और हमेशा मदद करने को तत्पर रहने वाले शिक्षक थे। मैं सातवीं कक्षा में प्रथम पास होकर आठवीं में पहुंचा था और सर को शायद यह मालूम नहीं था। बाद में अपनी भूल पर उन्हें खेद भी हुआ।
 
उसी साल एक और वाकया हुआ। एक दिन लंच अवकाश में मैं अपने एक मित्र शब्बीर हुसैन के साथ स्कूल के अहाते पर बैठा था। शब्बीर को न जाने क्या सूझा उसने मुझे धक्का दिया और मैं नीचे गिर पड़ा। चूंकि मैं हाथों के बल गिरा था मुझे कोई भी चोट नहीं आई। लेकिन अचानक गिरने से मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठा मैनें भी उसका एक पैर पकड़कर नीचे खींच लिया। पैर खींचने के कारण वह एक हाथ के बल धड़ाम से गिरा और उसका हाथ कलाई के पास से बुरी तरह टूट गया। अब तो मैं घबरा गया। वह शहर के अमीर आदमी का बेटा था।

ताबड़तोड़ उसे अस्पताल ले जाया गया। और प्लास्टर बांधने के बाद उसे उसके घर पहुंचाया गया। उस समय प्यारे मोहन जी ही मेरे क्लास टीचर थे। इतना बड़ा हादसा हो गया और उन्होंने मुझसे एक भी शब्द नहीं कहा। बस इतना, पूछा कैसे हुआ। मैंने जो हुआ था सच-सच बतला दिया। सारे मित्र शब्बीर को घर पर जाकर देख आए लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी। 
 
आखिर जिस बात का डर था वही हुआ। बकरी की अम्मा कब तक खैर मनाती। शब्बीर के पिताजी का बुलावा आ गया। मेरी तो जान ही सूख गई उसके पिताजी जरूर नाराज होंगे। लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा। जैसे ही मैं उनके घर पहुंचा उन्होंने मुझे बड़े प्यार से पास में बिठा लिया। इसमें डरने की क्या बात थी बच्चे तो खेलकूद में गिरते ही हैं।

शब्बीर भी शिकायती लहजे अपने वालिद से बोला अब्बू ये देखो मेरा सबसे पक्का दोस्त मुझे गिराकर मेरा हाथ तोड़ दिया और मुझे देखने भी पंद्रह दिन बाद आया। मैं तो शर्म के मारे धरती में गड़ा जा रहा था। मैं तो बेकार ही डर रहा था। चाय नाश्ता करके मैं घर आ गया। और तक शब्बीर का हाथ नहीं ठीक हो गया मैं लगभग हर रोज उसे देखने जाता रहा।
 
धरमपुरा दमोह में बिताए दिन भी स्मरणीय रहे। मैं शालेय गतिविधियों में बिना किसी बाहरी सहयोग के भाग लेता रहा। कविताएं खुद लिखता और कार्यक्रमों में सुनाता। एक बार तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में भाग ले लिया। शायद 1961-62 की बात है मुझे चीन से भारत के युद्ध संबंधों पर मंच पर बोलने को कहा गया। तात्कालिक भाषण में तो तत्काल ही विषय दिया जाता है पर्ची के आधार पर। मैं बुरी तरह से घबराया हुआ था| नहीं मालूम मैंने मंच से क्या बोला। लेकिन जब परिणाम आया तो मैं प्रथम घोषित किया गया। ये कैसे हो गया मुझे आज तक समझ में नहीं आया। 
 
नौवीं कक्षा में तो मैं दो सौ मीटर की दौड़ में भी प्रथम आया। जबकि दौड़ने की प्रैक्टिस बिलकुल नहीं थी। लेकिन दो दिन बाद ही फाइनल टूर्नामेंट के सिलेक्शन के समय तो मैं पचास मीटर भी नहीं दौड़ सका। प्रेक्टिस नहीं होने से पैरों ने जबाब दे दिया। अभी जब यह लेख लिख रहा हूं तो मैं धरमपुरा दमोह में ही हूं। आंगन में बने कुएं को देखकर अचानक स्मरण हो आया की कैसे कुएं पर नहाने के बाद गीली चड्डी सूखाने के लिए हाथ में लेकर झुलाते हुए हम गाते थे' कुएं का पानी कुए में जाए मेरी चड्डी सूख जाएं।' और वाकई चड्डी सूख जाती थी !
 
कभी-कभी लगता है की चापलूसी करना भी जीवन एक अनिवार्य अंग है। मेरी विचारधारा इसके बिलकुल विपरीत थी। मुझे उसका नुकसान भी उठाना पड़ा। दसवीं कक्षा में पढ़ते समय जिला वन अधिकारी की और से एक निबंध प्रतियोगिता 'वन्य पशुओं की रक्षा कैसे की जाएं' विषय पर आयोजित की गई थी। सारे दमोह जिले में मेरा निबंध प्रथम आया था और वन विभाग ने प्रथम पुरस्कार एक घड़ी भेजी थी, लेकिन हमारे प्राचार्य महोदय ने वह घड़ी किसी अपने खास को दे दी। और मुझे अपने किसी खास के द्वारा दो रुपए का पेन थमा दिया गया। जो मुझे उस समय मिला जब मैं नौगांव से छुट्टियों में दमोह आया। 
 
इसी चापलूसी से विमुख रहने पर मुझे लोकल पेपरों और शाला परफॉर्मेंस में इतने कम मार्क्स दिए की मेरा प्रदेश में प्रथम पच्चीस वरीयता प्राप्ति कुछ मार्क्स से ही छूट गई। अगर ये मार्क्स मुझे मिल जाते तो निश्चित ही मैं प्रथम पच्चीस आ जाता। खैर इसे गुण कहें या अवगुण नौकरी करते समय मेरे आड़े आता रहा। और सिद्धांतों से मैंने समझौता कभी नहीं किया। कई लोग तो जिस जगह नौकरी ज्वाइन करते हैं, चापलूसी के बल पर वहीं से सेवानिवृत होते हैं लेकिन अपने राम तो प्रदेश भर में घूमें और कुल उन्नीस जगह नौकरी की।
 
बाल साहित्य की अब तक पांच पुस्तकें : 
1- बचपन गीत सुनाता चल
2- बचपन छलके छल-छल-छल
3- दादाजी का पिद्दू (बाल कहानी संग्रह)
4- अम्मा को अब भी है याद (51 बाल कविताएं)
5- मुट्ठी में है लाल गुलाल (121 बाल कविताएं) 
6- व्यंग्य संग्रह दूसरी लाइन। 
  
अब तक लगभग 65 पाठ्यपुस्तकों में मेरी बाल रचनाएं शामिल हैं, जो देश के हर प्रांत के बच्चे पढ़ते हैं। मेरा लिखा बच्चे शालाओं में पढ़ रहे हैं, यह देखकर मेरे मन को बहुत सुकून मिलता है। कोरोना के समय ऑनलाइन पढ़ाई होती थी, तभी यू टयूब देखकर मालूम पड़ा कि कितने सारे बच्चे पाठ्यक्रम में मुझे पढ़ रहे हैं। मेरे बाल साहित्य को धार देने और बच्चों तक पहुंचाने में वेबदुनिया पत्र का बड़ा योगदान रहा। 

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)