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Written By ND

टॉलस्टॉय

टॉलस्टॉय -
लियो टॉलस्टॉय उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में से एक हैं। उनका जन्म 9 सितम्बर 1828 को रूस के एक संपन्न परिवार में हुआ। उन्होंने रूसी सेना में भर्ती होकर क्रीमियन युद्ध (1855) में भाग लिया, लेकिन अगले ही वर्ष सेना छोड़ दी। लेखन के प्रति उनकी रुचि सेना में भर्ती होने से पहले ही जाग चुकी थी। उनके उपन्यासों 'वॉर एंड पीस' (1865-69) तथा 'एना कैरनीना' (1875-77) को साहित्यिक जगत में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है।

धन-दौलत व साहित्यिक प्रतिभा के बावजूद टॉलस्टॉय अंदरूनी शांति के लिए तरसते रहे। अंततः 1890 में उन्होंने अपनी धन-संपत्ति त्याग दी। अपने परिवार को छोड़कर वे ईश्वर व गरीबों की सेवा करने हेतु निकल पड़े। उनके स्वास्थ्य ने अधिक दिनों तक उनका साथ नहीं दिया। आखिरकार 20 नवंबर 1910 को एस्टापोवो नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर इस धनिक पुत्र ने एक गरीब, निराश्रित, बीमार वृद्ध के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया।

मां की मुस्कान फिर मिल जाए तो जीवन के सब संताप धुल जाएं

मां बैठक में बैठी चाय बना रही थी। उनके एक हाथ में केतली थी और दूसरे में सैमोवार (रूसी चाय का बर्तन) का नल, जिसमें से पानी निकलकर केतली के ऊपर से होता हुआ ट्रे पर गिर रहा था। हालांकि वे उसे एकटक देख रही थीं, फिर भी उन्हें इस बात का एहसास नहीं हुआ कि चाय का पानी बाहर जा रहा है, न ही इस बात का कि हम लोगों ने कमरे में प्रवेश किया है।

जब हम अपने किसी प्रिय व्यक्ति के रूप को याद करने की कोशिश करते हैं तो अतीत की इतनी स्मृतियां जाग उठती हैं कि हमें उस व्यक्ति का धुंधला सा रूप इन स्मृतियों में से ही दिखाई देता है। मानो हमारी आंखें आंसुओं के पार देख रही हों। ये मेरी कल्पना के आंसू हैं। जब मैं अपनी मां को उस रूप में याद करता हूं, जैसी कि वे उस समय थीं तो मुझे उनकी भूरी आंखें दिखाई देती हैं, जिनमें सदा प्रेम व दयालुता दृष्टिगोचर होती थी, उनकी गर्दन का तिल दिखाई देता है, कढ़ाई कार्य से सुसज्जित उनका सफेद कॉलर दिखता है। और उनका वह शीतल, मुलायम हाथ, जो मुझे अकसर दुलारता था और जिसे मैं कितनी ही बार चूम लेता था, लेकिन समग्र रूप से उनकी छबि मुझे याद नहीं आती।

सोफे के बाईं ओर था एक पुराना अंगरेजी पियानो। मेरी सांवली बहन ल्यूबा उस पर क्लेमेंटी की धुनें काफी प्रयासपूर्वक बजा रही थी। पियानो बजाने से ठीक पहले उसकी नन्हीं उंगलियां ठंडे पानी में धोने की वजह से गुलाबी हो जाती थीं। वह ग्यारह साल की थी। उसने लिनेन की एक छोटी ड्रेस पहनी हुई थी। उसके पास ही आधी पीठ किए हुए मारिया इवानोवना बैठी थीं। वे नीली जैकेट तथा एक टोपी पहने हुए थीं, जिस पर गुलाबी रिबन लगी थी। गुस्से से लाल हुआ उनका चेहरा कार्ल इवानिच के प्रवेश करने पर और भी कठोर हो गया। उन्होंने इवानिच की ओर घृणा में डूबी एक निगाह डाली और उनके अभिवादन का जवाब दिए बगैर अपने पैर से ताल की गिनती करती रही : एक, दो, तीन-एक, दो, तीन,' पहले से कहीं अधिक ऊंचे व आदेशपूर्ण स्वर में।

कार्ल इवानिच ने इस सब पर ध्यान न देते हुए मेरी मां के पास जाकर हमेशा की तरह जर्मन भाषा में उनका अभिवादन किया। वे चौंक पड़ीं, अपना सिर हिलाया मानो अपने दर्दनाक विचारों को भगा देना चाहती हों। अपना हाथ कार्ल इवानिच के आगे कर दिया और जब वे उनका हाथ चूमने के लिए झुके तो उनका माथा चूम लिया।

'इच देंके, लायबर कार्ल इवानिच', वे बोलीं। फिर जर्मन भाषा में ही बात जारी रखते हुए बोलीं- 'क्या बच्चे ठीक से सोए थे?' कार्ल इवानिच एक कान से बिलकुल नहीं सुन सकते थे और अब पियानो से उठ रहे शोर के कारण कुछ भी सुन पाने में असमर्थ थे। वे सोफे के और करीब झुककर, एक हाथ टेबल पर टिकाते हुए, एक पैर उचकाकर खड़े हो गए। फिर एक मुस्कान के साथ, जो उस समय मुझे कुछ ज्यादा ही नफीस बनने की कोशिश लगती थी, उन्होंने अपनी टोपी कुछ उठाई और कहा- 'मुझे माफ करोगी, नताल्या निकोलयेवना?'

वैसे तो कार्ल इवानिच जुकाम के डर से कभी भी अपनी लाल टोपी नहीं उतारते थे, लेकिन फिर भी जब वे बैठक में दाखिल होते, टोपी पहने रखने की अनुमति अवश्य मांगते थे! 'उसे पहने रखो, कार्ल इवानिच... मैंने पूछा कि क्या बच्चे ठीक से सोए थे?' मां ने उनके करीब आकर थोड़ी ऊंची आवाज में कहा।

लेकिन इस बार भी वे कुछ सुन नहीं पाए। अपने गंजे सिर पर लाल टोपी पहने वे खड़े रहे और पहले से अधिक ओढ़ी हुई मुस्कान बिखेरते रहे। 'एक मिनट रुकना मिमि' मां ने मुस्कुराकर पियानो बजाती मारिया इवानोवना से कहा- 'हम कुछ भी सुन नहीं पा रहे।'

मां का चेहरा खूबसूरत तो था ही, जब वे मुस्कुराती थीं तब वह और अधिक खूबसूरत बन जाता था और लगता था मानो अपने इर्द-गिर्द हर चीज को जीवंत बना रहा हो।

आज उन घड़ियों में, जब जीवन परीक्षा लेता प्रतीत होता, यदि मैं उस मुस्कान की एक झलक भी पा लूं तो दुःख क्या होता है, यह जान ही न पाऊं। मुझे लगता है कि जिसे सौंदर्य कहते हैं, वह केवल मुस्कान में छिपा होता है। यदि मुस्कान चेहरे का आकर्षण बढ़ा देती है तो वह चेहरा सुंदर है। यदि मुस्कान से चेहरे पर कोई फर्क नहीं मालूम होता तो वह चेहरा साधारण है। यदि मुस्कान से चेहरा बिगड़ जाता है तो वह चेहरा असुंदर है।

जब मां ने मेरा अभिवादन किया तो मेरा सिर अपने दोनों हाथों से पकड़ते हुए पीछे की ओर कर दिया। मेरी ओर ध्यान से देखा और बोलीं- 'तुम सुबह रोए थे?'

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मेरी आंखों को चूमते हुए जर्मन में पूछा- 'क्यों रो रहे थे तुम?' मां जब भी लाड़ पर आतीं- हमेशा जर्मन में ही बोलतीं। इस भाषा के ज्ञान में वे निपुण थीं।

'मैं नींद में रोया था मां!' मैंने कहा और अपना काल्पनिक स्वप्न विस्तारपूर्वक सुना डाला। इसका विचार करते हुए मैं अनायास ही कांप पड़ा। कार्ल इवानिच ने मेरी बात की पुष्टि की, लेकिन स्वप्न के बारे में कुछ नहीं बोले। कुछ देर मौसम के बारे में बातचीत हुई। इस वार्तालाप में मिमि ने भी हिस्सा लिया। फिर मां ने कुछ चुनिंदा नौकरों के लिए ट्रे पर शकर की छह बट्टियां रखीं और खिड़की के पास अपने कढ़ाई कार्य में व्यस्त होने से पूर्व बोलीं- 'अब अपने पिताजी के पास जाओ बच्चों और उनसे कहना कि खलिहान पर जाने से पहले हर हालत में मेरे पास होकर जाएं।'

संगीत, गिनती व घृणा में डूबी निगाहों का सिलसिला जारी रहा और हम पापा के पास जाने लगे। दादाजी के समय से ही, जो कमरा खानसामे का भंडार कक्ष कहलाता था, उसमें से होते हुए हमने अध्ययन कक्ष में प्रवेश किया।

-आत्मकथा (चाइल्डहुड, बॉयहुड एंड यूथ,लियो टॉलस्टाय)