जब चिट्ठी लिखकर पिताजी से माँगी माफी
-
महात्मा गाँधीहाईस्कूल में जिसे मित्रता कहा जा सकता है, ऐसे मेरे दो मित्र अलग-अलग वक्त में थे। एक का संबंध लंबे समय तक न चला। मैंने दूसरे की सोहबत की, इस कारण पहले ने मुझे छोड़ दिया। दूसरे की सोहबत कई साल तक रही। इस सोहबत में मेरी दृष्टि सुधारक की थी। मैं यह देख रह सकता था कि उस भाई में कुछ दोष थे, लेकिन मैंने उसमें अपनी निष्ठा का आरोपण किया था। मेरी माताजी, बड़े भाई और मेरी पत्नी तीनों को मेरी यह सोहबत कड़वी लगती थी। मैंने सबको यह कहकर आश्वस्त किया कि 'वह मुझे गलत रास्ते नहीं ले जाएगा, क्योंकि उसके साथ मेरा संबंध केवल उसे सुधारने के लिए ही हैं।' सबने मुझ पर विश्वास किया और मुझे अपनी राह जाने दिया। बाद में मैं देख सका कि मेरा अनुमान ठीक न था।जिन दिनों मैं इस मित्र के संपर्क में आया था, उन दिनों राजकोट में 'सुधारक पंथ' का जोर था। इस मित्र ने मुझे बताया कि जिन गृहस्थों आदि के बारे में यह माना जाता है कि वे माँसाहार और मद्यपान नहीं करते हैं, वे छिपे तौर पर यह सब करते हैं। मुझे तो इससे आश्चर्य हुआ और दुःख भी, परन्तु मित्र ने माँसाहार की प्रशंसा और वकालत अनेक उदाहरणों से सजाकर कई बार की। उसके शारीरिक पराक्रम मुझे मुग्ध किया करते। जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरे में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही है। वही हाल मेरा हुआ। आश्चर्य से मोह पैदा हुआ।फिर, मैं बहुत डरपोक था। चोर के, भूत के, साँप वगैरह के डरों से घिरा रहता था। ये डर मुझे सताते भी खूब थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत न होती थी। अँधेरे में तो कहीं जाता ही न था और दिए के बिना सोना लगभग असंभव था। मेरे इस मित्र को मेरी इन कमजोरियों का पता था। उसने मुझे यह बता दिया कि माँसाहार के प्रताप से ही वह इन कमजोरियों से मुक्त था। मैं पिघला। माँसाहार करने का दिन निश्चित हो गया।मेरे संस्कार इसके बिलकुल विपरीत थे। गाँधी परिवार वैष्णव संप्रदाय का था। यह संप्रदाय माँसाहार का निरपवाद विरोध और तिरस्कार करने वाला था। माता-पिता बहुत ही कट्टर माने जाते थे। मैं उनका परम भक्त था। मैं यह मानता था कि यदि कहीं उन्हें मेरे माँसाहार की बात मालूम हुई तो वे बिना मौत के तत्काल ही मर जाएँगे। मैं जाने-अनजाने सत्य का सेवक तो था ही। अतएव मैं यह तो नहीं कह सकता था कि माँसाहार करने से माता-पिता को ठगना होगा। इस बात का ज्ञान मुझे उस समय न था।ऐसी स्थिति में माँसाहार करने का निश्चय मेरे लिए बहुत गंभीर और भयंकर वस्तु थी। लेकिन मुझे तो सुधार करना था। माँसाहार का शौक नहीं था। मैं तो बलवान और हिम्मत वाला बनना चाहता था। दूसरों को ऐसा बनने के लिए न्योतना चाहता था और फिर अँग्रेजों को हराकर हिंदुस्तान को स्वतंत्र करना चाहता था। सुधार के इस जोश में मैं होश भूल बैठा।
चोरी और क्षमा, इन दो अनुभवों से पहले अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक हो गया था। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। अतएव उन्हें और दूसरों को धुआँ निकालते देखकर हमें भी बीड़ी फूँकने की इच्छा हो आई। गाँठ में पैसे थे नहीं, इसलिए काकाजी बीड़ी के जो ठूँठ फेंक दिया करते थे, हमने उन्हें चुराना शुरू किया। लेकिन ठूँठ भी हर समय मिल नहीं सकते थे। इसलिए नौकर की गाँठ में जो दो-चार पैसे होते, उनमें से बीच-बीच में एकाध चुरा लेने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे, किंतु हम संतोष न हुआ। अपनी पराधीनता हमें खलने लगी। इस बात का दुःख रहने लगा कि बड़ों की आज्ञा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। हम उकता उठे और हमने आत्महत्या करने का निश्चय किया!हम दोनों जंगल में गए और धतूरे के बीज ढूँढ लाए। शाम का समय खोजा। केदारनाथजी के मंदिर की दीपमालिका में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकांत ढूँढा, लेकिन जहर खाने की हिम्मत न पड़ी। अगर फौरन ही मौत न आई तो? मरने से लाभ ही क्या? पराधीनता को ही क्यों न सहन किया जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत ही न हुई। दोनों मौत से डर गए और तय किया कि रामजी के मंदिर में जाकर दर्शन करके शांत हो जाना तथा आत्महत्या की बात को भूल जाना है।आत्महत्या के इस विचार का एक परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने के और साथ ही नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फूँकने की आदत भूल गए। बड़ेपन में मुझे बीड़ी पीने की कभी इच्छा नहीं हुई और मैंने सदा ही यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। जिस समय बीड़ी का दोष हुआ, उस समय मेरी उम्र कोई बारह-तेरह साल की रही होगी, शायद इससे भी कम।लेकिन इससे भी अधिक गंभीर चोरी का एक दूसरा दोष मेरे हाथों हुआ। उस समय मेरी उम्र पंद्रह साल की रही होगी। मुझसे बड़े भाई ने कोई पच्चीस रुपए का कर्ज बढ़ा लिया था। हम दोनों भाई उसे चुकाने के बारे में सोचा करते थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काटना कठिन न था। कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ, लेकन मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। आगे कभी चोरी न करने का मैंने दृढ़ निश्चय किया। मुझे लगा कि पिताजी के सामने यह सब स्वीकार भी कर लेना चाहिए। जीभ खुलती न थी। इस बात का भय तो था ही नहीं कि पिताजी खुद मुझे मारेंगे। उन्होंने कभी हममें से किसी भाई को मारा न था, लेकिन वे स्वयं दुःखी होंगे और शायद सिर पीट लेंग तो? मुझे लगा कि इस जोखिम को उठाकर भी दोष कुबूल करना ही चाहिए, इसके बिना शुद्धि न होगी।आखिर मैंने चिट्ठी लिखकर दोष कबूल करने और माफी माँगने का निश्चय किया। मैंने चिट्ठी लिखी और हाथों हाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष कुबूल किया और सजा चाही। बहुत अनुनय- विनय के साथ लिखा कि स्वयं अपने ऊपर दुःख न ओढ़ें और प्रतिज्ञा की कि भविष्य में फिर कभी ऐसा दोष न होगा।
मैंने काँपते हाथों पिताजी के हाथ में यह चिट्ठी रखी। मैं उनकी खटिया के सामने बैठ गया। उस समय उन्हें भगंदर का कष्ट था। इस कारण वे खटिया पर लेटे थे। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बूँदें टपकीं। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदी, चिट्ठी फाड़ डाली और खुद पढ़ने के लिए जो उठ बैठे थे, सो फिर लेट गए।मैं भी रोया, पिताजी के दुःख को समझ सका। मोती की उन बूँदों के प्रेमबाण ने मुझे बींधा, मैं शुद्ध बना। मेरे लिए यह अहिंसा का पाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिताजी के प्रेम के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा, लेकिन आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूँ।इस प्रकार की शांत क्षमा पिताजी के स्वभाव के प्रतिकूल थी। मैंने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, कटु वचन कहेंगे और कदाचित अपना सिर पीट लेंगे, किन्तु उन्होंने जिस अपार शांति का परिचय दिया, उसका कारण शुद्ध भाव से दोष की स्वीकृति ही थी। मेरी स्वीकृति से पिताजी मेरे बारे में निर्भय बने और उनका महान प्रेम वृद्धिगत हुआ।(
महात्मा गाँधी की आत्मकथा 'सत्य के मेरे प्रयोग' से साभार)