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Written By DW
Last Updated : शनिवार, 9 जनवरी 2021 (09:49 IST)

इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव पर इतना जोर क्यों दे रहा है भारत?

इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव पर इतना जोर क्यों दे रहा है भारत? - Why is India putting so much emphasis on the Indo-Pacific Oceans Initiative?
रिपोर्ट राहुल मिश्र
 
2014 में जब एक्ट ईस्ट नीति की घोषणा हुई थी, तब इसका फोकस दक्षिण-पूर्व और पूर्वी एशिया के देश थे। पिछले 6 सालों में इस नीति में कई छोटे बड़े परिवर्तन आए हैं। 1 जून 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शांगरी ला भाषण में भारत की इंडो-पैसिफिक नीति की औपचारिक रूप से घोषणा की। उन्होंने यह भी कहा कि भारत एक स्वतंत्र, मुक्त और समावेशी इंडो-पैसिफिक व्यवस्था का हिमायती है और इसके लिए समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर काम करने को तैयार है।
 
इंडो-पैसिफिक नीति को एक्ट ईस्ट और आसियान देशों को केंद्र में रखने की बात कहकर उन्होंने दक्षिण-पूर्वी देशों के संशयों को भी खत्म करने की कोशिश की। साथ ही क्वॉड के जरिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ चतुष्कोणीय संबंध मजबूत करने की तरफ भी बड़े कदम उठाए गए। यहां यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि भारत क्वॉड को इंडो-पैसिफिक से सीधे जोड़ने से बचता रहा है।
 
इसकी प्रमुख वजह यह है कि भारत और जापान दोनों ही मानते हैं कि चीन को अनायास भड़काना बेमतलब की कवायद है। दूसरी ओर, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया इसे इंडो-पैसिफिक और चीन दोनों से जोड़कर देखते हैं। पिछले 2 से ज्यादा वर्षों में इन चारों देशों के क्वॉड को लेकर दिए गए वक्तव्यों से यह बात साफ है। बहरहाल, भारतीय नीति-निर्धारकों को जल्द ही यह अहसास हुआ कि अगर इंडो-पैसिफिक क्षेत्रीय व्यवस्था को मूर्तरूप देना है तो इस तरफ तेजी से और बड़े कदम उठाने होंगे। इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव इसी सोच का नतीजा है।
 
आज से लगभग 1 साल पहले 14वीं ईस्ट एशिया शिखर वार्ता के दौरान बैंकॉक में नवंबर 2019 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव की घोषणा की। कुछ ही दिनों बाद जब भारत और जापान के बीच 2+2 विदेश और रक्षामंत्री-स्तरीय बैठक में भी भारत ने औपचारिक तौर पर इसकी बात की। तब से लेकर आज तक भारत की एक्ट ईस्ट, इंडो-पैसिफिक और नेबरहुड नीतियों में इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव एक अहम स्थान रखता है।
 
भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव के 7 स्तंभ हैं-
 
समुद्री सुरक्षा
 
समुद्री पारिस्थितिकी
 
समुद्री संसाधन
 
विज्ञान, तकनीक, और शैक्षिक सहयोग
 
आपदा जोखिम को कम करना और आपदा प्रबंधन
 
क्षमता निर्माण और संसाधनों को साझा करना और
 
ट्रेड कनेक्टिविटी और समुद्री यातायात
 
भारतीय विदेश नीति के नजरिए से देखें तो यह एक बड़ी पहल थी, क्योंकि इससे पहले इंडो-पैसिफिक क्षेत्रीय व्यवस्था को मूर्त रूप देने के लिए भारत ने कोई बड़ी पहल नहीं की थी। श्रीलंका, बांग्लादेश और दक्षिण एशिया के देश, मॉरिशस, मालदीव और हिंद महासागर के तमाम देश, म्यांमार, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और दक्षिण-पूर्व एशिया के तमाम देश। और यही नहीं, जापान और कोरिया समेत पूर्वी एशिया के देशों के साथ ही ऑस्ट्रेलिया और ओशियानिया के देश भी इस पहल का बड़ा हिस्सा बन रहे हैं। 
 
समुद्री व्यापार और यातायात, समुद्री इंफ्रास्ट्रक्चर पर फुर्ती से साथ-साथ काम करने की कवायद के पीछे कहीं-न-कहीं चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना का साया तो है ही लेकिन साथ ही इस बात का अहसास भी है कि सहयोग की बुनियादी जरूरतों जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर, यातायात सुरक्षा की गारंटी और संसाधनों के जिम्मेदाराना ढंग से उपयोग को मिलकर और नियमबद्ध तरीके से अमल में नहीं लाया गया तो आगे आने वाला समय मुशकिल होगा। साफ है इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव का मूल उद्देश्य है सुरक्षित, सुदृढ़ और मजबूत नियमबद्ध और शांतिपरक क्षेत्रीय व्यवस्था को मजबूत करना।
 
नियमबद्ध क्षेत्रीय व्यवस्था है क्या?
 
तो आखिर यह नियमबद्ध क्षेत्रीय व्यवस्था है क्या? और इस पर भारत इतना जोर क्यों दे रहा है? दरअसल नियमबद्ध क्षेत्रीय व्यवस्था जिसे रणनीतिकार रूल्स-बेस्ड रीजनल ऑर्डर की संज्ञा भी देते हैं, वह व्यवस्था है जिसमें आधुनिक विश्व के तमाम सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किए जाने वाले नियमों को न सिर्फ मान्यता दी जाती है बल्कि यह माना जाता है कि सभ्य और आधुनिक राष्ट्रों के लिए यह नियम नैतिक तौर पर अनुल्लंघनीय हैं। इन नियमों में प्रमुख हैं- मानवाधिकारों का सम्मान, लोकतंत्र को बढ़ावा, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के पालन में ताकतवर और कमजोर देश के बीच फर्क न करना, विवादों का शांतिपूर्वक निपटारा और जरूरत आन ही पड़े तो मामले को सुलझाने में अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों की सहायता लेना।
 
समुद्री जहाजों के नेविगेशन की स्वतंत्रत्रा इससे जुड़े सबसे महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दों में आता है। महत्वपूर्ण इसलिए कि समुद्र और आकाश किसी एक देश की संपत्ति नहीं हैं, न हो सकते हैं। इन्हें 'वैश्विक कॉमन्स' की संज्ञा दी जाती है। इस श्रेणी में साइबर जगत, वातावरण, आउटर स्पेस और अंटार्कटिका जैसे मामले आते हैं। ये वे मामले हैं जिन पर एक देश की कब्जे की अनाधिकार चेष्टा को रोकना नियमबद्ध क्षेत्रीय और विश्व व्यवस्था का जिम्मा। संयुक्त राष्ट्र संघ और ऐसे ही तमाम अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों और कानूनों ने इस व्यवस्था को बचाए रखने की कोशिश की है। हालांकि इस मामले में सफलताओं का गिलास भी अकसर आधा भरा ही पाया जाता है।
 
बड़े देश छोटों को न परेशान करें और दुष्ट देशों की नियमबद्ध शांतिपूर्वक मरम्मत हो जाए, यह तो शायद दूसरी दुनिया का चलन हो, धरती पर तो ऐसा होना दिनोदिन मुश्किल हो रहा है। बहरहाल, इस रास्ते पर बढ़ने में कोशिश करने से ही रास्ता निकलेगा और ऐसा भी नहीं है कि नियमबद्ध क्षेत्रीय व्यवस्था की दिशा में हमें सफलताएं नहीं मिली हैं। हुआ बस यह कि दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी छोटी सहूलियतों के लिए बड़े उद्देश्यों को भूल गए हैं।
 
इंडो-पैसिफिक ओशन्स इनिशिएटिव और इस जैसे तमाम छोटे-बड़े बहुपक्षीय सहयोग के रास्तों के जरिए ही इंडो-पैसिफिक व्यवस्था का जापान, भारत और ऐसे तमाम देशों का सपना साकार होगा और इसके लिए सभी सामान विचारधारा वाले देशों को पुरजोर कोशिश भी करनी होगी।
 
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)
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