मनीष कुमार
बिहार, राजस्थान व अरुणाचल प्रदेश भारत में सबसे कम साक्षरता दर वाले तीन राज्य हैं। इनमें बिहार सबसे पीछे है। आखिर कई कोशिशों के बावजूद भी क्यों है बिहार का यह हाल?
केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने लोकसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में यह जानकारी दी है। बिहार की साक्षरता दर सबसे कम 61.8 प्रतिशत है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश (65.3) तथा राजस्थान (66.1) का नंबर आता है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सबसे ज्यादा फोकस शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर ही है। इसके बावजूद राज्य मेंं अभी 38.2 फीसद लोग निरक्षर हैं।
वित्तीय वर्ष 2023-24 के बजट में शिक्षा पर सर्वाधिक 40,450 करोड़ की भारी-भरकम राशि का प्रावधान किया गया है। 2022-23 में यह राशि 39191 करोड़ थी। बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा राज्य है, जिसने शिक्षा के मद में बजट का सबसे अधिक हिस्सा आवंटित किया है। लेकिन साक्षरता में इन दोनों राज्यों का प्रदर्शन अच्छा नहीं है।
साक्षरता दर से यह पता चलता है कि प्रत्येक सौ लोगों में से कितने लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं। विद्यालयों में बुनियादी जरूरतों का अभाव, प्रशिक्षित व योग्य शिक्षकों की कमी, बीच में स्कूल छोड़ देना, आर्थिक असमानता, लैैंगिक भेदभाव व शिक्षा के प्रति जागरूक नहीं होना इसके कम होने के प्रमुख कारण हैैं।
कई समस्याओं से जूझता बिहार
हालांकि, साक्षर होने के लिए किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा जरूरी नहीं मानी जाती है। राज्य में साक्षरता के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। गांवों की महिलाएं एवं बुजुर्ग साक्षर हुए हैं तथा अंगूठा लगाने की बजाय हस्ताक्षर करना सीख गए हैं।
स्वयंसेवी संस्था प्रथम' द्वारा बीते जनवरी माह में जारी एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) में कहा गया है कि राज्य सरकार के प्राइमरी व अपर प्राइमरी स्कूलों में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति राष्ट्रीय औसत 72 प्रतिशत की तुलना में 60 प्रतिशत ही दर्ज की गई है। शिक्षा का स्तर भी काफी नीचे है।
रिपोर्ट के अनुसार पांचवीं कक्षा के 57 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो का पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं। वहीं, कक्षा तीन के संदर्भ में यह आंकड़ा 80 प्रतिशत पहुंच जाता है। इन स्कूलों के प्राइमरी कक्षा के 30.2 तथा अपर प्राइमरी कक्षा के 35 प्रतिशत बच्चों के पास कोर्स की किताबें नहीं हैैं। ये किताबें बच्चों को राज्य सरकार द्वारा दी जाती है।
अभी भी करीब पांच हजार सरकारी स्कूलों के पास अपना भवन नहीं है। हालांकि, रिपोर्ट के अनुसार बिहार उन कुछ राज्यों में है, जहां कोविड काल में स्कूलों के बंद रहने के बाद भी सीखने के मापदंड पर सुधार परिलक्षित हुआ है, साथ ही सरकारी स्कूलों में खासकर बड़ी लड़कियों के ड्रॉपआउट मामलों में कमी भी आई है।
नीति आयोग के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए टीचर्स ट्रेनिंग, ई-कंटेंट लर्निंग, रिसर्च व इनोवेशन पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। यह सच है कि राज्य में शिक्षा की स्थिति में एक हद तक सुधार भी हुआ है, फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
ड्रॉपआउट है बड़ी समस्या
स्कूल से बाहर रहे बच्चों की संख्या में भी बिहार दूसरे नंबर पर है। जबकि, शून्य से 18 साल के बच्चों की सबसे ज्यादा संख्या भी बिहार में ही है। राज्य की स्कूली शिक्षा को बेहतर करने की कोशिशों के बीच ड्रॉपआउट एक बड़ी समस्या बनी हुई है। प्राइमरी व मिडिल स्कूल में नामांकित बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ जाते हैं।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मिडिल स्कूल तक जाते-जाते करीब 38।8 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं। जानकार बताते हैैं कि छात्राओं के ड्रॉपआउट का कारण गरीबी, स्कूलों से बच्चियों के घरों की दूरी, पितृसत्तात्मक मानसिकता, महिला शिक्षकों की कमी व उनके लिए अलग से शौचालय का नहीं होना है।
एएसईआर की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 36.7 प्रतिशत स्कूलों में छात्राओं के लिए टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है। बच्चियों के स्कूल छोडऩे का यह एक बड़ा कारण है। अलग-अलग वर्ग की बालिकाओं की समस्याएं भी अलग-अलग हैैं। यह सच है कि बच्चों को स्कूल तक लाने में मिड-डे मील की बड़ी भूमिका है।
राजधानी पटना के खगौल इलाके के एक स्कूल के प्रधानाध्यापक बताते हैैं, सुबह में बच्चों की उपस्थिति अच्छी खासी रहती है। जितने नामांकित हैैं, उससे थोड़ा बहुत ही कम। किंतु, जैसे ही भोजन खत्म होता है, बच्चे किसी न किसी बहाने भाग जाते हैैं। उन्हें रोकने की कोशिश नाकाम रहती है। फिर हमारे पास उतने शिक्षक भी नहीं है कि हर वर्ग के छात्रों की निगरानी की जा सके।''
वाकई, यह सच है कि सरकार द्वारा जिस समय स्कूली बच्चों के लिए साइकिल-पोशाक जैसी योजना लागू की गई थी, उस समय का उत्साह अब शायद संतुष्टि के स्तर तक पहुंच गया है। अन्य प्रयासों के साथ-साथ इस दिशा में कुछ और नया करने की जरूरत है।
बेरोजगारी भी कर रही भ्रमित
शिक्षाविद डॉ. एस.के. सिंह का मानना है, बेरोजगारी भी लोगों को भ्रमित कर रही है। जब पढ़ने-लिखने के बाद भी गांव-घर के बच्चों को नौकरी नहीं मिलती है तो इसका गलत संदेश जाता है। अभिभावकों को लगता है कि ऐसे में उनका बच्चा कहीं का नहीं रहेगा। नौकरी उसे मिलेगी नहीं और खेती-मजदूरी करने लायक वह रह नहीं जाएगा। ऐसे में उनका जोर पढ़ाई-लिखाई के विलग आजीविका के उपायों पर ज्यादा रहता है।''
रोजगारपरक स्किल बेस्ड शिक्षा को बढ़ावा देने की योजना बनानी होगी। ताकि, उन बच्चों के माता-पिता को सफल बच्चों की स्थिति देख पढ़ाई का महत्व समझ सकें। सुकून की बात है कि सरकार इस दिशा में गंभीर है।
शायद यही वजह है कि जीविका दीदी की सफलता से उत्साहित सरकार अब पढ़ाई में सहयोग देने तथा बीच में पढ़ाई छोडऩे वाले बच्चों को स्कूल वापस लाने के लिए विद्या दीदी की नियुक्ति करने जा रही है। गुरुवार को इस आशय की घोषणा ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार ने बिहार विधानसभा में की।
जीविका दीदियों ने जिस तरह से राज्य के आर्थिक व सामाजिक परिदृश्य को बदलने में अपनी भूमिका निभाई है, इससे इतना तो तय है कि विद्या दीदियां भी शिक्षा का अलख जगाने में पीछे नहीं रहेगी। सरकार का यह प्रयास मील का पत्थर साबित होगा।
संसाधनों का अभाव बरकरार
बिहार के लगभग हर गांव में गुलाबी रंग के स्कूल भवन दिख जाते हैैं। बिल्डिंग तो बन गए, परंतु इनमें बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। अवकाश प्राप्त शिक्षक कृष्णकांत सिंह कहते हैैं, स्कूलों की स्थिति देखकर ऐसा लगता है कि सरकार की दिलचस्पी केवल इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में हैैं, न कि शिक्षा का स्तर सुधारने में। धरातल पर यही वास्तविकता है।''
हेल्पिंग ह्यूमन नामक संस्था की एक लोकहित याचिका की सुनवाई के दौरान गुरुवार को पटना हाईकोर्ट को बताया गया कि पटना समेत राज्य के विभिन्न जिलों के स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं तथा सुरक्षा की घोर कमी है। कई स्कूल ऐसे हैं, जिनकी स्थिति जर्जर है।
स्कूलों में बच्चों के लिए शुद्ध पेयजल, कैंटीन व शौचालय की व्यवस्था नहीं है। बहुत स्कूलों में बिजली नहीं है, अग्निशमन व सुरक्षा के उपाय नहीं है। राज्य सरकार द्वारा दिए गए हलफनामे से संतुष्ट होकर अदालत ने हालांकि, इस याचिका को निष्पादित कर दिया, किंतु साथ ही स्कूलों की स्थिति सुधारने के लिए लगातार कार्रवाई होते रहने की उम्मीद भी जताई।
कृष्णकांत सिंह कहते हैं, यह कटु सत्य है कि शिक्षा विभाग को भ्रष्टाचार घुन की तरह खाए जा रहा है। हर स्तर पर इस पर लगाम लगाना ही होगा।माइंडसेट बदल कर सम्यक रूप में जब तक प्रयास नहीं होगा, तब तक अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। जाहिर तौर पर यह जिम्मेदारी तो शिक्षकों की है, सरकार की कतई नहीं।''
सरकार को भी शिक्षकों की नियुक्ति के तरीके व वेतन सहित अन्य समस्याओं पर सहानुभूति पूर्वक विचार करना होगा। बेगूसराय के मोहनपुर गांव का सरकारी स्कूल शिक्षकों के परिश्रम तथा ग्रामीणों की सहायता से प्राइवेट स्कूल से कहीं कमतर नहीं है। राज्य में ऐसे कई स्कूल हैं। साफ है, दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो सुधार तय है।
योग्य शिक्षकों की कमी, फर्जी भी पढ़ा रहे
कांट्रैक्ट पर लाखों की संख्या में शिक्षकों को नियोजित भी किया गया है, इसके बावजूद गुणवत्ता का मुद्दा कटघरे में है। योग्य शिक्षकों की कमी है। जो हैैं भी वे किसी न किसी बहाने या सेटिंग जैसे उपाय अपनाकर गायब होने की फिराक में ही रहते हैं। हालांकि, सरकार शिक्षकों की पूर्णकालिक उपस्थिति तय करने के हरसंभव उपाय कर रही है। इसका फायदा भी हुआ है।
फिर भी भ्रष्टाचार के गलियारे इनके बचाव का रास्ता तैयार कर ही देते हैं। नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर भागलपुर के एक मिडिल स्कूल के शिक्षक कहते हैैं, वही शिक्षक पढ़ा रहा है या फिर सरकार द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले काम कर रहा है, जो पैसा नहीं खर्च कर रहा। जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) के दफ्तर में पैसा फेंकिए, सारी सुविधाएं मिलेंगी। शहर या इससे सटे इलाकों में तो मॉनिटरिंग की व्यवस्था कारगर है, किंतु दूरदराज के इलाकों का तो पूछिए ही मत।''
नियोजन की प्रक्रिया में कई खामियों के कारण बड़ी संख्या में जाली डिग्री या सर्टिफिकेट वाले शिक्षक भी नियुक्त हो गए हैैं। जांच के बाद कई बर्खास्त भी किए गए है तो कई अभी कार्रवाई की प्रक्रिया के अधीन हैैं।
उल्लेखनीय है कि पटना हाईकोर्ट ने 2014 में अपने एक आदेश के जरिए फर्जी डिग्री या सर्टिफिकेट के आधार पर शिक्षक की नौकरी प्राप्त करने वालों को एक अवसर दिया था कि वे स्वयं इस्तीफा दे देते हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाएगी।
एक मामले की सुनवाई के दौरान गुरुवार को भी हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश जारी किया है कि ऐसे सभी संदिग्धों को एक समय सीमा निर्धारित कर अपनी डिग्री या कागजात प्रस्तुत करने का मौका दिया जाए और जो तय अवधि में अपने कागजात प्रस्तुत नहीं करते हैं, वैसे शिक्षकों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।
वाकई, यह सच है कि ईमानदारी के साथ सम्यक प्रयास के बगैर अपेक्षित परिणाम पाना संभव नहीं है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की तो कल्पना ही बेमानी है।