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Written By DW
Last Modified: मंगलवार, 5 नवंबर 2024 (08:11 IST)

मैक्लुस्कीगंज के सुनहरे अतीत की गवाह हैं किट्टी मैम

mccluskiegang (prabhakarmani tiwari/DW)
प्रभाकर मणि तिवारी
किट्टी मेमसाब झारखंड की राजधानी रांची जिले के मैक्लुस्कीगंज कस्बे के गौरवशाली इतिहास की गवाह रही हैं। उनको यहां का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। वो यहां रहने वाले चंद एंग्लो-इंडियन परिवारों में शामिल हैं। फिलहाल इस कस्बे के बाहरी छोर पर एक छोटे से मकान में अपने एक बेटे के साथ रहती हैं। किट्टी के नाना एडवर्ड डैनियल रॉबर्ट अंग्रेजी हुकूमत में असम के गवर्नर के सेक्रेटरी थे। नाना और मां की मृत्यु के बाद किटी ने स्थानीय रमेश मुंडा से शादी कर ली।
 
72 साल की किट्टी मेमसाब की आंखें इस कस्बे के गौरवशाली अतीत का जिक्र करते हुए चमकने लगती हैं। मैक्लुस्कीगंज में फिल्म की शूटिंग करने आए कई निर्देशकों ने किट्टी को किसी न किसी किरदार के रूप में शूट किया है। दो दशक पहले तक वह स्थानीय रेलवे स्टेशन पर फल बेचती थी। वह फर्राटेदार अंग्रेजी, हिन्दी और स्थानीय भाषा बोल सकती है। स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्होंने वह काम छोड़ दिया। अब वे पूरा दिन अपनी बकरियों के साथ व्यस्त रहती हैं।
 
वह कहती हैं, "हमारा जन्म-करम यहीं है। पहले यहां से बस नहीं थी। एक बस सुबह थी। रांची जाने के लिए गाड़ी नहीं थी। यहां अस्पताल और स्कूल की दिक्कत थी। इसलिए युवा पहले पढ़ने के लिए बाहर जाते थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लोग नौकरी के लिए बाहर चले गए। अब महज नौ परिवार बचे हैं। बहुत पहले इसे मिनी लंदन कहा जाता था। टूरिस्ट अब भी आते ही हैं थोड़े-बहुत। लेकिन बाहरी टूरिस्ट नहीं आते हैं। फॉरेन कंट्री वाले।"
 
कैसे हुई शुरुआत
वर्ष 1932 में ई.टी. मैक्लुस्की ने यहां जमीन ली थी। उन्होंने देश भर के एंग्लो इंडियन समुदाय को यहां बसाने की योजना बनाई थी। यहां एंग्लो-इंडियन शहर बसाने के लिए अर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की ने रातू महाराज से करीब 10 हजार एकड़ जमीन लीज पर ली थी। वर्ष 1933 में मैक्लुस्की ने कोलोनाइजेशन सोसायटी ऑफ इंडिया लिमिटेड का गठन कर महाराजा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी असामयिक मौत हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यहां के लोग रोजगार के अवसरों की तलाश में बाहर निकलने लगे। एक दौर में यहां करीब 400 परिवार रहते थे। लेकिन अब उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक ही बची है।
 
समय के थपेड़ों और बदलती पीढ़ियों ने मैक्लुस्कीगंज की सूरत बदल दी है। रोजी-रोटी की तलाश में नई पीढ़ियां बाहर निकलती चली गईं। बुजुर्ग खत्म होते गए। मकान उपेक्षित होते गए और उनका मालिकाना हक बदलता गया। मगर अब भी पर्यटक और विदेशी पर्यटक यहां दिख जाते हैं। कोई घूमने आता है तो कोई अपने पूर्वजों की बस्ती देखने आता है।
 
किसी दौर में पर्यटकों के कारण गुलजार रहने वाला मैक्लुस्कीगंज स्टेशन अब वीरानी का शिकार है। पहले कई एक्सप्रेस ट्रेनें यहां से गुजरती थी। लेकिन कोरोना के दौर में कुछ ट्रेनें बंद हो गईं तो कुछ ट्रेनों का ठहराव बंद हो गया। अब कुछ लोकल ट्रेनें ही यहां ठहरती हैं।
 
कहानियों और फिल्मों की दुनिया आकर्षित
मैक्लुस्कीगंज कस्बा बांग्ला साहित्यकारों और फिल्मकारों की भी पसंद रहा है। 'ए डेथ इन द गंज', 'अनटोल्ड स्टोरी'(धोनी पर आधारित) और 'डे वन' समेत कई फिल्मों की शूटिंग यहीं हुई है। बांग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा और अभिनेत्री अपर्णा सेन ने भी मैक्लुस्कीगंज में एक बंगला खरीदा था। बुद्धदेव गुहा के मैक्लुस्कीगंज पर लिखे बांग्ला उपन्यास ने इस कस्बे को कोलकाता और बंगाल के पर्यटकों में लोकप्रिय बनाया। अभिनेत्री अपर्णा सेन ने अपनी फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैक्लुस्कीगंज से प्रेरित होकर ही लिखी थी।
 
वर्ष 1997 में इस उनींदे कस्बे में डॉन बॉस्को अकादमी की स्थापना ने स्थानीय लोगों की आंखों में एक नया सपना जगाया था। इस स्कूल में देश भर से बच्चे पढ़ने आते हैं। स्कूल का अपना कोई हास्टल नहीं होने के कारण हॉस्टल का कारोबार तेजी से पनपा। यही स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया बन गया। स्थानीय लोगों का कहना है कि फिलहाल यहां 75 से ज्यादा ऐसे हास्टल चल रहे हैं और उनसे करीब करीब पांच सौ परिवार जुड़े हैं।
 
डान बास्को स्कूल के प्रिंसिपल जोशी टीडी बताते हैं, "बीते 27 साल में यहां काफी बदलाव आया है। यह शिक्षा के जरिए ही हुआ है। इस स्कूल की स्थापना के कारण स्थानीय लोगों के लिए हॉस्टल, खाने-पीने के सामानों की दुकान और दूध की बिक्री तौर पर रोजी-रोटी का साधन मिला है।"
 
एंग्लो-इंडियन परिवार के एशले गोम्स के पूर्वज अठारहवीं सदी में इंग्लैंड से यहां आए थे। गोम्स का जन्म मैक्लुस्कीगंज में ही हुआ था। वह भी एक हॉस्टल चलाते हैं।
 
गोम्स कहते हैं, "मुझे अपने बचपन की याद है। उस समय मैक्लुस्कीगंज काफी खूबसूरत जगह हुआ करती थी। लेकिन अब कई ईंट-भट्ठें खुलने के कारण पेड़ कटे हैं। अभी जो मैक्लुस्कीगंज है वह डॉन बॉस्को अकादमी के कारण है। अगर किसी वजह से वह स्कूल बंद हो गया तो मैक्लुस्कीगंज 30-40 साल पीछे चला जाएगा। मैक्लुस्कीगंज को अब भी मिनी इंग्लैंड ही माना जाता है। यहां रहने वालों को अब भी इस बात का गर्व है। अब बहुत-से लोग यहां वापस आना चाहते हैं।"
 
पर्यटकों के लिए खास ठिकाना
इस कस्बे में आने वाले पर्यटकों के लिए प्रकृति की गोद में एक गेस्ट हाउस चलाने वाले दीपक राणा ने बीते पांच दशकों के दौरान इस कस्बे को बदलते हुए देखा है।
 
दीपक कहते हैं, "जब विकास की बात होगी तो बदलाव आना तो स्वाभाविक है। जंगल कटेंगे, घर-बार बनेंगे। नई सड़कें बन रही हैं। सामाजिक बदलाव भी आया है। अब इसका पुराना गौरव तो लौटाना मुश्किल है। अतीत तो अतीत है। अब भविष्य की ओर ध्यान देना होगा। अतीत तो बीत गया। वर्तमान को सुधारने के लिए सरकार अगर आधारभूत ढांचे पर कुछ ध्यान दे तो कुछ हो सकता है। लेकिन फिलहाल कोई विकास नहीं हो रहा है।"
 
मैक्लुस्कीगंज के वरिष्ठ पत्रकार गोपीचंद चौरसिया कहते हैं कि अब इस कस्बे के गौरवशाली अतीत को लौटाना तो मुश्किल है।
 
वह कहते हैं, "मैक्लुस्कीगंज को मिनी लंदन भी कहा जाता था। उस समय यहां 380 बंगले थे। धीरे-धीरे रोजगार के अभाव में लोग यहां से पलायन कर गए। अब मात्र गिनती के पांच-छह परिवारों के 42-44 लोग यहां बचे हुए हैं। मैक्लुस्कीगंज की गरिमा धीरे-धीरे लौट रही है। लेकिन अब उस स्तर पर पहुंचना तो मुश्किल है।"
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