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Written By DW
Last Updated : सोमवार, 2 अगस्त 2021 (09:24 IST)

भारत में हर्ड इम्युनिटी के दावे कितने विश्वसनीय हैं?

भारत में हर्ड इम्युनिटी के दावे कितने विश्वसनीय हैं? - How reliable are the herd immunity claims in India
रिपोर्ट : मुरली कृष्णन

विशेषज्ञों का कहना है कि भले ही अधिकांश भारतीयों में कोरोनवायरस के खिलाफ एंटीबॉडी बन गए हों, लेकिन टीकाकरण और कोविड से सावधानियां ही महामारी से बाहर निकलने का रास्ता हैं। देश के शीर्ष चिकित्सा निकाय, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR)की ओर से किए गए एक सीरोलॉजिकल सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 130 करोड़ से ज्यादा की आबादी में से दो-तिहाई में कोरोनवायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज बन चुके हैं।
 
यह सर्वेक्षण जून और जुलाई महीने में देशभर में किया गया था और इसमें 29 हजार लोगों के नमून शामिल किए गए थे। सर्वेक्षण में पहली बार छह से 17 साल की उम्र के 8,691 बच्चे भी शामिल हुए थे जिनमें से आधे सीरोपोजिटिव थे। यानी ये वो लोग थे जो किसी न किसी तरीके से वायरस के संपर्क में थे। अध्ययन में भाग लेने वाले वयस्कों में, 67.6 फीसदी सीरोपोजिटिव थे, जबकि 62 फीसदी से अधिक वयस्कों का टीकाकरण नहीं हुआ था। जुलाई के अंत तक करीब सात फीसदी वयस्क भारतीयों को दो टीके लगे थे।
 
40 करोड़ खतरे में
 
अध्ययन में 7,252 स्वास्थ्य कर्मियों का भी सर्वेक्षण किया गया और पाया गया कि 85 फीसदी में एंटीबॉडी थे। स्वास्थ्यकर्मियों में 10 में से एक को टीका नहीं लगा था। फिर भी, सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में करीब चालीस करोड़ लोगों में एंटीबॉडीज की कमी थी।
 
सीरोलॉजिकल सर्वेक्षण एंटीबॉडी की उपस्थिति के माध्यम से कोरोनोवायरस के संपर्क में आने वाली आबादी के अनुपात पर डेटा प्रदान करते हैं जिसमें संपर्क में आए वे व्यक्ति भी शामिल हैं जिनमें आमतौर पर संक्रमण की शुरुआत के लगभग दो सप्ताह बाद लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
 
आरटी-पीसीआर और रैपिड एंटीजन परीक्षण वास्तविक वायरस की उपस्थिति की तलाश करते हैं, जबकि एंटीबॉडी परीक्षण रक्त में एंटीबॉडी की जांच करते हैं। सीरोप्रीवेलेंस व्यक्तियों के बीच ऐसे एंटीबॉडी की उपस्थिति की आवृत्ति को इंगित करता है।
 
मशहूर वायरोलॉजिस्ट जैकब जॉन डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं कि मई और जून 2020 में पहले सीरो-सर्वेक्षण में 140 वयस्कों में से एक में वायरस के प्रति एंटीबॉडी थे जबकि अब तीन में से दो भारतीयों में या तो संक्रमण की वजह से या फिर टीकाकरण के कारण एंटीबॉडीज हैं।
 
सीमित विश्वसनीयता
 
हालांकि, महामारी विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इस तरह के सीरोलॉजिकल अध्ययन हमेशा विश्वसनीय नहीं होते हैं। अशोका विश्वविद्यालय में भौतिकी और जीवविज्ञान के प्रोफेसर गौतम मेनन डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं कि आईसीएमआर सीरो सर्वेक्षण भारत के 21 राज्यों में 700 विषम जिलों में से केवल 70 की जांच करता है। चूंकि इसमें भारत के 10% से कम जिलों का नमूना लिया गया है, इसलिए संभव है कि हम जिलों के बीच बड़े अंतर को याद कर सकें।
 
मेनन कहते हैं कि हमें देश के विभिन्न क्षेत्रों में सुनियोजित सीरो सर्वेक्षणों से अधिक जानकारी की आवश्यकता है, ताकि हमारे पास इस बारे में अधिक विस्तृत दृष्टिकोण हो कि महामारी कैसे आगे बढ़ रही है। कोविड-19 संक्रमण का असमान प्रसार की वजह से किसी खास इलाके में यह निर्धारित करना बड़ा जटिल कर देता है कि वहां कितने लोग संक्रमित हुए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि समय, एंटीबॉडी परीक्षण का चुनाव और नमूना लेने की पद्धति का परिणामों पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।
 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी में वैज्ञानिक विनीता बल उन लोगों में से हैं जो ये मानते हैं कि ऐसे सर्वेक्षणों से फायदा जरूर होता है लेकिन इनकी भी कुछ सीमाएं हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में विनीता बल कहती हैं कि यह कहना मुश्किल है कि सर्वेक्षण देश के विभिन्न हिस्सों का कितना प्रतिनिधित्व करता है। क्योंकि संक्रमण और घटनाओं की दर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, यह स्पष्ट नहीं है कि जिन राज्यों में सीरोपॉजिटिविटी दर ज्यादा थी, उन राज्यों में संक्रमण की दर भी ज्यादा थी या नहीं।
 
वैज्ञानिकों का यह भी तर्क है कि भविष्य में कोविड-19 के प्रभाव के प्रबंधन की रणनीति बनाने के लिए जिला स्तर से अधिक डेटा के साथ-साथ पुन: संक्रमण और वायरल प्रतिरक्षा चोरी की समस्या के बारे में जानने की जरूरत है।
 
कोविड-19 का खतरा बरकरार
 
विशेषज्ञों का कहना है कि एंटीबॉडी के प्रसार का मतलब यह नहीं है कि जनसंख्या नए संक्रमणों के प्रति कम संवेदनशील है। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि यूनाइटेड किंगडम और इस्राएल जैसे देशों में उच्च सीरोप्रीवेलेंस के बावजूद, हाल ही में संक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। मिशिगन विश्वविद्यालय में ग्लोबल हेल्थ के प्रोफेसर ब्राह्मर मुखर्जी कहती हैं कि देखिए, ब्राजील के 20 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर मनौस में क्या हुआ। इसने पिछले साल अक्टूबर तक 76 फीसदी हर्ड इम्यूनिटी विकसित कर ली थी, लेकिन बाद में इस शहर को दूसरी लहर ने अपनी चपेट में ले लिया था। कुछ ऐसा ही ट्रेंड दिल्ली और मुंबई के झुग्गी वाले इलाकों में भी देखा गया था।
 
 
मुखर्जी कहती हैं कि सीरोलॉजिकल अध्ययनों से भी बहुत संतुष्ट नहीं होना चाहिए क्योंकि वायरस बदल रहा है और विशेष रूप से डेल्टा वेरिएंट के साथ दोबारा संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं। वह कहती हैं कि हम केवल टीकाकरण के जरिए सुरक्षित हो सकते हैं और यही आगे का रास्ता है। साथ ही, कोविड प्रोटोकॉल का पालन करना। देशभर के सीरोप्रेवेलेंस डेटा ने भारत में कोविड संकट की समझ को गहरा कर दिया है। लेकिन यह देखते हुए कि आबादी के एक बड़े हिस्से का टीकाकरण नहीं किया गया है, यह अभी भी नए रूपों के उभरने की स्थिति पैदा कर सकता है।
 
स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, मौजूदा समय में भारत में संक्रमण के कुल मामले तीन करोड़ 14 लाख हैं और यह संक्रमण के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है। भारत में कोविड संक्रमण से अब तक चार लाख बीस हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।
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