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Written By DW
Last Updated : शनिवार, 5 अगस्त 2023 (09:50 IST)

'सुपरस्टार' जर्मनी क्या बन गया यूरोप का बीमार आदमी?

'सुपरस्टार' जर्मनी क्या बन गया यूरोप का बीमार आदमी? - Has 'superstar' Germany become the sick man of Europe?
-हेनरिक बोएमे
 
Germany: जर्मनी की अर्थव्यवस्था मंदी की राह पर है। इसमें कोई सुधार नजर नहीं आ रहा है। हाल के वर्षों में कई संकटों ने देश के बिजनेस मॉडल की कमजोरियों को उजागर किया है। आखिर इस समस्या से निपटने का तरीका क्या है? 21वीं सदी की शुरुआत से ठीक पहले ब्रिटिश बिजनेस पत्रिका द इकॉनॉमिस्ट ने जर्मन अर्थव्यवस्था को लेकर कहा था कि यह देश यूरोप का बीमार आदमी है।
 
इस तरह के आकलन ने जर्मन राजनीति के लिए चेतावनी के तौर पर काम किया। तब तक यह देश समझ रहा था कि अपने एकीकरण के बाद भी वह आर्थिक रूप से काफी मजबूत है और देश में सुधार को लेकर किसी तरह का ठोस कदम नहीं उठा रहा था।
 
इस चेतावनी के बाद चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर की सरकार ने तब श्रम बाजार में सुधार किया और आखिरकार इसका फल भी मिला। 2014 में बर्लिन और लंदन के अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने लिखा कि जर्मनी यूरोप के बीमार आदमी से एक आर्थिक सुपरस्टार में बदल गया है।
 
अब एक बार फिर से जर्मन अर्थव्यवस्था जूझ रही है। लगातार दो तिमाही से आर्थिक उत्पादन में गिरावट आयी है, जिसे कुछ अर्थशास्त्री 'तकनीकी मंदी' कहते हैं। सबसे हालिया तिमाही में, जर्मनी का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पिछली तिमाही के स्तर पर स्थिर हो गया है और सभी महत्वपूर्ण आर्थिक संकेतकों में गिरावट देखी जा रही है। यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में लाइबनिज इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च, आईएफओ इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष क्लेमेंस फ्यूस्ट ने कहा, जर्मनी की आर्थिक स्थिति अंधकारमय हो रही है।
 
आईएफओ इंस्टीट्यूट हर महीने 9,000 अधिकारियों से उनके कारोबार की मौजूदा स्थिति और अगले छह महीनों के लिए उनकी अपेक्षा के बारे में सर्वेक्षण करता है। आईएफओ बिजनेस क्लाइमेट इंडेक्स (जुलाई 2023) लगातार तीसरे महीने गिर गया है। आईएफओ शोधकर्ताओं ने संभावना जताई है कि चालू तिमाही के दौरान जर्मनी की जीडीपी में फिर से गिरावट आएगी।
 
कॉमर्स बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री यॉर्ग ख्राइमर भी इस स्थिति को स्पष्ट तौर पर देखते हैं। उन्होंने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि अफसोस की बात यह है कि कोई सुधार नजर नहीं आ रहा है। दुनिया भर में ब्याज दरों में बढ़ोतरी का असर हो रहा है। जर्मन कारोबार पहले से ही अस्थिर हैं।
 
हालत काफी खराब
 
अन्य औद्योगिक देशों की तुलना में जर्मनी असाधारण रूप से खराब प्रदर्शन कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के एक अनुमान के मुताबिक, यह एकमात्र बड़ा देश होगा जिसका आर्थिक उत्पादन घट रहा है। देश का औद्योगिक क्षेत्र इसकी अर्थव्यवस्था का प्रमुख चेहरा है और यह चिंता का सबसे बड़ा कारण बन रहा है।
 
जर्मनी के ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 24 फीसदी है और यह वैश्विक मंदी से पीड़ित है। इंजीनियरिंग और ऑटोमोटिव क्षेत्र विदेशी ग्राहकों के पीछे हटने के असर को महसूस कर रहा है। यह क्षेत्र निर्यात पर काफी ज्यादा निर्भर है।
 
विनिर्माण उद्योग से जुड़ी कंपनियों की हालत फिलहाल कुछ हद तक ठीक है, क्योंकि कोरोना महामारी के दौरान आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित होने की वजह से इनके पास ऑर्डर के बड़े बैकलॉग हैं, लेकिन जल्द ही ये ऑर्डर पूरे हो जाएंगे और नए ऑर्डर बहुत कम मिल रहे हैं। मार्च से मई तक मिले ऑर्डर की संख्या पिछले तीन महीनों की तुलना में 6 फीसदी कम थी।
 
गिरावट की वजह
 
जर्मनी में आर्थिक गिरावट के कई कारण हैं। उनमें से एक है केंद्रीय बैंकों की मौद्रिक नीति। फेडरल रिजर्व, यूरोपीय सेंट्रल बैंक और अन्य महत्वपूर्ण बैंक ब्याज दर में बढ़ोतरी करके महंगाई पर लगाम लगाना चाहते हैं। इससे कंपनियों और उपभोक्ताओं के लिए कर्ज लेना महंगा हो गया है।
 
इसका असर जर्मनी के एक अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्र निर्माण पर पड़ा है। साथ ही, कंपनियों की निवेश करने की इच्छा भी कम हो गई है। ब्याज दरों में बढ़ोतरी से आर्थिक वृद्धि की रफ्तार सुस्त हो जाती है। हालांकि, फ्रांस और स्पेन जैसे यूरोजोन के अन्य देशों ने इसका बेहतर ढंग से सामना किया है। 
 
कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी (आईएफडब्ल्यू) के नए अध्यक्ष मोरित्ज शुलारिक ने कहा कि हमारे सभी यूरोपीय पड़ोसियों की आर्थिक रफ्तार अधिक है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि संरचनात्मक समस्याएं जर्मनी को पीछे धकेल रही हैं। देश का आर्थिक मॉडल सस्ती ऊर्जा, सस्ते कच्चे माल और अर्ध-निर्मित माल के आयात, उन्हें संसाधित करने और उन्हें महंगे माल के रूप में निर्यात करने पर आधारित हुआ करता था।
 
हालांकि अब यह मॉडल काम नहीं कर रहा है। हाल के वर्षों में कई संकटों ने जर्मनी की कमजोरियों को उजागर कर दिया है। ज्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले उद्योग महंगी ऊर्जा से परेशान हैं। जिन कंपनियों ने अपने कारखानों को दूसरी जगहों पर स्थानांतरित कर दिया है वे वापस नहीं आ रहे हैं। 
 
कैसे बदलेंगे हालात?
 
हालांकि, जर्मनी की समस्याएं यहीं खत्म नहीं होती। जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक डीजेड के एक मौजूदा अध्ययन में कहा गया है कि छोटे और मध्यम आकार के उद्यम भी खतरे में हैं। जबकि, इन उद्यमों को ही आम तौर पर 'जर्मन अर्थव्यवस्था की रीढ़' के रूप में माना जाता है।
 
लेखकों ने कहा कि ये उद्यम ऊर्जा की कीमतों के अलावा, कुशल कामगारों की कमी से भी जूझ रहे हैं। साथ ही, डिजिटलाइजेशन को लागू करने में हो रही समस्या, काफी ज्यादा नौकरशाही, ज्यादा टैक्स और खराब बुनियादी ढांचे भी इस समस्या को गंभीर बना रहे हैं। इसके अलावा, जर्मनी की आबादी में उम्रदराज लोगों की संख्या ज्यादा है। 
 
एसोसिएशन ऑफ जर्मन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष पीटर आद्रियान ने हाल ही में जर्मन समाचार एजेंसी डीपीए को बताया कि हमारी अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से को इस बात पर भरोसा नहीं है कि ज्यादा लागत और कुछ हिस्सों में विरोधाभाषी नियमों के कारण जर्मनी में कारोबार में निवेश करने से लाभ मिलेगा। कील इंस्टीट्यूट (आईएफडब्ल्यू) के अध्यक्ष मोरित्ज शुलारिक ने अपने संस्थान की वेबसाइट पर एक लेख में इस दुविधा से बाहर निकलने का संभावित तरीका बताया है।
 
उन्होंने कहा कि अगर जर्मनी एक बार फिर 'यूरोप का बीमार आदमी' नहीं बनना चाहता है, तो उसे अपना रुख बदलना होगा। ज्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को संरक्षित करने के लिए अरबों डॉलर खर्च करने की जगह, भविष्य में विकसित होने वाले क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंद्रित करना होगा।
 
शुलारिक ने आगे कहा कि जर्मनी को पिछले दशक की कमियों को दूर करने और छूटे हुए अवसरों को वापस पाने के लिए तुरंत ठोस कदम उठाना चाहिए। डिजिटलाइजेशन से जुड़ी समस्याओं को दूर करना, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना, आवास की कमी को दूर करना, कार्यबल में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आप्रवासन को तेज करना जैसे सुधारों की जरूरत है।(Photo Courtesy: Deutsche Vale)
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