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Written By DW
Last Modified: मंगलवार, 25 मार्च 2025 (07:48 IST)

सरकारी फसल बीमा में जरूरतमंद किसानों को होता है नुकसान

जलवायु परिवर्तन के लिहाज से संवेदनशील जिलों में किसानों को फसल बीमा के लिए ज्यादा प्रीमियम देना पड़ता है और उन्हें मिलने वाली बीमा राशि भी कम होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे बीमा योजना का उद्देश्य पूरा नहीं होता।

सरकारी फसल बीमा में जरूरतमंद किसानों को होता है नुकसान - farm insurance scheme costly for farmers in vulnerable districts
दिलीप पाटीदार मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में रहते हैं। वे वहां पांच एकड़ जमीन पर खेती करते हैं।  पिछले कुछ सालों में कम बारिश होने की वजह से उनकी सोयाबीन की फसल काफी प्रभावित हुई है। इसके चलते, पिछले साल उन्होंने उड़द की फसल उगाई क्योंकि इसमें कम पानी की जरूरत होती है।
 
इसके अलावा, उन्होंने सरकारी फसल बीमा भी करवाया ताकि फसल खराब होने की स्थिति में उन्हें बीमा की राशि मिल जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लगभग आधी फसल खराब होने के बाद भी उन्हें बीमा की राशि नहीं मिली। 49 वर्षीय पाटीदार ने रॉयटर्स से कहा, "मुझे आखिरी बार बीमा की राशि 2019 में मिली थी। लेकिन, उसके बाद भी लगभग हर साल कम बारिश होने की वजह से मेरी फसल खराब हो रही है।"
 
सभी जिलों के किसानों को नहीं मिलता बराबर फायदा
भारत सरकार दुनिया की सबसे बड़ी फसल बीमा योजना चलाती है। इस बीमा के प्रीमियम में सरकार सब्सिडी के रूप में अपना योगदान देती है, जिससे किसानों पर कम बोझ पड़े। साल 2016 में किसानों को ध्यान में रखते हुए इसकी शुरुआत की गई थी। लेकिन नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वॉयरनमेंट (सीएसई) के मुताबिक, सभी जिलों को समान रूप से इस बीमा योजना का लाभ नहीं मिलता।
 
सीएसई का कहना है कि जलवायु के लिहाज से संवेदनशील जिलों में किसानों को फसल बीमा के लिए ज्यादा प्रीमियम देना पड़ता है और उन्हें मिलने वाली बीमा राशि भी कम होती है। सीएसई के विश्लेषण के मुताबिक, इससे किसानों को सशक्त बना सकने वाली बीमा योजना का उद्देश्य कमजोर हो जाता है।
 
सीएसई के प्रोग्राम डायरेक्टर अमित खुराना कहते हैं, "फसल बीमा योजना जलवायु के लिहाज से संवेदनशील किसानों के लिए सुरक्षा कवच साबित हो सकती है। लेकिन किसानों को इसे अपनाने में फायदा दिखना चाहिए यानी असुरक्षित किसानों को बेहतर मदद के लिए कम भुगतान करने की जरूरत होनी चाहिए।” हालांकि, ऐसा नहीं हो रहा है।
 
सीएसई ने साल 2023 के मानसून फसल बीमा के डेटा का विश्लेषण किया था। इसमें विभिन्न जिलों के करीब 2.15 करोड़ किसानों की जानकारी शामिल थी। सरकार ने जलवायु परिवर्तन के खतरे के हिसाब से जिलों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा है। विश्लेषण में सामने आया कि बहुत ज्यादा खतरे वाले जिलों के किसानों ने कम खतरे वाले जिलों के किसानों की तुलना में 70 फीसदी ज्यादा प्रीमियम दिया। अधिक प्रीमियम देने के बाद भी इन किसानों को मिलने वाली बीमा राशि 20 फीसदी कम थी।
 
तकनीक से हो सकता है किसानों को फायदा
भारत की करीब 46 फीसदी आबादी खेती से जुड़ी हुई है। सरकारी डेटा के मुताबिक, कृषि क्षेत्र देश की जीडीपी में करीब 16 फीसदी का योगदान देता है। लेकिन, भारतीय फसलों पर जलवायु परिवर्तन का असर लगातार बढ़ रहा है। साल 2024 में चरम मौसमी घटनाओं की वजह से 40 लाख एकड़ फसल प्रभावित हुई। सीएसई द्वारा सहेजे जाने वाले ‘इंडियाज एटलस ऑफ डिजास्टर्स' में यह जानकारी दी गई है। ऐसे में तकनीक किसानों के लिए मददगार साबित हो सकती है।
 
सीएसई के खुराना कहते हैं कि राज्य सरकारों को तकनीक की मदद लेनी चाहिए जिससे बीमा किसानों के लिए बेहतर साबित हो। वे इसके लिए आंध्र प्रदेश का उदाहरण देते हैं, जहां 2018 में डिजिटल फसल सर्वे की शुरुआत हुई थी। वह ऐसा करने वाला पहला राज्य था। इसमें फसल पैदावार की निगरानी के लिए सेटेलाइट और दूसरी तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था।
 
केंद्र सरकार ने भी पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 2023 में 12 राज्यों में डिजिटल फसल सर्वे करवाए थे। अब सरकार की योजना मार्च 2026 तक सभी जिलों में यह सर्वे करवाने की है। मोबाइल ऐप्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी तकनीकों की मदद से सरकार फसल पैदावार के अनुमानों की सटीकता बढ़ाना चाहती है।
 
उम्मीद जताई जा रही है कि इससे फसल बीमा की प्रक्रिया बेहतर होगी, उसमें पारदर्शिता आएगी और दावों को निपटारा आसानी से हो पाएगा। लेकिन, मंदसौर के दि्लीप पाटीदार जैसे किसानों को इसके लिए लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। वे कहते हैं, "सरकार को जल्दी से इन मुद्दों को सुलझा लेना चाहिए, वरना खाना कहां से आएगा।”
एएस/एनआर (रॉयटर्स)