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Written By DW
Last Modified: शुक्रवार, 10 जून 2022 (08:28 IST)

विवाद में क्यों है अरुणाचल प्रदेश की इटालीन पनबिजली परियोजना

विवाद में क्यों है अरुणाचल प्रदेश की इटालीन पनबिजली परियोजना - controversy on etalin hydropower project
पर्यावरण और संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अरुणाचल की इटालीन परियोजना को दी गई मंजूरी खत्म करने की अपील की है। पूर्वोत्तर में पनबिजली परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित बांधों का काफी विरोध होता रहा है।
 
अरुणाचल प्रदेश की दिबांग घाटी में इटालीन पनबिजली परियोजना का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया है। दरअसल, दिबांग नदी पर प्रस्तावित 3,097 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना के लिए इलाके में 2।70 लाख पेड़ों को काटा जाना है। इस क्षेत्र में पक्षियों की करीब सात सौ प्रजातियां पाई जाती हैं। यह भारत में पाई जाने वाली पक्षियों की कुल प्रजातियों का लगभग आधा है। ऐसे में अगर पेड़ों की कटाई होती है तो उसका सीधा असर इन पर पड़ेगा। स्थानीय निवासियों व पर्यावरणविदों का कहना है कि दिबांग घाटी में इस परियोजना के अलावा दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना पहले से ही प्रस्तावित हैं। इनके निर्माण के बाद विस्तृत इलाका पानी में डूब जाएगा।
 
उक्त परियोजना का प्रस्ताव वर्ष 2008 में पेश किया गया था। लेकिन तमाम संगठनों के अलावा स्थानीय लोग उसी समय से इसका विरोध करते रहे हैं। सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति को हाल में भेजे एक पत्र में लिखा है कि इस परियोजना से पारिस्थितिकी और पर्यावरण संबंधी खतरे तो हैं ही, इसके अनुमोदन की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता की कमी है।
 
समिति ने बीती 11 मई को अपनी बैठक में उक्त परियोजना को मंजूरी दी थी। बैठक में कहा गया था कि इटालीन परियोजना के खिलाफ उठाए गए तमाम मुद्दों को सुलझा लिया गया है। लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस बयान के समर्थन में कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिए गए हैं। समिति ने कुछ तबकों की ओर से वन्यजीव और इलाके में वनस्पतियों की प्रजातियों के बारे में उठाई गई शंकाओं के समग्र समाधान के लिए एक चार-सदस्यीय समिति भी बनाई है।
 
समिति की उक्त बैठक के बाद गुवाहाटी स्थित गैर-सरकारी संगठन आरण्यक के फिरोज अहमद समेत कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जैविक विविधता आकलन रिपोर्ट समेत कई मुद्दों पर चिंता जताई थी। उसी रिपोर्ट के आधार पर इस परियोजना को तमाम तरह की मंजूरी मिली है।
 
अब सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में कहा है, "वन सलाहकार समिति को जैविक विविधता से भरपूर इस इलाके में पनबिजली परियोजना के लिए जंगल की जमीन के इस्तेमाल से बचना चाहिए।” इन लोगों में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ के कई पूर्व सदस्यों के अलावा वन्यजीव संरक्षण कार्यकर्ता भी शामिल हैं।
 
लंबा है बांधों के विरोध का इतिहास
पूर्वोत्तर भारत में बांधों के खिलाफ आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। वर्ष 1950 में भयावह भूकंप से असम की तबाही और ब्रह्मपुत्र के रास्ता बदलने के बाद इलाके में पहली बार बांधों की जरूरत महसूस की गई थी। इनका दूसरा मकसद सूखे के सीजन में सिंचाई के लिए पानी की सप्लाई और इलाके में बिजली की कमी को दूर करना था।
 
इनमें दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना और लोअर सुबनसिरी मेगा बांध परियोजना शामिल थी। लेकिन अरुणाचल व असम के सीमावर्ती इलाकों में इन दोनों का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया। दशकों बाद अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने 1985 में पहली बार संगठित रूप से अरुणाचल में प्रस्तावित बांधों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन शुरू किया। यह जल्दी ही आम लोगों के आंदोलन में बदल गया।
 
जून, 2008 में अरुणाचल के लोअर सुबनसिरी जिले में रंगानदी पर बने बांध से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के कारण असम की तबाही के बाद यह आंदोलन और तेज हो गया। इस पानी को छोड़ने से पहले कोई चेतावनी भी जारी नहीं की गई थी। नतीजतन गर्मी के सीजन में आई भयावह बाढ़ से कम से कम दस लोगों की मौत हो गई और तीन लाख विस्थापित हो गए थे।
 
दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना के लिए भी लाखों पेड़ों को काटा जाना है और घाटी के कम से कम 39 गांवों को हटा कर दूसरी जगह बसाया जाना है। इसके लिए 1,165 हेक्टेयर जंगल साफ किए जाएंगे। यह इलाका इदु मिश्मी प्रजाति का घर और जैविक विविधता से भरपूर है।
 
वर्ष 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था। लेकिन इदु मिश्मी प्रजाति के लोगों के भारी विरोध के कारण नेशनल हाइड्रो पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) इसके निर्माण को आगे नहीं बढ़ा सका। भारी विरोध के कारण अगले पांच साल यानी वर्ष 2013 तक परियोजना का काम ठप रहा। बाद में आंदोलनकारियों को बल प्रयोग के जरिए दबा दिया गया और वर्ष 2015 में केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे हरी झंडी दिखा दी। वर्ष 2018 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी इस परियोजना को मंजूरी दे दी।
 
बांध के खिलाफ आंदोलन करने वाली इदु मिश्मी समुदाय के संगठन 'दिबांग मल्टीपरपज प्रोजेक्ट डैम अफेक्टेड एरिया कमिटी' के अध्यक्ष नोगोरो मेलो कहते हैं, "आदिवासी लोग जमीन की कीमत समझते हैं। लेकिन सरकार मामूली मुआवजा देकर हमारी चार हजार हेक्टेयर जमीन छीनना चाहती है। सरकार को इस जमीन के एवज में लगभग 16 सौ करोड़ का मुआवजा देना है। लेकिन एनएचपीसी ने यह कह कर इसे अदालत में चुनौती दी है कि यह जमीन आदिवासियों की नहीं है।”
 
यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले अरुणाचल प्रदेश सरकार ने उक्त परियोजना से प्रभावित होने वाले परिवारों के लिए एक पुनर्वास पैकेज का एलान किया था। लेकिन चुनाव के बाद एनएचपीसी ने इस फैसले को अदालत में चुनौती दे दी। अब एक बार फिर इस मुद्दे के गरमाने के आसार हैं।
 
रिपोर्ट : प्रभाकर मणि तिवारी
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