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Written By DW
Last Updated : शनिवार, 26 अक्टूबर 2024 (08:14 IST)

क्या जर्मन कारोबारों के लिए चीन की जगह ले सकता है भारत?

modi and scholz
श्रीनिवास मजुमदारु
जर्मन कंपनियां लंबे समय से चीनी बाजार पर ध्यान केंद्रित करती आई हैं, लेकिन भू-राजनीतिक तनाव के बीच अब उनके लिए भारत की अहमियत बढ़ती जा रही है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत अब चीन की जगह ले सकता है?
 
जर्मनी के शीर्ष कारोबारी और राजनेता एक बड़ी बैठक के लिए भारत आए हैं। यहां वे जर्मनी और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बीच आर्थिक संबंधों को और मजबूत करने के रास्ते तलाश करेंगे।
 
फेडरेशन ऑफ जर्मन इंडस्ट्रीज (बीडीआई) में इंटरनेशनल मार्केट के प्रमुख फ्रिडोलिन स्ट्राक ने डीडब्ल्यू को बताया, "भू-राजनीतिक बदलावों और अलग-अलग देशों के साथ कारोबार बढ़ाने की इच्छा के कारण जर्मनी और यूरोपीय संघ के लिए इस क्षेत्र की अहमियत तेजी से बढ़ रही है। इसका प्रमाण यह है कि वर्ष 2023 में जर्मनी ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में कुल 231।9 अरब डॉलर की मूल्य के वस्तुओं का निर्यात किया।"
 
जर्मन कारोबार का एशिया-प्रशांत सम्मेलन 24 अक्टूबर से नई दिल्ली में शुरू हो गया है। इस वर्ष यह आयोजन जर्मनी और भारत के बीच 'इंटरगवर्नमेंटल कंसल्टेशंस' (आईजीसी) के साथ हो रहा है। जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साथ मिलकर इसकी अध्यक्षता कर रहे हैं। 
 
अब भारत पर दिया जा रहा विशेष ध्यान
जर्मनी के लिए भारत की अहमियत रेखांकित करते हुए शॉल्त्स की सरकार ने पिछले हफ्ते 'फोकस ऑन इंडिया' नामक पेपर के जरिए बहुआयामी संबंधों की एक विस्तृत रूपरेखा सामने रखी। इसका उद्देश्य व्यापार, आप्रवासन, जलवायु परिवर्तन और विदेश नीति सहित सभी क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच संबंधों और रणनीतिक साझेदारी को बेहतर बनाना है।
 
जर्मन श्रम बाजार कुशल कामगारों की कमी से जूझ रहा है। यह कमी दूर करने के लिए जर्मनी ने भारत से कुशल श्रमिकों को बुलाने के लिए 30 नए नियम बनाए हैं। इन नियमों से भारत के लोग जर्मनी में आसानी से काम पा सकेंगे और जर्मनी में भी कुशल श्रमिकों की समस्या दूर हो सकेगी।
 
25 अक्टूबर को शॉल्त्स और नरेंद्र मोदी, दोनों नई दिल्ली में व्यापार सम्मेलन में भाग लेने वाले सैकड़ों कारोबारियों और कंपनी के बड़े अधिकारियों को संबोधित करेंगे। यह द्विवार्षिक सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब जर्मनी की अर्थव्यवस्था काफी मुश्किल दौर से गुजर रही है। विकास की दर स्थिर हो चुकी है, अर्थव्यवस्था को कई तरह की संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और कारोबारी माहौल भी सही नहीं है।
 
उद्योग निकायों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि घरेलू कारोबारी माहौल को लेकर कंपनियों के बीच निराशा बढ़ती जा रही है। हालांकि, जर्मन कंपनियां मानती हैं कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में उनके कारोबार का भविष्य उज्ज्वल है।
 
जर्मन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स अब्रॉड (एएचके) और जर्मन चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डीआईएचके) ने हाल ही में एक अध्ययन किया है। इससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में काम कर रही जर्मन कंपनियों को लगता है कि यहां उनका कारोबार बढ़ेगा। वहीं, चीन को लेकर उनकी उम्मीदें अभी भी कम हैं।
 
चीन पर निर्भरता और जोखिम कम करना
जर्मन कंपनियां लंबे समय से एशिया में चीन पर अपना ध्यान केंद्रित करती रही हैं। ऑटोमोटिव, मशीनरी और रासायनिक क्षेत्रों से जुड़ी जर्मन औद्योगिक कंपनियां अपने कारखानों को चालू रखने और अच्छे वेतन वाली हजारों नौकरियां देने के लिए चीन के ऑर्डर पर निर्भर रही हैं।
 
हालांकि, चीन की अर्थव्यवस्था में आई मंदी ने इन कारोबारों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इस वजह से उन्हें अपने काम करने के तरीके बदलने पड़ रहे हैं और लागत में कटौती के लिए मजबूर होना पड़ा है।
 
इस बीच, चीन और पश्चिमी देशों के बीच भू-राजनीतिक तनाव भी बढ़ा है। इस वजह से जर्मन कंपनियां चीन से दूरी बनाने की मांग कर रही हैं। वे चीन पर अपनी निर्भरता और तथाकथित जोखिम कम करने के साथ-साथ दूसरे देशों के साथ व्यापार बढ़ाना चाहती हैं। यही वजह है कि कई जर्मन कंपनियां एशिया-प्रशांत क्षेत्र के नए बाजारों में प्रवेश करने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि, उनका कहना है कि अलग-अलग देशों में पैठ बनाना अभी भी एक चुनौती है।
 
डीआईएचके के विदेशी व्यापार प्रमुख फोल्कर ट्राइएर ने डीडब्ल्यू को बताया, "पिछले 40 वर्षों में जर्मन अर्थव्यवस्था ने चीनी बाजार में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। साथ ही आपूर्ति शृंखलाओं, उत्पादन और वितरण चैनलों का एक जटिल और बेहतर नेटवर्क तैयार कर लिया है।"
 
उन्होंने आगे कहा, "इस नेटवर्क को आसानी से दूसरे देशों या बाजारों में ट्रांसफर नहीं किया जा सकता है। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि चीन में कार्यरत लगभग 90 फीसदी जर्मन कंपनियां चीनी बाजार के लिए उत्पादन करती हैं। इसलिए चीनी घरेलू बाजार के साथ उनके घनिष्ठ संबंध हैं।"
 
भारत में अवसर और चुनौतियां
जर्मन कंपनियों के लिए भारत की अहमियत तेजी से बढ़ती जा रही है। वजह यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और दोनों पक्षों के बीच व्यापार भी बढ़ रहा है। यह 2023 में 30।8 अरब यूरो के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
 
कंसल्टेंसी केपीएमजी और एएचके ने 'जर्मन-इंडिया बिजनेस आउटलुक 2024' नामक अध्ययन किया। इसमें पाया गया कि जर्मन कंपनियां आने वाले समय में भारत में अपना निवेश बढ़ाने की योजना बना रही हैं। इसके प्रमुख कारण ये हैं कि भारत में श्रम लागत कम है, राजनीतिक स्थिरता है और कुशल श्रमिक भी उपलब्ध हैं।
 
हालांकि, जर्मन कंपनियों को भारतीय बाजार में चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। रिपोर्ट में नौकरशाही से जुड़ी बाधाओं, भ्रष्टाचार और जटिल टैक्स प्रणाली के साथ-साथ कई समस्याओं की ओर भी इशारा किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, "इन चुनौतियों के बावजूद, जर्मन कंपनियों को लगता है कि वे भारत में आगे चलकर बहुत अच्छा काम करेंगी। आने वाले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूती से बढ़ने की उम्मीद है और जर्मन कंपनियां इसका फायदा पाने के लिए अच्छी स्थिति में हैं।"
 
बीडीआई के फ्रिडोलिन स्ट्राक का भी मानना है कि भारत "जर्मन उद्योग के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण उभरता हुआ बाजार है।" उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में वहां निवेश की स्थिति में काफी सुधार हुआ है, क्योंकि बुनियादी ढांचे का विस्तार हुआ है, कुशल श्रमिकों की उपलब्धता है और डिजिटल तकनीकों को तेजी से अपनाया जा रहा है। जर्मन कंपनियां वहां कारोबार करने में दिलचस्पी दिखा रही हैं।
 
डीआईएचके से जुड़े ट्राइएर ने कहा कि इन सबके बावजूद भारत को जर्मन कारोबार के लिए 'नया चीन' बनने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, "यह किसी एक चीज या दूसरी चीज को चुनने का मामला नहीं है। जब देश एक-दूसरे के साथ व्यापार करते हैं, तो सभी को फायदा होता है। हमारा कारोबार संघ जर्मनी, चीन और भारत के बीच मजबूत आर्थिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध है।"
 
ट्राइएर ने बताया कि डीआईएचके ने जब जर्मन कंपनियों के बीच सर्वेक्षण किया, तो पता चला कि ये कंपनियां चीन और भारत, दोनों जगहों पर अपनी कारोबारी गतिविधियों से जुड़े जोखिमों और फायदों के बारे में जानती हैं। ट्राइएर बताते हैं, "फिलहाल हमें जोखिम की तुलना में फायदे ज्यादा दिख रहे हैं।"
 
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अन्य विकल्प
'एएचके ग्रेटर चाइना' द्वारा किए गए बिजनेस कॉन्फिडेंस सर्वे के अनुसार, जर्मनी की अधिकांश कंपनियां जो चीन से अलग किसी और देश में अपना कारोबार फैलाना चाह रही हैं, वे एशिया-प्रशांत क्षेत्र के अन्य देशों को चुन रही हैं। ट्राइएर ने बताया, "भारत, जापान और दक्षिण कोरिया को इससे काफी फायदा हो रहा है। दक्षिण पूर्व एशिया में थाईलैंड, सिंगापुर और वियतनाम को फायदा हो रहा है।"
 
उन्होंने आगे कहा, "हालांकि, अभी तक उत्पादन को किसी और जगह ले जाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इसके पीछे कई बाधाएं हैं, जैसे कि सरकार के नियम-कायदे, बहुत ज्यादा खर्च, सही सप्लायर और व्यापारिक साझेदार खोजने में मुश्किलें।"
 
स्ट्राक ने कहा कि जर्मन कंपनियों के लिए बड़े बाजार और विकास की संभावनाएं काफी मायने रखती हैं। जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान देश इन दोनों मापदंडों पर खरे उतरते हैं, इसलिए जर्मन कंपनियों के लिए ये देश बहुत आकर्षक हैं।
Photo courtesy : Narendra modi twitter account 
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