माना जा रहा है कि सीटों के बंटवारे में एलजेपी सबसे ज्यादा फायदे में रही है और सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को हुआ है। आखिर बिहार में बीजेपी क्यों मजबूर नजर आ रही है।
करीब पांच साल पहले जब बीजेपी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी और पार्टी पुराने सहयोगी दलों के साथ गठबंधन में कथित तौर पर अपनी शर्तें थोप रही थी, तो एनडीए के कई पुराने सहयोगियों को बीजेपी की शर्तों पर समझौता करना पड़ा और कुछ को एनडीए से अलग भी होना पड़ा।
पांच साल बाद स्थिति बदल गई है। एनडीए के गठबंधन दलों के साथ सीटों के समझौते पर शुरुआती दौर की पहल बिहार से हुई है और शुरु में ही बीजेपी को इस कदर समझौता करना पड़ा है कि उसे अपनी जीती हुई सीटों के बराबर भी सीटें लड़ने के लिए नहीं मिल सकी हैं।
बिहार में बीजेपी, जेडीयू और रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के बीच सीटों का जो समझौता हुआ है, उसमें बीजेपी को 17, जेडीयू को 17 और एलजेपी को छह सीटें मिली हैं। लोजपा नेता रामविलास पासवान को बीजेपी ने राज्यसभा में पहुंचाने का भी आश्वासन दिया है।
गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने तीस सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसने 22 सीटें जीती थीं। उस वक्त जेडीयू गठबंधन का हिस्सा नहीं थी और उसने सभी चालीस सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन कामयाबी सिर्फ दो सीट पर ही मिली थी। एलजेपी ने छह सीटें जीती थीं और तीन सीटों पर एनडीए की एक अन्य सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा ने जीतीं थीं, जो अब एनडीए छोड़कर यूपीए में शामिल हो चुकी है।
बीजेपी की विवशता
बिहार से शुरू हुए गठबंधन के इस गणित को बीजेपी की रणनीति नहीं बल्कि उसकी विवशता के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले, बीजेपी ने बिहार में ही एनडीए की एक अन्य सहयोगी रालोसपा को उसकी मांगों को तवज्जो न देते हुए गठबंधन से अलग होने पर मजबूर कर दिया। लेकिन, दूसरी ओर, जब उसी तरह की मांगें और वैसे ही तेवर एलजेपी ने दिखाने शुरू किए तो बीजेपी आत्मसमर्पण करने पर मजबूर हो गई।
जानकारों का कहना है कि इसके पीछे निश्चित तौर पर यही वजह है कि अब देश में, खासकर उत्तर भारत में 'मोदी लहर' जैसा राजनीतिक माहौल नहीं है, जीत की सर्वोत्तम स्थिति तक पहुंचने के बाद राज्यों में बीजेपी की हार का सिलसिला शुरू हो चुका है। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस की स्थिति लगातार मजबूत हो रही है और यूपीए के घटक दलों में एकजुटता बढ़ती दिख रही है।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि बिहार में नितीश कुमार और रामविलास पासवान की राजनीतिक धमकी के आगे बीजेपी ने जो समझौता किया है, उसके तहत उसे अपनी पांच जीती सीटें भी छोड़नी पड़ेंगी और ये समझौता जीतने का आत्मविश्वास रखने वाली पार्टी का तो कतई नहीं हो सकता।
नीरजा चौधरी कहती हैं, "उपेंद्र कुशवाहा को तो बीजेपी ने तवज्जो नहीं दी और इस रणनीति में उसका साथ जेडीयू ने भी दिया जबकि कुशवाहा के पास अच्छा खासा ओबीसी वोट है। लेकिन जब धमकी रामविलास पासवान की ओर से आई और यूपीए की ओर उनका झुकाव साफ दिखने लगा तो शायद बीजेपी इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी क्योंकि राज्य में करीब छह प्रतिशत दलित वोट बैंक उनके पास है जो उन्हीं के हिसाब से वोट करता है।''
रामविलास पासवान के हाथ में चाबी
जहां तक रामविलास पासवान का सवाल है तो राजनीतिक जगत में उन्हें 'राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक' की उपमा दी गई है। कहा जाता है कि पासवान चुनाव से पहले जिस पार्टी या गठबंधन की ओर जाते हैं, वो पार्टी या गठबंधन चुनाव बाद सत्तारूढ़ होता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि पिछले तीस साल में सरकार चाहे जिसकी रही हो, पासवान मंत्रिमंडल में जरूर रहते हैं, कुछेक अपवादों को छोड़कर।
वीपी सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी तक, राम विलास पासवान अब तक छह प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में उनके सहयोगी रह चुके हैं। इस दौरान केंद्र में यूपीए की भी सरकार रही और एनडीए की भी। सिर्फ 2009 से 2014 तक पासवान मंत्रिमंडल से बाहर रहे, क्योंकि 2009 में उनकी पार्टी ने एक भी सीट नहीं जीती और वे खुद भी चुनाव हार गए थे। ये जरूर है कि राज्यसभा में वे पहुंच गए थे।
जानकारों के मुताबिक बिहार में पासवान मतदाताओं की संख्या करीब छह फीसदी है और इस पर रामविलास पासवान की पकड़ लगभग वैसी है जैसी कि उत्तर प्रदेश में जाटव मतदाताओं पर बहुजन समाज पार्टी की। यह वर्ग न सिर्फ पासवान की पार्टी को वोट देता है बल्कि पासवान इस वोट को कहीं भी स्थानांतरित भी कराने की ताकत रखते हैं।
2009 में जब पासवान की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई थी तब भी उसे 6.5 प्रतिशत वोट मिला था और 2014 में छह सीटें जीत कर उसका मत प्रतिशत लगभग यही रहा। जाहिर है, बीजेपी इसी वोट बैंक के चलते रामविलास पासवान की सभी शर्तों को मानने को तैयार हुई है।
आंतरिक खींचतान से हुआ नुकसान
बिहार में सीटों के बंटवारे को लेकर एनडीए के घटक दलों के बीच हुई खींचतान में उपेंद्र कुशवाहा अलग हो गए। इसे बीजेपी ने भले ही ऊपरी तौर पर कोई खास तवज्जो नहीं दी लेकिन जानकारों का कहना है कि ये एनडीए के लिए बड़ा झटका था। ठीक उसी समय जब रामविलास पासवान के बेटे और सांसद चिराग पासवान ने राहुल गांधी की तारीफ की। गठबंधन के मामले को 31 दिसंबर से पहले हल करने का अल्टीमेटम दिया और उपेंद्र कुशवाहा ने सीधे तौर यूपीए में शामिल होने का सुझाव दिया तो इस स्थिति में बीजेपी एक और झटका शायद सहन नहीं कर सकती थी।
नीरजा चौधरी कहती हैं, "विधानसभा चुनाव में तीन राज्यों का हाथ से निकल जाना भी एक बड़ा झटका था और चुनाव से ठीक पहले, इतने सारे राजनीतिक झटके सहने की ताकत अब उसमें नहीं रह गई थी और पिछले चार साल से लगातार मिल रही जीत भी इस दिशा में अब उसकी कमजोरी ही बन रही है।''
दूसरी ओर, एलजेपी के लिए भी ये स्थिति बहुत सहज नहीं थी क्योंकि उसने एनडीए को तो अल्टीमेटम जरूर दे दिया था लेकिन यूपीए गठबंधन में उसे क्या हासिल होता, ये तय नहीं था। जानकारों के मुताबिक, इतना तो तय है कि सही समय देखकर पासवान नो जो राजनीतिक तीर चलाया, वो सही निशाने पर लगा।
दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार संजय शर्मा कहते हैं कि पासवान को जो मिला, वो अपनी जगह है लेकिन इस समझौते में बीजेपी ने बहुत कुछ खोया है। वो कहते हैं, "यह बीजेपी की विवशता ही है कि उसे केंद्र सरकार के प्रति चिराग पासवान की सख्त बयानबाजी भी बर्दाश्त करनी पड़ी। उसकी धमकी भी सहनी पड़ी कि सीटों का बंटवारा जल्द और सम्मानजनक नहीं हुआ तो वो अन्य रास्ते तलाशने पर बाध्य होगी। यही दबाव की राजनीति जेडीयू ने भी अपनाई थी और बीजेपी की इसी कमजोरी ने जेडीयू को भी उम्मीद से ज्यादा सीटें दिला दीं।''
राज्य में उभरती नई चुनौतियां
हालांकि जानकार ये भी कहते हैं कि बीजेपी ने बिहार में आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन की तरफ से उभरती चुनौती को भांप कर ही अपनी दावेदारी घटाई। बीजेपी के सहयोगी दल जिस तरह से उसे आंखें दिखा रहे हैं और अलग होने को तैयार बैठे हैं, उस स्थिति में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह नितीश कुमार को अलग खेमे में देखने को अपने लिए फायदेमंद नहीं देख रहे थे।
लेकिन नीरजा चौधरी कहती हैं कि बिहार में जो कुछ भी हुआ, आने वाले दिनों उसकी प्रतिध्वनि अन्य राज्यों में भी सुनाई देगी, खासकर महाराष्ट्र और यूपी में। वो कहती हैं, "यूपी में उनकी पार्टी के ही नेता विद्रोह पर उतारू हैं तो राजभर जैसे लोग रोज ऐसी धमकी दे रहे हैं जिसे पूर्ण बहुमत वाली सरकार कैसे बर्दाश्त कर रही है, सोच से परे है। महाराष्ट्र में शिवसेना या तो जेडीयू और एलजेपी की ही तरह अपनी शर्तें मनवाने की कोशिश करेगी या फिर अलग होने की धमकी देगी। देखा जाए तो ये दोनों स्थितियां बीजेपी के लिए ही ज्यादा नुकसानदेह दिख रही हैं, शिवसेना के लिए कम।''
बदलते राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए ये संभावना भी क्षीण नजर आ रही है कि बीजेपी सहयोगियों को गठबंधन छोड़ने की धमकी दे देगी, जैसा कि उसने साल 2014 में किया था। राजनीतिक पर्यवेक्षक इन सारी स्थितियों को बीजेपी के लिए चुनौती मान रहे हैं क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि वो देश भर में महागठबंधन बनने से रोकने में अपनी ऊर्जा लगाएगी, लेकिन अब उसे अपनी ऊर्जा अपना घर संभालने में भी लगानी पड़ रही है।
रिपोर्ट समीरात्मज मिश्र