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Written By विट्‍ठल नागर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:26 IST)

अमेरिका द्वारा घायल रुपया : स्थिति कठिन

अर्थ मंथन

अमेरिका द्वारा घायल रुपया : स्थिति कठिन -
सीआरआर में आधा प्रतिशत वृद्धि महज रुपए की बढ़ी-चढ़ी प्रवाहिता को आंशिक रूप से संभालने का अभ्यास भर है। इस वृद्धि से बैंकें चिंतित नहीं हैं, क्योंकि देश में ऊँची ब्याज दर की वजह से बैंक कर्ज की माँग वैसे भी घटी हुई है। उद्योग व व्यापार भी परेशान नहीं हैं, क्योंकि बैंक ब्याज दर में इससे वृद्धि नहीं होगी। हानि होगी तो उन्हें, जो अपनी बचत बैंकों में रखते हैं, क्योंकि जमा रकमों की ब्याज दर घट सकती है।

अमेरिका अपनी अर्थव्यवस्था को आर्थिक मंदी की स्थिति से बचाने के लिए बैंक ब्याज दर घटा रहा है- ऐसा करके वह अपने हाथ तेजी की अर्थव्यवस्था वाले भारत एवं चीन के खून से रंग रहा है। भारत का प्रयास यही है कि अपने खून को बहने से रोके, किंतु इसके उपाय बहुत सीमित हैं। भारत बैंक ब्याज दर घटा कर ऐसा कर सकता है, किंतु उससे भारत में मुद्रास्फीति एवं महँगाई तेजी से बढ़ेगी। इससे सबसे पहले गरीब उपभोक्ता प्रभावित होंगे। फिर उद्योग एवं अंत में निर्यात।

निर्यात तो अभी भी प्रभावित हो रहा है डॉलर की तुलना में रुपए की विनिमय दर अधिक महँगी बनने से। भारत सरकार एवं रिजर्व बैंक चाहते हैं कि डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर बने, किंतु वह कमजोर तभी बनेगा, जब या तो देश में डॉलर की आवक घटे या अर्थव्यवस्था में डॉलर की माँग बढ़े। अभी ऐसा हो नहीं रहा है। इसलिए एक ओर रुपया अधिक मजबूत बन रहा है एवं दूसरी ओर देश की आर्थिक प्रणाली में रुपए की आधिक्यता बढ़ रही है, जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक है।

अभी प्रणाली में रुपए की आधिक्यता 30 हजार करोड़ रुपए से अधिक है, जो महँगाई एवं मुद्रास्फीति को तेजी से बढ़ा सकती है। इसीलिए भारतीय रिजर्व बैंक ने 30 अक्टूबर को अपनी तिमाही मौद्रिक नीति जाहिर करते हुए बैंकों के सीआरआर दर में आधे प्रतिशत की वृद्धि करके दर को 7.50 प्रतिशत कर दिया। ऐसा करके उसने बैंकों की कुल जमा रकमों में से 15 हजार करोड़ रुपए देश की प्रवाहिता से बाहर कर दिए, किंतु यह न तो मौद्रिक नीति का हिस्सा है और न ही समस्या का सटीक हल।

क्योंकि, प्रणाली में रुपए की प्रवाहिता इससे भी तेज गति से बढ़ सकती है। अमेरिका की मौद्रिक नीति को खूनी इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि उसकी ब्याज दर में लगातार कटौती की जा रही है। 17 सितंबर को अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर में आधे प्रतिशत की कमी की थी एवं 31 अक्टूबर को पुनः एक-चौथाई प्रतिशत की कमी कर दी। इससे वहाँ अल्प अवधि की ब्याज दर 4.5 प्रतिशत कर दी गई, जबकि भारत में यह दर 7 प्रतिशत है।

दर में इस विभेदता की वजह से ही नहीं वरन्‌ भारत के उद्योग अमेरिकी उद्योगों की तुलना में लाभप्रदता तेज रहने एवं भारत का शेयर बाजार अधिक तेज-तर्राट होने की वजह से अमेरिकी धन वहाँ की बैंकों से निकल कर अधिक से अधिक मात्रा में भारत व चीन पहुँच रहा है- अधिक मुनाफा कमाने के लालच में। अमेरिकी फेड रिजर्व द्वारा 31 अक्टूबर को ब्याज दर पुनः घटाए जाने की वजह से भारत में डॉलर की आवक और तेजी से बढ़ सकती है एवं रुपया अधिक मजबूत हो सकता है।

डॉलरों की आवक बढ़कर बाढ़ का स्वरूप ले रही है और अधिक डॉलर शेयर बाजार में लगने से वर्ष 2007 के 10 माहों में भारतीय शेयरों का बाजार पूँजीकरण दुगुने से अधिक हो गया। इसलिए संभव है कि अगले कुछ दिनों में ही भारतीय रिजर्व बैंक सीआरआर की दर में और वृद्धि कर सकती है एवं कुछ अन्य सख्त कदम उठा सकती है। डॉलर की बढ़ती बाढ़ पर नियंत्रण पाने के लिए अब तक जो कदम उठाए गए हैं, वे नाकाफी सिद्ध हुए हैं।

जैसे (1) विदेशी व्यावसायिक उधार (ईसीबी) के डॉलरों को भारत में लाने एवं साथ ही ऊँची ब्याज दर पर विदेशी कर्ज जुटाने संबंधी रोक। (2) विदेशी निवेशकों पर पीएन के माध्यम से विदेशों में भारतीय शेयरों पर वायदा सौदे करने पर रोक। (3) कई क्षेत्रों में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) पर रोक लगी हुई है।

देश में डॉलरों के खरीददार अधिक नहीं हैं- इसलिए रिजर्व बैंक को रुपए जारी कर डॉलर खरीदने पड़ रहे हैं। अगर 1970 या 1980 की दशक में डॉलर की आवक इतनी होती तो शायद समस्या इतनी गंभीर नहीं बनती, क्योंकि तब विदेशी मुद्रा के लेनदेन का चालू खाता भारी घाटे में था, जिसे पूरा करने के लिए सरकार को विदेशी आर्थिक मदद की जरूरत पड़ती थी, पर अब वैसी स्थिति नहीं है।

इसलिए रिजर्व बैंक रुपए की प्रवाहिता में भारी वृद्धि (डॉलर खरीदने के कारण) से त्रस्त है और वह विभिन्न तरीकों से बाजार में बढ़ी-चढ़ी रुपए की प्रवाहिता को ऊँची लागत पर सोख रही है। जनवरी से अभी तक के 10 माहों में वह बाजार से 61 अरब डॉलर खरीद कर बाजार में रुपया उड़ेल चुकी है- डॉलर को मजबूत बनाने के लिए। रुपए बाजार में न उड़ेलना पड़े, इसलिए वह विदेशों से डॉलर के कर्ज जुटाने वाली कंपनियों से कहे कि वे या तो डॉलर रिजर्व बैंक से ले अथवा बाहर से लाए गए डॉलरों को रुपए में भुनाने पर 'भुनाई कर' दे, ताकि रिजर्व बैंक की लागत घटे।