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Written By राम यादव
Last Updated : मंगलवार, 8 जुलाई 2014 (17:10 IST)

तेल की होगी बहुतायत, भारत फिर भी तरसेगा

तेल की होगी बहुतायत, भारत फिर भी तरसेगा -
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अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की मानें तो तेल और गैस के अभाव के बदले उनकी बहुतायत का एक नया युग दस्तक देने लगा है। तेल और गैस के बिलकुल नए क़िस्म के भंडार और उनके दोहन की सर्वथा नई तकनीकें पूरी 21वीं सदी के दौरान ऊर्जा की समग्र वैश्विक मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होंगी।

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) की भविष्यवाणी है कि अमेरिका चालू दशक के भीतर ही तेल और गैस के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर लेगा। यही नहीं, वह जल्द ही सऊदी अरब को पीछे छोड़कर संसार का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन जाएगा। तब बहुत संभव है कि तेल के धनी अरब देशों की दुनिया में वह पूछताछ भी न रह जाए, जो आज है।

अमेरिका के परम आलोचकों का सबसे प्रिय तर्क भी तब कुतर्क बन जाएगा कि उस की हर चाल के पीछे तेल की अथाह प्यास ही छिपी होती है, लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, तेल को लेकर उसकी तरस आगे भी बनी रहेगी।

पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) ऊर्जा की विश्वव्यापी मांग और पूर्ति संबंधी परिदृश्य पर नज़र रखने वाली एक महत्वपूर्ण संस्था है। उसके कुल 28 सदस्य देशों में से 21 यूरोप देश हैं। ग़ैर यूरोपीय सदस्य देश हैं अमेरिका, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, तुर्की, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड।

अपने नए वैश्विक ऊर्जा अध्ययन 'वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक' में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने 2035 तक के वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए कई रोचक भविष्यवाणियां की हैं :

- तेल, गैस और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों की मांग कुल मिलाकर वैसे तो 2035 तक लगातार बढ़ेगी, लेकिन वैश्विक ऊर्जा के सभी स्रोतों को मिलाकर देखने पर उनका सम्मिलित अनुपात इस समय के 81 प्रतिशत से घटकर 75 प्रतिशत पर आ जाएगा।

- कई देशों द्वारा अपनी परमाणु ऊर्जा नीति में संशोधनों के कारण बिजली उत्पादन में परमाणु बिजलीघरों का हिस्सा 2035 तक बढ़ने के बदले इस समय के 12 प्रतिशत के आसपास ही बना रहेगा।

आगे पढ़ें, अमेरिका कैसे बनेगा आत्मनिर्भर...


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अमेरिका बनेगा आत्मनिर्भर : इस समय अपनी समग्र ऊर्जा खपत का लगभग 20 प्रतिशत बाहर से आयात करने वाला अमेरिका अपने यहाँ शिला-तेल (शेल ऑइल), शिला-गैस (शेल गैस) और जैव-गैस (बायोगैस) के तेज़ी से बढ़ते हुए उत्पादन की बलिहारी से 2035 तक न केवल पूरी तरह आत्मनिर्भर बन जाएगा, उनका निर्यात भी करने लगेगा। सऊदी अरब को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका 2020 तक संसार का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन जाएगा।

- 2035 तक प्राकृतिक गैस के उत्पादन में जो विश्वव्यापी वृद्धि होगी, उसमें गैस के अप्रचलित स्रोतों (शिला-गैस, बायोगैस इत्यादि) का हिस्सा लगभग आधे के बराबर होगा। इस वृद्धि के पीछे मुख्य रूप से चीन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का हाथ रहेगा।

- भारत, चीन और मध्यपूर्व के उभरते हुए देशों में मुख्यतः यातायात और परिवहन साधनों के कारण ईंधन की बढ़ती हुई मांग ओईसीडी (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन OECD) वाले विकसित देशों में ईँधन की घटती हुई मांग से अधिक होगी। इस कारण तेल का बाज़ार भाव 2035 तक और भी बढ़ेगा। तेल की लगातार बढ़ती हुई विश्वव्यापी मांग में अकेले चीन का हिस्सा 50 प्रतिशत के बराबर होगा।

- 2035 तक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में संभावित वृद्धि की दृष्टि से 3 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ विश्व के प्रमुख देशों में भारत सबसे आगे होगा। 2.1 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ चीन दूसरे नंबर पर और 1.7 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ अमेरिका तीसरे नंबर पर होगा।

आइईए के ऊर्जा-विशेषज्ञों का मत है कि सौर, पवन या जैव-ऊर्जा जैसै ऊर्जा के तथाकथित वैकल्पिक स्रोत नहीं, बल्कि भू-गर्भीय चट्टानों में छिपे हुए तेल और गैस के अपारंपरिक भंडार अमेरिका को आत्मनिर्भरता प्रदान करते हुए विश्व का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बनाने जा रहे हैं।

इन पथरीली चट्टानों को 'फ्रैकिंग' नाम की एक नई तकनीक द्वारा तोड़कर उनमें छिपे तेल या गैस तक पहुंचा जाता है। ये विशेषज्ञ 2035 तक ऐसी कोई तकनीकी या भू-गर्भीय बाधाएं नहीं देखते, जो अमेरिका ही नहीं, कुछ दूसरे देशों में भी चट्टानी तेल और गैस के दोहन में रुकावट डाल सकें।

फ्रैकिंग तकनीक : 'फ्रैकिंग' एक ऐसी मंहगी तकनीक है, जिसमें तेल या गैसधारी, हज़ारों मीटर गहरी, भू-गर्भीय चट्टानों में बोरिंग द्वारा छेद कर उसमें 'अति उच्च दबाव पर' भारी मात्रा में पानी और कई रसायन ठूंसे जाते हैं। इससे चट्टानों में दरारें पड़ती हैं और इन दरारों के बीच से तेल या गैस का रिसाव होने लगता है। पर्यावरणवादी इस तकनीक के घोर विरोधी हैं, क्योंकि इससे भूमिगत पेयजल प्रदूषित होने का भी भारी ख़तरा रहता है। पर, लगता नहीं कि पर्यावरणरक्षक अमेरिका को संसार का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बनने से रोक पाएंगे।

अब तो अमेरिका ही नहीं चीन, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और कई यूरोपीय देश भी इस तकनीक द्वारा अपने यहां तेल और गैस निकालने के उपक्रम कर रहे हैं। इन देशों में भी चट्टानी तेल और गैस के बड़े-बड़े भंडार मिले हैं। कनाडा तेल से सनी रेत का धनी है। पर्यावरण संबंधी सभी आपत्तियों को अनसुना करते हुए वहां इस तेल का बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन कब का शुरू हो चुका है।

भारी उलटफेर : अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की भविष्यवाणियां यदि सही साबित होती हैं, तो उनसे न केवल वैश्विक ऊर्जा परिदृश्य ही बदलेगा, भू-राजनीतिक समीकरणों में भी भारी उलटफेर होंगे। अमेरिका के एक परम मित्र जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा बीएनडी ने अमेरिका की ऊर्जा आत्मनिर्भरता के सामरिक एवं सुरक्षा प्रभावों का विश्लेषण किया और इस नतीजे पर पहुंची कि इस आत्मनिर्भरता से 'अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी प्रश्नों पर निर्णय लेने की वाशिंगटन की स्वतंत्रता बेहद बढ़ जाएगी। दूसरी ओर 'ईरान जैसे देशों की धौंस-धमकी देकर' अपनी बात मनवाने की क्षमता घटेगी।

अरबी तेल की अमेरिका को ज़रूरत नहीं रह जाने से हो सकता है कि वह अपने उन सैनिकों और नौसैनिक बेड़ों को हटा ले, जो फ़ारस की खाड़ी जैसे प्रमुख तेल-मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। जर्मनी जैसे यूरोपीय देश भी मध्यपूर्व के तेल पर अपनी निर्भरता को कम करने की सोचेंगे।

उन्हें भी और भारत एवं चीन जैसे तेल के प्यासे दूसरे बड़े देशों को भी देखना होगा कि मध्यपूर्व के प्रति अमेरिकी रुचि घट जाने पर वे अपने तेल की आवक को कैसे सुनिश्चित करेंगे। एक आशंका यह भी है कि नई महाशक्ति चीन अमेरिका की जगह लेने और मध्यपूर्व के देशों पर डोरे डालने की उधेड़बुन कर सकता है, जो कि भारत के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता।

ईँधन की प्रचुरता पर संदेह : जर्मनी हालांकि स्वयं भी पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का सदस्य है, ऊर्जा विशेषज्ञों की जर्मनी स्थित एक अंतरराष्ट्रीय संस्था 'एनर्जी वॉच ग्रुप (EWG)' अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की भविष्यवाणियों से सहमत नहीं है। यह संस्था अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और सांसदों का एक आपसी नेटवर्क है।

बर्लिन में प्रस्तुत उसके नवीनतम अध्ययन के मुख्य लेखक वेर्नर त्सिटल ने कहा कि तथ्य यह है कि जीवाश्म एवं परमाणु ईंधन की वैश्विक आपूर्ति में गिरावट चिंताजनक आयाम ले रही है। कच्चे तेल का हाल तो और भी नाज़ुक है।
ईडब्ल्यूजी के अध्ययन में कहा गया है कि कच्चे तेल का विश्वव्यापी उत्पादन 2005 में ही अपने शिखर पर पहुंच गया था और तब से लगभग उसी स्तर पर बना हुआ है।

पारंपरिक कच्चे तेल (ज़मीनी और समुद्री कुओं के तेल) के उत्पादन में तो बल्कि 2008 से ही गिरावट आ रही है। ज़मीन पर या समुद्र में मिले तेल के नए भंडार अधिकतर या तो बहुत बड़े नहीं हैं या फिर उनका तेल घटिया क़िस्म का है। इस संस्था का अनुमान है कि 2020 तक हर प्रकार के जीवाश्म ईंधन (यानी तेल, गैस और कोयले) का उत्पादन अपने चरम शिखर पहुंच चुका होगा, उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हो पायेगी।

इस सब को देखते हुए अगले पांच वर्षों में ही कच्चे तेल का भाव 20 से 25 प्रतिशत और बढ़ जाएगा। यह बात अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के विशेषज्ञ भी मानते हैं कि जीवाश्म ईंधन के अब तक प्रचलित स्रोतों से होने वाला उत्पादन कुल मिलाकर घट रहा है, लेकिन साथ ही उनका यह भी मानना है कि तेल और गैसधारी चट्टानों तथा तेल-सनी रेत जैसे नए, अपारंपरिक स्रोतों से उत्तरी अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि देशों में जो तेल मिलेगा, वह पारंपरिक स्रोतों की भरपाई से भी कहीं अधिक होगा।

तेल और गैस सस्ते नहीं होंगे : दूसरी ओर यूरोपीय ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि यदि यह भरपाई हो भी जाती है, तब भी इसका यह मतलब नहीं है कि तेल और गैस के भावों में कोई गिरावट एगी। उनका तर्क है कि अपारंपरिक, यानी चट्टानी तेल और गैस का दोहन इतना मंहगा है कि उत्पादकों के लिए वह तभी तक लाभकारी कहला सकता है, जब तक तेल और गैस की क़ीमतें कम से कम उस स्तर पर तो बनी ही रहें, जिस, स्तर पर वे आजकल हैं।

इस समय स्थिति यह है कि उदाहरण के लिए, अमेरिका के 'लाइट स्वीट क्रूड' का प्रति बैरल (150 लीटर) बाज़ार-भाव लगभग 97 डॉलर है, जबकि उससे बेहतर क्वालिटी के नॉर्वे वाले उत्तरी सागर के "ब्रेन्ट क्रूड" का लगभग 118 डॉलर है। सऊदी अरब अपना तेल क़रीब 100 डॉलर प्रति बैरल के भाव से बेचता है। कच्चे तेल के ये तीनों मुख्य प्रकार पारंपरिक दोहन विधि से, यानी तेल के अब तक के ज़मीनी या समुद्री कुओं से निकाले जाते हैं, जो पथरीली चट्टानों को तोड़ने की अपारंपरिक 'फ्रैकिंग' तकनीक की अपेक्षा कहीं सस्ती है।

औद्योगिक परामर्शदता 'कैम्ब्रिज एनर्जी रिसर्च एसोशिएट्स' ने, उदाहरण के लिए, तेल-सनी रेत से तेल प्राप्त करने के ख़र्च का हिसाब लगाया और पाया कि यह ख़र्च क़रीब 85 डॉलर प्रति बैरल बैठता है, जबकि सऊदी अरब के तेल-कुओं से तेल निकालने की लागत केवल 20 डॉलर प्रति बैरल बैठती है।

अतः बात साफ़ है कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की भविष्यवाणी यदि सही सिद्ध भी होती है और तेल के अभाव के बाद अब शीघ्र ही तेल की प्रचुरता का दौर आता है, तब भी भारत के लिए राहत की कोई गुंजाइश नहीं दिखती। इसलिए नहीं, क्योंकि जिस अपारंपरिक विधि से यह प्रचुरता आएगी, वह इतनी ख़र्चीली है कि तेल का बाज़ार भाव गिरने की बजाय और चढ़ेगा ही।

आगे पढ़ें, भारत के लिए यूरेनियम का अकाल...


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यूरेनियम का भी अकाल : भारत की चिंता बढ़ाने वाली एक और ख़बर है। विदेशी तेल और गैस पर अपनी निर्भरता घटाने के लिए वह जिस परमाणु ऊर्जा के विस्तार पर बल देने जा रहा है, उसके लिए यूरेनियम ईंधन का अकाल पड़ने वाला है।

भारत अपने यहां 7 नए परमाणु बिजलीघर बनाने जा रहा है। इस महत्वाकांक्षा में दुनिया में केवल चीन और रूस ही उससे आगे हैं। चीन 26 और रूस 10 नए परमाणु बिजलीघर बनाने की सोच रहा है। पर, दोनों ऐसे देश हैं, जिनके पास यूरेनियम के अपने भंडार हैं। भारत इस मामले में ठनठन गोपाल है। वह विदेशी यूरेनियम के आयात पर उतना ही निर्भर है, जितना इस समय तेल के आयात पर निर्भर है।

1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद से यूरेनियम और परमाणु तकनीक निर्यातक देशों के क्लब ने भारत को यूरेनियम बेचने पर रोक लगा रखी थी। एड़ी-चोटी का पसीना एक कर अमेरिका की मदद से कुछ ही साल पहले भारत इस प्रतिबंध को उठवाने में सफल रहा है, लेकिन अब स्थिति यह होने वाली है कि संसार में यूरेनियम के भंडार कुछ ही वर्षों में चुकता होने जा रहे हैं।

जर्मनी स्थित "एनर्जी वॉच ग्रुप" का अपने नवीनतम अध्ययन में कहना है कि यूरेनियम की विश्वव्यापी उपलब्धता 1980 में ही अपने शिखर को छू चुकी थी।

परमाणु बिजलीघर होगे समय से पहले बंद : सन् 2000 में यूरेनियम का उत्पादन हल्का-सा बढ़ा था, लेकिन तब से उसके शायद ही कोई नए भंडार मिले हैं और यदि मिले हैं तो घटिया क़िस्म के हैं। इसलिए, यूरेनियम के वर्तमान स्रोतों से दुनिया के इस समय के 436 परमाणु बिजलीघरों को केवल कुछ और वर्षों तक ही यूरेनियम मिल पाएगा।

'एनर्जी वॉच ग्रुप' के अनुसार, "नए बन रहे परमाणु बिजलीघरों के 40 साल के पूरे कार्यकाल के लिए यूरेनियम की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं कही जा सकती।" परमाणु बिजलीघरों की आयु अधिकतर 40 साल ही होती है। जो परमाणु बिजलीघर अतीत में बन चुके हैं, वे 40 के होते-होते इतने बूढ़े हो जाएगे कि उन्हें बंद कर देना पड़ेगा।

भारत के ऩए परमाणु बिजलीघरों को इस आयु से कहीं पहले ही बंद कर देना पड़ सकता है, क्योंकि उनके रिएक्टरों में होने वाली परमाणु विखंडन की क्रिया के लिए यूरेनियम ही नहीं मिल पाएगा। भारत के सामने तेल-संकट पहले से ही है, अब यूरेनियम-संकट के बादल भी घिरने जा रहे हैं।