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Written By WD

भगवान विमलनाथ निर्वाण महोत्सव

- राजश्री

भगवान विमलनाथ निर्वाण महोत्सव
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भारत भर में जैन धर्म का बहुत महत्व हैं। आषाढ़ कृष्ण सप्तमी को विमलनाथ निर्वाण महोत्सव मनाया जाता है।

जैन धर्म के तेरहवें तीर्थंकर भगवान श्री विमलनाथजी का जन्म कम्पिलाजी में इक्ष्वाकु वंश के राजा कृतवर्म की पत्नी माता श्यामा देवी के गर्भ से माघ शुक्ल तृतीया को उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में हुआ था। विमलनाथजी के शरीर का रंग सुवर्ण था और इनका चिह्न शूकर है।

भगवान विमलनाथ के चरणों में शूकर का प्रतीक पाया जाता है। शूकर प्राय: मलिनता का प्रतीक माना जाता है। ऐसे मलिन वृत्ति वाला पशु जब विमलनाथ भगवान के चरणों में आश्रय लेता है तो वह शुकर 'वराह' कहलाने लगता है। कहा जाता है कि एक समय ऐसा आता है जब भगवान विष्णु भी वराह का रूप धारण कर दुष्ट राक्षसों का संहार करने लगते हैं। यह प्रभु का रूप स्वयं विष्णु धारण करते हैं। शुकर के जीवन से हमें दृढ़ता एवं सहिष्णुता का गुण अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

इनके यक्ष का नाम षण्मुख था जबकि यक्षिणी का नाम विदिता देवी था।

भगवान श्री विमलनाथजी को कम्पिलाजी में माघ शुक्ल चतुर्थी को दीक्षा की प्राप्ति हुई थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर खाकर उन्होंने प्रथम पारणा किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात 2 महीने तक कठोर तप करने के बाद कम्पिलाजी में ही जम्बू वृक्ष के नीचे उन्हे कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई।

जैन धर्म बंधुओं के अनुसार इनके कुल गणधरों की संख्या 57 थी, जिनमें मंदर स्वामी इनके प्रथम गणधर माने जाते है। मन्दर नामक मुनि उनके ज्येष्ठ शिष्य और प्रमुख गणधर थे। उनके अतिरिक्त चौपन गणधर और भी थे। धर्म-परिवार मे 68 हजार साधु, एक लाख आठ सौ साध्वियां, दो लाख आठ हजार श्रावक एवं 4 लाख, चौबीस हजार श्राविकाएं थी।

जैन धर्म के सबसे बड़े तीर्थ क्षेत्र सम्मेद शिखर पर्वत (शिखरजी) पर भगवान श्री विमलनाथजी ने आषाढ़ कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को निर्वाण को प्राप्त किया था।