यूं तो तालिबान के कब्जे के बाद अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर सवाल उठने लगे थे, लेकिन अब अमेरिकी सेना की वहां से रवानगी के बाद ये सवाल और गहरा गए हैं कि आखिर अफगानिस्तान और वहां के वाशिंदों का अब क्या होगा? क्या महिलाएं सुरक्षति रहेंगी? क्या उन्हें शिक्षा के अवसर मिलेंगे? या फिर वे लोग जिन्होंने विदेशी सेनाओं की मदद की थी उनका हश्र क्या होगा?
ऐसे और ही और भी कई सवाल हैं, जो तालिबान की वापसी के बाद लोगों के मन में कौंध रहे हैं। जहां तक महिलाओं की बात है तो वहां पहले भी उनकी स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी, लेकिन तालिबान के बाद उनकी स्थिति और ज्यादा खराब होने की आशंका जताई जा रही है।
द कन्वरसेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण ने एक बार फिर निसंदेह महिलाओं के जीवन को खतरे में डाल दिया है और नए तरीकों से उनके मानवाधिकारियों को दबाने की तैयारी की जा रही है, लेकिन हम सब जानते हैं कि अफगानिस्तान की महिलाओं का जीवन काफी पहले से ही चुनौतीपूर्ण रहा है।
हिंसा कड़वी सच्चाई : कई अफगान महिलाओं के लिए हिंसा बहुत लंबे समय से एक कड़वी सच्चाई रही है। यूएसएआईडी के जनसांख्यिकी एवं स्वास्थ्य कार्यक्रम के 2015 के सर्वेक्षण के अनुसार, देश के कुछ इलाकों में 90 प्रतिशत महिलाओं ने अपने पति के द्वारा की गई हिंसा का सामना किया है। जो महिलाएं अपने जालिम पतियों और परिवारों को छोड़ने में कामयाब हुईं, उन्हें भी अक्सर उन लोगों से और अधिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिन्हें हम भरोसेमंद समझ सकते हैं, जिनमें पुलिस, डॉक्टर और सरकारी अधिकारी शामिल हैं।
तालिबान के नियंत्रण से पहले अफगानिस्तान में महिलाओं के लिये सुरक्षित गृह मौजूद थे। इनमें से अधिकतर गृह काबुल में थे। इन आश्रयों को पहले से ही अफगान समाज में कई लोग शर्मनाक और अनैतिक मानते थे। अपना सब कुछ छोड़कर सुरक्षित गृह में रहने वाली महिलाओं के लिए बाहर निकलना खतरनाक होता था। उन्हें डॉक्टर के पास जाने तक के लिए अंगरक्षक की जरूरत पड़ती थी।
क्या कहते हैं 5 साल के अनुभव : यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की जेनेविएन मैलने के अनुसार, वैश्विक स्वास्थ्य शोधकर्ता के तौर पर मैंने बीते 5 साल अफगानिस्तान में बिताए। इस दौरान मैंने देश में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के अनुभवों को दर्ज किया। हमने देशभर में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य के बारे में, 200 से अधिक महिलाओं और पुरुषों से बात की। मैंने दुनिया में जहां भी काम किया, उनमें अफगानिस्तान में काम करना सबसे चुनौतीपूर्ण लगा। यह राजनीतिक और जातीय रूप से काफी जटिल देश है।
दूसरे देशों में हिंसा से बचकर भागी महिलाओं को सरकारी संस्थानों द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है, लेकिन मेरे हिसाब से अफगानिस्तान में ऐसा नहीं होता। हमें कई बार अपना शोध रोकना पड़ा क्योंकि हिंसा के बाद बची महिलाओं के लिए स्थिति बहुत खतरनाक थी और हमें डर था कि हम जिन महिलाओं की मदद करना चाह रहे हैं, कहीं उनकी जान कहीं और ज्यादा खतरे में न पड़ जाए।
बेहद जटिल काम : अफगानिस्तान में महिलाओं की हिंसा से जुड़ी कहानियां सुनना और उनका विश्लेषण करना मेरे लिए बेहद जटिल काम था। दुनिया में कहीं भी हिंसा की ऐसी दास्तानें सुनने को नहीं मिलतीं। वे बहुत बर्बर होते हैं और हमेशा हर बात के लिए महिलाओं को दोष दिया जाता है। अधिकतर महिलाओं के लिए अपने पतियों के साथ रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। अगर वे मदद मांगना चाहें भी तो उन्हें पीटा जाता है और दुर्व्यवहार किया जाता हैं। सास समेत परिवार की अन्य महिलाएं भी अकसर हिंसा में शामिल रहती हैं।
महिलाएं उनकी दास्तानें सुनाने का मौका देने के लिए हमारी शोध टीम की शुक्रगुजार रहतीं। वे कहतीं कि इस तरह हमारी बात सुनने के लिए कोई नहीं आता था। जिन महिलाओं से हमने बात की, उन्होंने अपने और पुरुषों के बीच असमानता की दर्दभरी कहानियों से रूबरू कराया।
पुरुष भी जानते हैं, लेकिन... : जिन पुरुषों से हमने बात की, वे भी पुरुषों और महिलाओं के बीच की असमानताओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं। लेकिन वे अक्सर मानते हैं कि महिलाओं को पुरुषों के संरक्षण और मार्गदर्शन में रहना चाहिए। कुछ पुरुषों ने हिंसा के सहारे महिलाओं को सबक सिखाने की बात को जायज ठहराया।
उनका मानना था कि ऐसा करने से महिलाएं सुरक्षित रहती हैं और यह सुनिश्चित होता है कि वे उनका (या उनके परिवार का) अपमान न करें। हालांकि सभी पुरुष इससे इत्तेफाक नहीं रखते। कई पुरुषों ने किसी भी कारण महिलाओं के खिलाफ हिंसा के इस्तेमाल को गलत बताया। सभी देशों में लैंगिक असमानता बहस का विषय है। लोग अपने अपने हिसाब से इस पर तर्क-वितर्क करते हैं।
देश में पिछले चार दशक से जारी सशस्त्र संघर्ष ने अफगानिस्तान में महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन में असमानता के कई घाव दिए हैं। अमेरिकी अतिक्रमण के दौरान, एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वाच ने मुजाहिदीन, कबीलों के कट्टरपंथी मुखिया आदि की भूमिका रेखांकित की थी जो खुद ही युद्ध अपराधी होते हैं और यौन उत्पीड़न करते हैं। अफगानिस्तान सरकार के दौरान ये लोग ही मंत्री, गवर्नर और संसद के सदस्य बन गए।
कभी खत्म नहीं होने वाली पीड़ा : युद्ध ने महिलाओं को गई घाव दिए। वे बताती हैं कि उनके पिता और भाई या तो युद्ध में मारे गए या उनका किस हद तक शोषण किया गया। उन्हें न चाहते हुए भी हिंसक या क्रूर स्वभाव वाले व्यक्ति से विवाह करना पड़ा क्योंकि उनकी देखरेख करने वाला कोई नहीं था। जो भी हुआ, उससे महिलाओं पर शारीरिक तथा मानसिक रूप से गहरा असर पड़ा। गरीबी, कम उम्र में विवाह, नशे के कारोबार में धकेला जाना, घरेलू हिंसा, यह पीड़ा उनके लिए कभी खत्म नहीं होने वाली है।
नए शासन के दौरान नए सिरे से उनके अधिकारों को खत्म करने की कवायद जारी है और वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। फिर भी अफगानिस्तान की महिलाएं और कुछ हद तक पुरुष पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव को खत्म होते देखना चाहती हैं, लेकिन उम्मीद की किरण उन्हें धुंधली ही दिखाई देती है।