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Written By Author राम यादव

भविष्य की ऊर्जा के लिए Nuclear Fusion में मिली बड़ी सफलता

भविष्य की ऊर्जा के लिए Nuclear Fusion में मिली बड़ी सफलता - Nuclear Fusion Break Through
अगस्त 1945 में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा कर दुनिया को दिखाया कि परमाणु विखंडन कितना विध्वंसकारी हो सकता है। दिसंबर 2022 में उसके वैज्ञानिक दिखा रहे हैं कि परमाणु संलयन (Nuclear Fusion) भावी ऊर्जा का कितना बड़ा सृजनकारी स्रोत बन सकता है।
 
परमाणु संलयन से, यानी दो परमणुओं के नाभिकों के मिलकर एकाकार होने से, रेडियोधर्मी अपशिष्ट और परमाणु दुर्घटना का खतरा नहीं होता। इस कारण से भी परमाणु संलयन को भविष्य का संभावित ऊर्जा स्रोत माना जाता रहा है। सबसे बड़ी समस्या किंतु यह रही है कि अब तक के प्रयोगों और प्रयासों में दो परमाणुओं के संलयन के लिए जितनी ऊर्जा ख़र्च करनी पड़ती थी, उनके संलयन से उतनी ऊर्जा बन नहीं पाती थी। अमेरिकी ऊर्जा विभाग का कहना है कि वहां की एक शोध टीम को इस काम में अब एक ऐतिहासिक सफलता मिल गई है।
 
वॉशिंगटन में अमेरिकी ऊर्जा मंत्री जेनिफर ग्रैनहोम ने मीडिया को बताया कि परमाणु नाभिकों के संलयन से, पहली बार, खपत की तुलना में अधिक ऊर्जा उत्पादित की जा सकी है। उन्होंने इसे '21वीं सदी की सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिक उपलब्धियों में से एक' बताया। यह सफलता कैलिफोर्निया में 'लॉरेंस लिवरमोर नैशनल लैबोरेटरी' में वहां की 'नैशनल इग्निशन फैसिलिटी (NIF)' के वैज्ञानिकों की टीम ने प्राप्त की है।
 
सूर्य में भी परमाणु संलयन होता है : सूर्य में भी यही होता है। उसके भीतर अकल्पनीय ऊंचे तापमान पर परमाणु विखंडन और परमाणु संलयन की दोनों प्रक्रियाएं चलती रहती हैं। हमारी पृथ्वी पर भारत सहित विभिन्न देशों में जो अनेक परमाणु बिजलीघर हैं, वे परमाणु विखंडन वाले सिद्धांत के आधार पर काम करते हैं। परमाणु विखंडन वाली तकनीक में परमाणुओं के नाभिक अपने संघटक कणों में विभाजित हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रेडियोधर्मी विकरण (रेडिएशन) और कई अपशिष्ट पदार्थ पैदा होते हैं। 
 
परमाणु संलयन में, अत्यंत शक्तिशाली लेज़र किरणों की मदद से, छोटे परमाणुओं के नाभिकों को अत्यधिक तापमान पर आपस में जोड़ा जाता है। परमाणु ऊर्जा की संलयन तकनीक के समर्थकों का कहना है कि भविष्य में यही तकनीक आज के परमाणु रिएक्टरों का विकल्प बनेगी। तब ऊर्जा के लिए कोयले, गैस और तेल जैसे जीवाश्म इंधनों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा या बहुत घटेगा। पृथ्वी पर तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम करने में भी भारी सहायता मिलेगी। परमाणु विखंडन पर आधारित संयंत्रों के विपरीत परमाणु संलयन पर आधारित संयंत्रों में किसी दुर्घटना की संभावना भी नहीं होगी।
 
'इनर्शियल फ्यूज़न' (जड़त्वीय संलयन) विधि : अपने प्रयोगों के लिए, कैलिफ़ोर्निया के शोधकर्ताओं ने परमाणु संलयन की तथाकथित 'इनर्शियल फ्यूज़न' (जड़त्वीय संलयन) विधि को अपनाया। इस विधि में हाइड्रोजन के समस्थानिकों (आइसोटोपों) ड्यूटेरियम और ट्रिटियम की एक छोटी-सी मात्रा को प्लाज्मा में बदलने के लिए, उसे सोने की एक बहुत ही छोटी-सी डिबिया में बंद कर, लगभग 6 करोड़ डिग्री सेल्सियस के तापमान तक गरम किया जाता है।
 
इस भयंकर तापमान को पैदा करने के लिए दुनिया की सबसे शक्तिशाली लेजर प्रणाली का उपयोग करते हुए, लेजर किरणों को डिबिया पर संकेद्रित किया जाता है। एक ऐसा समय आता है, जब इस तापमान पर डिबिया में विस्फोट होता है। भीषण तापमान और विस्फोट से पैदा होने वाले दबाव के धक्के से हाइड्रोजन के इन समस्थानिकों के बीच संलयन की क्रिया शुरू हो जाती है। इनके संलयन से हीलियम बनता है, साथ ही अपने द्रव्यमान का एक छोटा-सा हिस्सा वे विकिरण के रूप में खो देते हैं।
 
20 प्रतिशत अधिक ऊर्जा बनी : मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, इस प्रयोग में जितनी ऊर्जा खर्च हुई, उसकी तुलना में 20 प्रतिशत अधिक ऊर्जा उत्पन्न हुई। यह मात्रा अभी इतनी बड़ी नहीं है कि संलयन रिएक्टर बनाने शुरू कर दिए जाएं। पर, इस प्रयोग से पहली बार यह सिद्ध हो गया है कि परमाणु संलयन से खपत की अपेक्षा अधिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।
 
वैसे तो 1950 के दशक से दर्जनों प्रायोगिक संलयन रिएक्टर बनाए गए हैं, लेकिन कोई भी संयंत्र संलयन प्रक्रिया के लिए आवश्यक ऊर्जा से अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने में सफल सिद्ध नहीं हुआ। अमेरिका में मिली इस सफलता के बाद भी, लॉरेंस लिवरमोर नैशनल लैबोरेटरी के प्रमुख, किम बदिल ने स्वीकार किया कि इस तकनीक का औद्योगिक उपयोग होने तक अभी 'दशकों' गुज़र सकते हैं।
 
अब तक के 'टोकामक' रिएक्टर : पुरमाणु संलयन के प्रयासों में अब तक तथाकथित 'टोकामक' रिएक्टरों का उपयोग किया जाता रहा है, जिनमें परमाणु संलयन शुरू होने तक, हाइड्रोजन के समस्थानिकों से बने अति तप्त प्लाज्मा को बहुत ही शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में गर्म किया जाता है। इस समय दक्षिणी फ्रांस के कदाराश में बन रहा दुनिया का सबसे बड़ा बहुराष्ट्रीय रिसर्च रिएक्टर 'इटर'  (इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर ITER) भी एक 'टोकामक' रिएक्टर ही होने हैं, जो 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस तापमान पैदा करेगा।
 
योजना यही है कि 'इटर' 2028 में बन कर तैयार हो जाएगा और 2030 के मध्य से बिजली बनाना शुरू करेगा। 'इटर' कई देशों की एक साझी परियोजना है, जिसमें शुरू से ही भारत भी शामिल है। उसके निर्माण के लिए भारत भी पैसा दे रहा है और निर्माणकार्य के लिए भारत की लार्सन ऐन्ड टूब्रो जैसी कई इंजीनरिंग कंपनियों को भी ठेके भी मिले हैं।
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