• Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. »
  3. नन्ही दुनिया
  4. »
  5. प्रेरक व्यक्तित्व
  6. स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन
Written By WD

स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन

स्वामी विवेकानंद
ND
ND
स्वामी विवेकानंद ने भारत में हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार तथा विदेशों में सनातन सत्यों का प्रचार किया। इस कारण वे प्राच्य एवं पाश्चात्य देशों में सर्वत्र समान रूप से श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पहुथा।

मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्‍या में गंगाजी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अत: जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं।

स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिससे उनका कुल धन्य हो जाए। उन दिनों उनके मन-प्राण पर त्यागीश्वर शिव ही अधिकार जमाए हुए थे, अत: उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपने रिश्ते की एक महिला से वहाँ के वीरेश्वर शिव के मंदिर में विशेष पूजा चढ़ाका आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। एक रात उन्होंने स्वप्न में महादेव जी को ध्यान करते देखा, फिर उन्होंने नेत्र खोले और उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया। नींद खुलने के बाद उनके आनंद की सीमा न रही थी।

माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिवजी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परंतु परिवार में उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्त था और संक्षेप में उन्हें नरेंद्र तथा दुलार में नरेन कहकर संबोधित किया जाता था।

ND
ND
कलकत्ते के जिस दत्त वंश में नरेंद्र नाथ का जन्म हुआ था, वह अपनी समृद्धि, सहृदयता, पांडित्य एवं स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए सुविख्यात था। उनके दादा श्री दुर्गाचरण ने अपने प्रथम पुत्र का मुख देखने के बाद ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से गृह त्याग कर दिया था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे। उन्होंने अँगरेजी तथा फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उनके मतानुसार बाइबिल तथा हाफिज के काव्य में जगत के सर्वश्रेष्ठ विचार निहित हैं। वे बहुधा उक्त दोनों ग्रंथों के उद्धरण दुहरा कर अपना एवं मित्रों का मनोरंजन करते थे। उत्तर भारत के शिक्षित मुस्लिम समुदाय के साथ घनिष्ठ संपर्क में आने के फलस्वरूप उन्हें इस्लामी संस्कृति का अच्छा ज्ञान था।

वकालती के व्यवसाय में उन्हें अच्‍छी खासी आय हो जाती थी और वे अपने पिता के स्वभाव के विपरीत सांसारिक जीवन का खूब आनंद लेते थे। वे पाकविद्या में भी निपुण थे तथा उत्तम व्यंजन बनाकर मित्रों के साथ उपभोग करते थे। भ्रमण उनका एक अन्य शौक था। धर्म के मामले में वे अज्ञेयवादी थे और सामाजिक रीतिरिवाजों के प्रति उपहास का भाव रखने के बावजूद उनका हृदय विशाल था। यहाँ तक कि वे अपने कुछ निर्धन आलसी संबंधियों को अपने घर में रखकर उनकी देखभाल किया करते थे। इन संबंधियों में से किसी-किसी को नशे की लत भी थी। उनकी इस विचारशक्ति के अभाव पर नरेंद्र ने एक दिन विरोध प्रकट किया। इस पर वे बोले - 'मानव जीवन के महान दुख-दर्द को भला तुम कैसे समझोगे? जब तुम मानवीय पीड़ा का गहराई से अनुभव करोगे, तो मादक द्रव्यों की सहायता से अपने दुखों को क्षण भर के लिए भूलने का प्रयास करने वाले इन अभागे प्राणियों के प्रति तुम्हारे मन में सहानुभूति ही जागेगी।' नरेंद्र के पिता अपनी संतानों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखते थे, और सन्मार्ग से उनका थोड़ा भी विचलन सहन न कर पाते थे।

उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक अलग ही साँचे में ढली थीं। वे देखने में गंभीर और आचरण में उदार थीं तथा प्राचीन हिन्दू परंपरा का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक भरे पूरे परिवार की मा‍लकिन थीं और अपने अवकाश का समय सिलाई एवं भजन गाने में बिताती थीं। रामायण एवं महाभारत में उनकी विशेष रुचि थी तथा इन ग्रंथों के अनेक अंश उन्हें कंठस्थ भी थे।

निर्धनों के लिए वे आश्रय थीं। अपनी ईश्वर भक्ति, आंतरिक शांति तथा अपनी व्यस्तता के बीच तीव्र अनासक्ति के फलस्वरूप वे सबके सम्मान की अधिकारिणी हुई थीं। नरेंद्रनाथ के अतिरिक्त उन्हें और भी दो पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हुईं, परंतु उनमें से दो पुत्रियाँ अल्प आयु में ही चल बसी थीं।

नरेंद्र एक मधुर, प्रफुल्ल एवं चंचल बालक के रूप में बड़ा होने लगा। उसकी अदम्य शक्ति को वश में लाने के लिऐ दो नौकरानियों की आवश्यकता होती थी। वह अपनी बहनों को भी चिढ़ा-चिढ़ाकर परेशान किए रहता था। उसे शांत करने का अन्य कोई उपाय न देख, उसकी माँ 'शिव' शिव' कहते हुए उसके सिर पर जल डालने लगती थीइससबाशांजातथाबच्चोपशु-पक्षियोके प्रति स्वाभाविप्रेहोतनरेंद्र भी इसका कोअपवाद न थापशु-पक्षियों के प्रति उसका यह गहरा लगाव उसके जीवन कअंतिपर्व मेपुन: व्यक्त हउठथाबचपमेउसकदुलारपशु-पक्षी थे। एक गाय, एक बंदर, एक बकरी, एक मोर, कुछ कबूतर तथा एक गिनपिग।

पगड़ी़, कोड़े तथा भड़कील पोशाक में सजे अपने परिवार के साईस का व्यक्तित्व उसे बड़ा लुभावना लगता था। वह प्राय: बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता था। नरेंद्र का उसके संसार त्यागकर संन्यासी हो जाने वाले पितामह से काफी साम्य दिख पड़ता था और इस कारण कइयों का विचार था कि उन्होंने ही नरेन के रूप में पुनर्जन्म लिया है। भ्रमण करने वाले संन्यासियों में बालक की बड़ी रुचि थी और उन्हें देखते ही वह उत्साहित हो उठता।

एक दिन एक ऐसे परिव्राजक संन्यासी उसके द्वार पर आकर भिक्षा माँगने लगे। नरेंद्र ने उनको अपनी एकमात्र वस्तु-कमर से लिपटा हुआ एक छोटा से नया वस्त्र दे दिया। तब से जब कभी आस-पड़ोस में कोई संन्यासी दिख जाते तो नरेंद्र को एक कमरे में बंद कर दिया जाता। तथापि जो कुछ भी हाथ में आता, वह खिड़की के रास्ते उनकी ओर डाल देता। इन्हीं दिनों माँ के हाथों में उसकी प्रारंभिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार उसने बंगला की वर्णमाला, कुछ अँगरेजी शब्द तथा रामायण एवं महाभारत की कथाएँ सीखीं।

क्रमश: