मंगलवार, 5 नवंबर 2024
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आचार्य महाश्रमण के 57वें जन्म दिवस पर विशेष

आचार्य महाश्रमण के 57वें जन्म दिवस पर विशेष। Acharya Mahashraman - Acharya Mahashraman
* आचार्य महाश्रमण : धरती पर थिरकता अध्यात्म का जादू
 
आचार्य महाश्रमण एक ऐसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार है, जिस परंपरा को महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने अतीत में आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा धुंधली होने लगी, इस धुंधली होती परंपरा को आचार्य महाश्रमण एक नई दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। यह नई दृष्टि एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कही जा सकती है। 
 
वे आध्यात्मिक इन्द्रधनुष की एक अनूठी एवं सतरंगी तस्वीर हैं। उन्हें हम ऐसे बरगद के रूप में देखते हैं जो सम्पूर्ण मानवता को शीतलता एवं मानवीयता का अहसास कराता है। इस तरह अपनी छवि के सूत्रपात का आधार आचार्य महाश्रमण ने जहां अतीत की यादों को बनाया, वहीं उनका वर्तमान का पुरुषार्थ और भविष्य के सपने भी इसमें योगभूत बन रहे हैं। विशेषतः उनकी विनम्रता और समर्पणभाव उनकी आध्यात्मिकता को ऊंचाई प्रदत्त रह रहे हैं। भगवान राम के प्रति हनुमान की जैसी भक्ति और समर्पण रहा है, वैसा ही समर्पण आचार्य महाश्रमण का अपने गुरु आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रहा है।

 
आचार्य महाश्रमण जन्म से महाश्रमणता लेकर नहीं आए थे, महाश्रमण कोई नाम नहीं है, यह विशेषण है, उपाधि और अलंकरण है। गुरुदेव तुलसी ने इसे नामकरण बना दिया और आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे महिमामंडित कर दिया, क्योंकि उपाधियां भी ऐसे ही महान पुरुषों को ढूंढ़ती हैं जिनसे जुड़कर वे स्वयं सार्थक बनती हैं। महाश्रमण निरुपाधिक व्यक्तित्व का परिचायक बन गया और इस वैशिष्ट्य का राज है उनका प्रबल पुरुषार्थ, उनका समर्पण, अटल संकल्प, अखंड विश्वास और ध्येय निष्ठा। एमर्सन ने सटीक कहा है कि जब प्रकृति को कोई महान कार्य सम्पन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमण भी किसी महान कार्य की निष्पत्ति के लिए ही बने हैं।

 
आचार्य महाश्रमण के जीवन के विविध आयाम हैं। लेकिन सबसे बड़ा आयाम है उनका समर्पण भाव। वे श्रद्धा और समर्पण की अंगुली पकड़कर गुरु की पहरेदारी में कदम-दर-कदम यूं चले कि जमीं पर रखा हर कदम पदचिह्न बन गया। सरस्वती के ज्ञान मंदिर में ऐसा महायज्ञ शुरू किया कि आराधना स्वयं ऋचाएं बन गईं। संतता क्या जागी मानो अतीन्द्रिय ज्ञान पैदा हो गया। आत्मविश्वास के ऊंचे शिखर पर खड़े होकर वे सभी खतरों को चुनौती दे रहे हैं। न उनसे डरे, न उनके सामने कभी झुके और न ही उनसे पलायन किया। इसीलिए हर असंभव कार्य आपकी शुरुआत के साथ संभव होता चला गया। तेरापंथ धर्मसंघ के विकास के खुलते क्षितिज इसके प्रमाण हैं। आपने कभी स्वयं में कार्यक्षमता का अभाव नहीं देखा। क्यों, कैसे, कब, कहां जैसे प्रश्न कभी सामने आए ही नहीं। हर प्रयत्न परिणाम बन जाता कार्य की पूर्णता का। इसीलिए जीवन वृत्त कहता है कि गुरु तुलसी और गुरु महाप्रज्ञ संकल्प देते गए और शिष्य महाश्रमण उन्हें साधना में ढालते चले गए।

 
आचार्य महाश्रमण का बारह वर्ष के मुनि के रूप में लाडनूं में मेरा प्रथम साक्षात्कार मेरे बचपन की एक विलक्षण और यादगार घटना रही है। लेकिन उसके साढे़ चार दशक बाद उनके गहन विचारों से मेरा परिचय और भी विलक्षण घटना है क्योंकि उनके विचारों से मेरी मन-वीणा के तार झंकृत हुए। जीवन के छोटे-छोटे मसलों पर जब वे अपनी पारदर्शी नजर की रोशनी डालते हैं तो यूं लगता है जैसे कुहासे से भरी हुई राह पर सूरज की किरणें फैल गई। मन की बदलियां दूर हो जाती हैं और निरभ्र आकाश उदित हो गया है।

 
आपने कभी देखा होगा ऊपर से किसी वादी को। बरसात के दिनों में अकसर वादियां ऐसी दिखाई देती हैं जैसे बादलों से भरा कोई कटोरा हो, और कुछ भी नजर नहीं आता। फिर अचानक कोई बयार चलती है और सारे बादलों को बहा ले जाती है और दृष्टिगत होने लगता है वृक्षों का चमकता हरा रंग। बस ऐसी ही बयार जैसे हैं आचार्य महाश्रमण के शब्द। बादल छंटते हैं और जो जैसा है, वैसा ही दिखाई देने लगता है।
 
मनुष्य का मन एक अद्भुत चीज है। बाहर हम जो कुछ भी देखते हैं, उसका अनुभव हम करते हैं पुरानी स्मृतियों के आधार पर और फिर नया प्रक्षेपण हमारे आने वाले अनुभवों को प्रभावित करने का आधार बनता चला जाता है। जहां ये सारे प्रक्षेपण इकट्ठे होते रहते हैं उसे मनोवैज्ञानिकों ने अचेतन का नाम दिया है। यह अचेतन किस प्रकार हमारी आंखों के सामने चित्र निर्मित करता है और हमें वह सब दिखाता है जो वहां है ही नहीं। मनोवैज्ञानिकों से इसे समझने चलें तो उनकी दुरूह व्याख्याओं के जाल में हम ऐसे फंस जाते हैं कुछ भी समझ में नहीं आता। अचेतन के संबंध में समझने के लिए मैंने आचार्य महाश्रमण को पढ़ना शुरू किया। आचार्य महाश्रमण जिस प्रकार से अचेतन और उसके प्रतिबिम्बों के संबंध में समझाते हैं, बाते गहरे बैठ जाती है।

 
स्वल्प आचार्य शासना में आचार्य महाश्रमण ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों-विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण, भ्रूणहत्या और महंगाई के विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है। 
 
जब उनकी उत्तराध्ययन और श्रीमद्भगवदगीता पर आधारित प्रवचन श्रृंखला सामने आई, उसने आध्यात्मिक जगत में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात किया है। एक जैनाचार्य द्वारा उत्तराध्ययन की भांति सनातन परम्परा के श्रद्धास्पद ग्रंथ गीता की भी अधिकार के साथ सटीक व्याख्या करना न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि प्रेरक भी है। इसीलिए तो आचार्य महाश्रमण मानवता के मसीहा के रूप में जन-जन के बीच लोकप्रिय एवं आदरास्पद है। वे एक ऐसे संत हैं, जिनके लिए पंथ और ग्रंथ का भेद बाधक नहीं बनता। आपके कार्यक्रम, विचार एवं प्रवचन सर्वजनहिताय होते हैं। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय की जनता आपके जीवन-दर्शन एवं व्यक्तित्व से लाभन्वित होती रही है।
 

आचार्य महाश्रमण का देश के सुदूर क्षेत्रों-नेपाल, आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि में अहिंसा यात्रा करना और उसमें अहिंसा पर विशेष जोर दिया जाना प्रासंगिक है, क्योंकि आज सारा संसार हिंसा के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित है। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव- ऐसे कारण हैं जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाश्रमण प्रयत्नशील हैं। इन विविध प्रयत्नों में उनका एक अभिनव उपक्रम है- ‘अहिंसा यात्रा’। आज अहिंसा यात्रा एकमात्र आंदोलन है जो समूची मानव जाति के हित का चिंतन कर रहा है। अहिंसा की योजना को क्रियान्वित करने के लिए ही उन्होंने पदयात्रा के सशक्त माध्यम को चुना है। 
 
‘चरैवेति-चरैवेति चरन् वै मधु विंदति’ उनके जीवन का विशेष सूत्र बन गया है। इस सूत्र को लेकर वे देश के सुदूर प्रांतों एवं पडौड़ी राष्ट्र नेपाल एवं भूटान के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अभिनव एवं सफल उपक्रमों को लेकर पधारे हैं। आचार्य श्री महाश्रमण की इस अहिंसा यात्रा में हजारों नए लोग उनसे परिचित हुए। परिचय के धागों में बंधे लोगों ने अहिंसा दर्शन को समझा, आचार्य महाश्रमण के व्यक्तित्व को परखा और अहिंसा यात्रा को निर्बाध मानकर उसके राही बन रहे हैं।

 
आचार्य महाश्रमण का जिन-जिन प्रांतों में पदार्पण हुआ है वहां चारों ओर सकारात्मकता की नवीन दिशाएं प्रस्फूटित हुई है। जीवन-निर्माण का एक नया दौर शुरू हुआ है, स्वस्थ समाज निर्माण की संरचना का हर दिल और दिमाग में सपना जग रहा है। ऐसे समय में आचार्य महाश्रमणजी के प्रवास से और उनके प्रवचनों-कार्यक्रमों से आध्यात्मिक परिवेश निर्मित होना, न केवल हमारे देश के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए उनका प्रवास एक कीमती तोहफा बना है। चौराहे पर खड़ी पीढ़ियों को सही दिशा और सही मुकाम मिल रहा है।
 
आचार्य महाश्रमण एक विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता हैं पर आम आदमी की उन तक पहुंच हैं। उनके पास जाने के लिए न सिफारिश चाहिए, न परिचय प्रमाण पत्र और न दर्शनों के लिए लंबी पंक्ति में खड़ा होने की जरूरत। न भय, न संकोच, न अपने-पराए का प्रश्न। संतों के दरवाजे सदा खुले रहते हैं। वे सबको सुनते हैं, सबको समाधान देते हैं। इसलिए जो भी इन चरणों में पहुंचता है वह स्वयं में कृतार्थता का अनुभव करने लगता है।

 
आचार्य श्री महाश्रमण के व्यक्तित्व से अहिंसा का जो आलोक फैला उससे देश के जटिल से जटिलतर हो रहे हिंसा का माहौल नियंत्रित हुआ है। अहिंसा यात्रा का यह आलोक जाति, वर्ग, वर्ण, प्रांत, धर्म आदि की सरहदों में सीमित नहीं है। एक व्यापक धर्म क्रांति के रूप में अहिंसा का विस्तार नई संभावनाओं के द्वार खोल रहा है। जहां राष्ट्र की मुख्य धारा से सीधा जुड़कर अहिंसा यात्रा का उपक्रम आज एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में सक्रिय है वहीं दुनिया के अनेक राष्ट्र इस तरह के प्रयत्नों से विश्व में शांति एवं अमन कायम होने की संभावनाओं को आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। अहिंसा में बहुत बड़ी शक्ति छिपी हुई है, जिसे उजागर करने की भरसक चेष्टा आचार्य महाश्रमण ने की। अन्याय का मुकाबला हिंसा से भी किया जा सकता है, मगर उसमें दो खतरे रहते हैं। अन्याय करने वाले की हिंसा से अगर प्रतिकार करने वाले की हिंसा कुछ कम पड़ जाए तो उसकी सारी हिंसा बेकार हो जाती है। 
 
दूसरा खतरा यह है कि इस संघर्ष में एक हिंसा विजयी हो जाए तो भी समस्या समाप्त नहीं होती। पराजित पक्ष प्रतिशोध की भावना की आग उर में संजोए अधिक हिंसा और क्रूरता की तैयारी में लग जाता है। प्रतिशोध और हिंसा का जो सिलसिला इससे शुरू हो जाता है, वह लगातार चलता रहता है। वह कभी टूटता नहीं। हिंसा के इस अभिशाप से छुटकारा पाने के लिए आचार्य महाश्रमण ने अपनी नई और अनोखी अहिंसा का साधन मानव जाति को दिया है। ‘बैर से बैर नहीं मिटता’, बंदूक के बल पर शांति नहीं आती, हिंसा से हिंसा को समाप्त नहीं किया जा सकता-इन बुद्ध वचनों को उन्होंने नया जामा पहनाकर समस्त मानव-जाति को एक तोहफे के रूप में प्रदान किया है। यही उनकी विशेषता है जो संसार के इतिहास में एक नई सामुदायिक रूप में दिखाई दे रही है।

 
आचार्य महाश्रमण जितने दार्शनिक हैं, उतने ही योगी हैं। वे दर्शन की भूमिका पर खड़े होकर अपने समाज और देश की ही नहीं, विश्व की समस्याओं को देखते हैं। जो समस्या को सही कोण से देखता है, वही उसका समाधान खोज पाता है। आचार्यश्री महाश्रमण जब योग की भूमिका पर आरूढ़ होते हैं, तो किसी भी समस्या को असमाहित नहीं छोड़ते।
 
अपनी आवाज की डोर से कोई लाखों-करोड़ों में रूहानी इश्क का जुनून भर दे और यह अहसास दिलवा दे कि यह कायनात उतनी ही नहीं है जितनी हमने देखी है-सितारों से आगे जहां और भी हैं-आज के दौर में तो यह आवाज आचार्य महाश्रमण की ही है। महाश्रमणजी ने बहुत बोला है बोल रहे हैं और पूरी दुनिया ने सुना है और सुन रही है- किसी ने दिल थामकर तो किसी ने आस्थाशील होकर। लेकिन उनकी आवाज सब जगह गूंज रही हैं। पर जितना भी उन्होंने बोला है, मैं समझता हूं कि उसका निचोड़ बस इतना है कि आदमी अपनी असलियत के रूबरू हो जाए। शाम को जब आसमान पर बादल कई-कई रंगों से खिल जाते हैं तो वहां मैं भावों का नृत्य होते देखता हूं, समंदर की लहरों में, वृक्षों में, हवाओं में-भाव, भाव और भाव। आचार्य महाश्रमण को सुनना भी मेरे लिए ऐसा ही है जैसे कि हृदय को कई-कई भंगिमाओं से गुजरने का अवसर देना।
 


मैंने जितने भी लम्हें उनकी पवित्र एवं पावन सन्निधि में बिताए उससे यह सुकून हो गया कि उनकी आवाज गूंजती रहेगी और आने वाली नस्लों तक पहुंचती रहेगी। यह आवाज हमारे वक्त की जरूरत है, आचार्य महाश्रमण हमारे वक्त की जरूरत है।
 
आचार्य श्री महाश्रमण का जीवन इतना महान और महनीय है कि किसी एक लेख, किसी एक ग्रंथ में उसे समेटना मुश्किल है। यों तो आचार्य महाश्रमण की महानता से जुड़े अनेक पक्ष हैं। लेकिन उनमें महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनकी संत चेतना, आंखों में छलकती करुणा, सोच में अहिंसा, दर्शन में अनेकांतवाद, भाषा में कल्याणकारिता, हाथों में पुरुषार्थ और पैरों में लक्ष्य तक पहुंचने की गतिशीलता। आचार्य महाश्रमण जैसे महामानव विरल होते हैं। गुरुनानक देवजी ने ऐसे ही महामानवों के लिए कहा है ऐसे लोग इस संसार में विरले ही हैं जिन्हें परखकर संसार के भंडार में रखा जा सके, जो जाति और वर्ण के अभिमान से ऊपर उठे हुए हों और जिनकी ममता व लोभ समाप्त हो गई है।

 
आचार्य महाश्रमण के निर्माण की बुनियाद भाग्य भरोसे नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, पुरुषार्थी प्रयत्न, समर्पण और तेजस्वी संकल्प से बनी है। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाश्रमण की प्रेरणा है और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना हमारे लिए शुभ एवं श्रेयस्कर है। ऐसे ही संकल्पों से जुड़कर हम महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं। लांगफेलो ने सही लिखा है कि महापुरुषों की जीवनियां हमें याद दिलाती हैं कि हम भी अपना जीवन महान बना सकते हैं और जाते समय अपने पगचिह्न समय की बालू पर छोड़ सकते हैं। यदि हम ऐसा कर पाए तो आचार्य महाश्रमण के 57वें जन्म दिवस पर उनकी वर्धापना में एक स्वर हमारा भी होगा।