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Written By ND

बहुत देर कर दी मेहरबाँ आते-आते

आदिवासी क्षेत्रों में आर्थिक विकास

बहुत देर कर दी मेहरबाँ आते-आते -
-रमेश नैयर
नियोजित विकास में पहली चूक तो यह हुई कि योजनाएँ बनाते समय आदिवासी प्रकृति और शासन-प्रशासन की प्रवृत्ति का सही आकलन नहीं किया गया। यानी गाड़ी शुरुआत में ही पटरी से उतरकर अलग दिशा में अनुपयुक्त मार्ग पर चल पड़ी। परिणाम यह है कि गत पाँच दशकों के कथित योजनाबद्ध विकास के नाम पर बनी योजनाओं का उन क्षेत्रों में क्रियान्वयन न होने से वे आर्थिक प्रगति की गति में पिछड़ते चले गए।

सरकारी अमला और लोभी राजनीति आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए आवंटित राशि
ND
के बड़े भाग पर हाथ साफ करने में तल्लीन रही। इससे आदिवासियों में राजसत्ता और प्रशासन के प्रति अविश्वास का अंकुरण हुआ, जो रफ्ता-रफ्ता असंतोष और फिर आक्रोश में ढलता गया।

विकास में पिछड़े आदिवासी इलाकों तथा शेष भारत में जो आर्थिक असंतुलन उत्पन्न हुआ, उसने उन समूहों को ऐसा उर्वर मैदान दे दिया, जहाँ वे शासन-प्रशासन के प्रति क्रोध के बीज बो सकें। आदिवासी असंतोष के प्रति उदासीन शासन ने बहुत सारा समय गफलत में गुजार दिया। राजवंशों और ब्रिटिश शासन के दौरान भी आदिवासी का शोषण हुआ, जिसके कारण रह-रहकर वह राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह भी करता रहा, परंतु आर्थिक विकास के अभाव के बावजूद आदिवासी का काफी हद तक जल, जंगल और जमीन पर इतना अधिकार तो बना रहा कि वह अपना तथा अपने परिवार का गुजर-बसर कर सके। विकास न होने के पश्चात भी वह अपने संसार में मगन रहता था। मुझे सन्‌ 1955 से 65-70 तक के बस्तर के लोकजीवन की जो छवियाँ याद हैं, उनके आधार पर कुछ विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि तब आदिवासी अपने को वन का स्वामी मानकर चलता था। उसकी थोड़ी-सी आवश्यकताएँ थीं, जो जंगल पूरी कर देता था।

जैसे-जैसे नियोजित विकास के नाम पर शासकीय कर्मियों के अधिकार-क्षेत्र का विस्तार होता गया, आदिवासी का पारंपरिक अधिकार-क्षेत्र सिमटता गया। प्रशासन आदिवासी के प्रति लगभग दायित्व शून्य रहा, क्योंकि वह अपना भला-बुरा सत्ता की राजनीति के रहमोकरम में देखता था। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों में सक्षम, ईमानदार, संवेदनशील और मानवीय दृष्टि से संपन्न अधिकारी-कर्मचारी बहुत कम पदस्थ होते थे, क्योंकि उन दूरस्थ क्षेत्रों में अक्सर पदस्थापनाएँ उन अधिकारियों-कर्मचारियों की होती थीं, जिन्हें दंड देने के ध्येय से वहाँ भेजा जाता था।

उस चरित्र के शासकीय अमले ने ठेकेदारों तथा राजनेताओं का साथ देते हुए आदिवासी क्षेत्रों में जो लूट मचाई, उससे आदिवासी का विकास बुरी तरह प्रभावित हुआ। जंगल का राजा आदिवासी अपने ही वन क्षेत्र में परमुखापेक्षी बनता गया। उसकी धरती, उसके वन, उसकी नदियों पर उसका हक सिमटता गया। स्थितियाँ इस कदर बिगड़ती गईं कि उसकी आबरू पर भी लंपट शासन-प्रशासन हाथ डालने लगा। आदिवासी युवतियों के यौन-शोषण की हजारों रपटें इसकी साक्षी हैं। बाहरी, यानी गैर आदिवासी व्यापारी ने भी आदिवासी की सरलता का निर्लज्ज एवं निर्मम दोहन किया। आजादी के बाद के कथित आर्थिक विकास के दौर की शुरुआत के बाद यह दोहन तेज रफ्तार से चला।

नमक के बदले उतने ही वजन की मूल्यवान चिरौंजी, गोंद और अन्य वनोपज बटोरने की युक्ति तो आम बात मानी जाती थी। आदिवासी के हक को मारने की अमानवीय मानसिकता मर्मांतक तब होने लगी, जब आदिवासियों को भेजा जाने वाला दूध पावडर, खाद्य तेल, औषधियाँ आदि राजधानियों और बड़े नगरों के चोर बाजारों में ही बेची जानी लगीं और फाइलों में उन्हें दूरस्थ आदिवासी इलाकों तक पहुँचाने का परिवहन व्यय भी दिखाया जाने लगा। आदिवासी भोला अवश्य था, परंतु अंधा, बहरा और ज्ञानशून्य नहीं। वह बेबसी के साथ सब देखता-महसूसता रहा। नक्सली उग्रवाद के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज करने और आदिवासी का विश्वास प्राप्त करने के लिए यह वातावरण अत्यंत अनुकूल था।

उग्रवाद ने आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश किया, अपनी शक्ति का विकास किया, अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया और वह जंगल का नया निरंकुश मालिक बन गया। आदिवासी की आर्थिक स्थिति और सामाजिक हैसियत में बहुत अंतर नहीं आया। बस उसके शासक-प्रशासक बदल गए। उसकी वनोपज का विपणन करने वाली एजेंसी बदल गई। विकास न हो पाने के कारण जो उग्रवाद फैला, वह कालांतर में स्वयं विकास विरोधी हो गया। पुल, सड़क, दूरसंचार, संपर्क, बिजली और कल-कारखाने उग्रवाद को रास इसलिए नहीं आते थे कि शेष देश की आमदरफ्त दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों तक बढ़ने का अर्थ था उग्रवाद के वर्चस्व में व्यवधान का आना। जिस रक्तक्रांति के लक्ष्य को लेकर उग्रवाद आदिवासी क्षेत्रों में उफन रहा है, उसमें रेल, बिजली, टेलीफोन, सड़क और स्कूल का पहुँचना खलल डालता है।

विषय को अपनी प्रत्यक्ष जानकारी के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ तक सीमित रखूँ तो अलग राज्य बनने के बाद आदिवासियों के आर्थिक विकास के प्रति राजनीति और प्रशासन में कुछ चेतना आई है। कुछ पहल राज्य की अजीत जोगी सरकार ने की थी। पिछले लगभग 8 वर्षों में राज्य सरकार ने त्वरित और दूरगामी लक्ष्य को सामने रखते हुए कुछ विकास योजनाएँ बनाईं। उनका क्रियान्वयन भी हो रहा है। थोड़े परिणाम भी दिखने लगे हैं।

दूरगामी लाभ के ध्येय से सरकार ने बस्तर तथा सरगुजा आदिवासी प्राधिकरणों की जो स्थापना की है, वह आने वाले वर्षों में ठोस सकारात्मक परिणाम दे सकते हैं, बशर्ते उनके संचालन का दायित्व ईमानदार एवं संवेदनशील राजनीतिज्ञों-प्रशासकों को सौंपा जाए। दुर्भाग्य की बात यह है कि शासन-प्रशासन के गलियारों में अभी तक धमक, लोभी और प्रवंचक नेताओं-अफसरों की सुनाई और दिखाई देती है। जिन योजनाओं को शुरू करने में बहुत देर हो चुकी है, उनको कम से कम दुरुस्त राह पर ले जाने का संकल्प प्रदर्शित करने का समय आ गया है। यदि बेहद देर से आई सुध भी भटक गई, तो हालात लाइलाज हो जाएँगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)