रविवार, 1 दिसंबर 2024
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लघु कहानी : वर्तमान का कूड़ा

लघु कहानी : वर्तमान का कूड़ा - short hindi story
पार्क में हरी मखमली घास पर सुकून से बैठना कितना अच्छा लगता है। दूर से अपने परिवार को अठखेलियां करता, खुश देखना बहुत सुखद लगता है। दूसरों की गतिविधियों को देखना, उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना मनुष्य का प्रिय शगल रहा है।
 


इसी शौक के चलते ध्यान टिक गया एक छोटी-सी बच्ची पर। पार्क में सामने वाले कोने में एक व्यक्ति अपनी छोटी-सी बच्ची की और बार-बार गेंद उछालता और जब वह उसे पकड़कर अपनी खुशी जाहिर करते हुए उसकी तरफ गेंद फेंकती तो वह व्यक्ति उसका वीडियो बनाने लगता।
 
अपने पापा को मोबाइल में वीडियो बनाता देख वह मोबाइल की तरफ झपटती। पापा फिर बॉल उसकी तरफ फेंकते और फिर वही होता। पापा परेशान थे, उसका वीडियो कैसे बनाएं? बिटिया परेशान थी कि पापा उसके साथ खेल का आनंद क्यों नहीं ले रहे हैं?

 
देखा जाए तो हम सबके साथ यही हो रहा है। हम खुशियों के पलों को जीने के स्थान पर उन्हें कैद करने की चिंता में लगे रहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम ये सोचते हैं कि आनंद के, खुशी के पल हमें कम ही मिलेंगे। लेकिन ऐसा है नहीं, भविष्य की चिंताओं में कैद हम लोगों ने वर्तमान में जीना ही छोड़ दिया है।
 
सच पूछा जाए तो खुश कहीं भी हुआ जा सकता है। घर में बैठे, टीवी देखते हुए, बच्चों के साथ चुलबुली हरकत करते हुए। लेकिन समस्या यह है कि कोई खुशी का पल आया नहीं कि और हम दौड़े मोबाइल लेकर। हर पल को फोटो में कैद करने की हड़बड़ी में हम खुशियों के पलों का आनंद लेना भूल रहे हैं। हम भविष्य के लिए इन खुशियों को संजो लेना चाहते हैं कि आगे चलकर बच्चों को दिखाएंगे। पर कौन जानता है कि भविष्य के लिए इनका क्या महत्व होगा? अगली पीढ़ी इन्हें देखकर हमसे ही प्रतिप्रश्न कर बैठी तब क्या होगा? ऐसा क्यों किया? क्या इस तरह नहीं कर सकते थे?

 
ये तो निश्चित है कि आने वाली पीढ़ी इसे कुछ ज्यादा महत्व नहीं देगी। उनको क्यों दोष दें? दो पीढ़ी के बाद तो हम भी पुरखों की फोटो में रुचि नहीं दिखाते। वर्तमान पीढ़ी अतीत के अवशेषों को देखना ही नहीं चाहती, वह सब उन्हें पिद्दी-सा लगता है। लेकिन हम हैं कि दिखाने के लिए तैयार बैठे हैं। सामने वाला बस देख ले और हम गर्व से फूल जाएं।
 
एक सज्जन हैं, जो शादियों में महफिल की जान बने रहते हैं। मौका मिलते ही मजमा जम जाता है। तरह-तरह के किस्से, कभी अपने मामाजी का, तो कभी नानाजी का किस्सा। उनके मामाजी और नानाजी को किसी ने नहीं देखा लेकिन किस्सों को सुनते हुए वे लोग हर व्यक्ति की कल्पना में साकार हो उठते हैं। दृश्य की कल्पना करते हुए लोग हंस-हंसकर लोटपोट हुए जाते हैं। कुछ किस्से गर्व से सुनाए जाते हैं, तो कुछ करुणा से भरे। 
 
अपने दिवंगत पिता की उदारता की कहानी बताते हुए वे बड़े मासूम से लगते हैं, क्योंकि हर कोई जानता है कि उनके यहां से चाय पीकर आना एक बहुत बड़ा अचीवमेंट है। भले ही पिता जी ने जीते-जी कभी किसी आगंतुक को पानी न पूछा हो लेकिन बेटा उन्हें दानवीर कर्ण बनाए देता है। उनके दादाजी जहां भी हों, अपने बारे में ऐसी बातें सुनकर गदगदायमान जरूर होते होंगे और आशीष तो देते ही होंगे? 
 
दो-चार आदर्शवादी बातें जोड़कर, बढा-चढ़ाकर वर्णन करते हुए, अपनी ओर से नमक-मसाला मिलाकर चीजों को अतिवादिता से ओत-प्रोत करते हुए वे सब कुछ परोसकर प्रश्नवाचक नजरों से देखते हैं। कहो, कैसी लगी? और कल्पना कीजिए अगर इन किस्सों का वीडियो देखते तो क्या इतना ही मजेदार लगता?

 
पुरानी कहानियां भले ही रुचि लेकर सुनी जाएं या बेमन से, पर मन-मस्तिष्क में एक छवि तो बनती है। अतीत का किस्सा सुनते हैं तो एक फिल्म बनती है। कल्पना के दादाजी उभर आते हैं, बिलकुल वैसे ही, जैसा हम चाहते हैं। पर सोचिए यदि पुराना कोई वीडियो मौजूद हो और उसमें खडूस टाइप के दादाजी लंगोट संभालकर भागते या किसी को डपटकर भगाते दिखेंगे तो कैसा लगेगा? 
 
ज्यादा हकीकत भी खतरनाक होती है। क्या हुआ था, कैसे हुआ था, इतनी किस्साबयानी की जरूरत बनी रहने दीजिए। अतिरिक्त मसाला मिलाकर कहानी सुनाने का अपना मजा है और अतीत के किरदार काल्पनिक हों तो ज्यादा अच्छे होते हैं। प्रतिभाओं को अंकुराने दीजिए और अतीत का महिमामंडन होने दीजिए, अच्छा लगता है। और हां वर्तमान के कंधे पर हाथ रखकर उसके साथ चलने का आनंद लीजिए। हर वक्त सामने खड़े होकर उसका फोटू खींचकर उसे कूड़ा बनने से बचा लीजिए। 
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