प्रतिवर्ष 8 अप्रैल को विश्व बंजारा दिवस मनाया जाता है। भारत में घुमंतू जातियां, जो कभी भी एक स्थान पर नहीं रहती वे पारथी, सांसी, बंजारा तथा बावरिया आदि मानी जाती हैं। आइए यहां पढ़ें विश्व बंजारा दिवस पर 3 खास कविताएं, पारथी, सांसी, बावरिया आदि जाती को घुमूंत माना जाता है।
सारा जग बंजारा होता
- गोपालदास 'नीरज'
अगर थामता न पथ में उंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आंसू आवारा होता।
निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दु:ख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आंगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर...
मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हंसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर...
जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के संग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर...
मेंघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आंख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर...
जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहां ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर...
हर घर-आंगन रंग मंच है
औ हर एक सांस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूंगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर...
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दिल बंजारा गाए
- निशा माथुर
दिल बंजारा गाए,
सरहद पे, दिल बंजारा गाए।
सीने में एक हूक-सी उठती
जाने किस घड़ी, सांस थम जाए,
दिल बंजारा गाए ...।।
पहला प्यार मेरे देश की मिट्टी,
जिसका कण-कण प्रियतमा।
फुर्सत के लम्हों में दिल,
रूह से पूछे, तुम कैसी हो मेरी प्रिया ।।
खामोश हवाओं संग लिख,
लिख भेजे, कैसी प्यार भरी चिट्ठियां।
मां के संग बचपन को बांटे,
और फिर सरहद की खट्ठी-मिट्ठियां ।।
बेताब निगाहें पल-पल बूढ़े,
बाप को ढूंढे, बच्चे सपनों में पलते ।।
जिगर को बांध फिर मोहपाश,
सिपाही, वतन की राह पे चलते।
फिर भी दिल बंजारा गाए ..
सीने में एक हूक सी उठती,
जाने, किस घड़ी सांस थम जाए ।।
प्रश्नचिन्ह क्यों बनी खड़ी हैं,
देश की सरहद और सीमाएं।
सिंहासन ताज के लिए टूट रहीं ,
रोजाना कितनी ही प्रतिमाएं ।।
अटल खड़ा वो द्वार,
देश के सामने, बैरी चक्रव्यूह-सी श्रृंखलाएं।
रण का आतप झेल, मस्ती, खेल,
हाथ कफन, लाखों प्रभंजनाएं ।।
फिर भी दिल बंजारा गाए…
सीने में एक हूक सी उठती,
जाने किस घड़ी सांस थम जाए।
क्षमा मांग तोड़े मोह का बंधन,
नीड़ का करता तृण-तृण समर्पित ।
भाल पर मलता मां-चरणों की धूरी,
तन क्या मन तक करता अर्पित ।।
सिंह-सी दहाड़, शंखनाद सी पुकार,
धूल-धुसरित मिट्टी से सुवासित,
मार भेदी को बाहुपाश से फिर,
कर हस्ताक्षर, नाम शहीदों में चर्चित।।
फिर भी दिल बंजारा गाए ..
सीने में एक हूक सी उठती
जाने किस घड़ी सांस थम जाए।।
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प्रवासी कविता : बंजारा...
- हरनारायण शुक्ला
कभी वहां रहा कभी यहां, पूछो न कहां से हूं,
घर है ना तो घाट यहां, मैं बंजारा जो हूं,
आज पड़ाव यहां है, कल तम्बू कहां तनेगा,
पता किसे है इसका, कल कोई काम बनेगा,
बने ना बने इसकी, परवाह नहीं कर प्यारे,
जो होगा देखा जाएगा, सब होंगे वारे-न्यारे,
हम पड़ाव में पड़े रहे, मंजिल की कोई बात नहीं,
दुनिया कितनी प्यारी, जन्नत की कोई चाह नहीं,
आज हूं, कल रहूं ना रहूं, ये किसने है जाना,
बेमतलब हो जाएगा, तब मेरा पता-ठिकाना।
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