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हिन्दी कविता : गृहस्थी का घोड़ा

हिन्दी कविता : गृहस्थी का घोड़ा - Hindi Poem On Family Life
पंकज सिंह
बेटा बोला, ट्रक के पीछे लिखा होता है
जल्दी घर आना, पापा मम्मी याद करती है
बेटा होशियारी दिखाता है
 
मन से शब्द जोड़ देता है
इधर उधर मत देखना, मम्मी ऐतराज करती है
पहले सकपकाया, इसको कैसे पता है
फिर संभला, खार खा गया
 
क्रोधित हो कह दिया  
तेरी मम्मी से बात करा
सुन उसने मोबाइल बंद कर दिया
 
बड़ी मुश्किल से नंबर मिला
किस जन्म का दे रही हो सिला
सुन बेटे की मम्मी बिफर गई
 
मोबाइल पर रणचंडी बन गई
अबके हमने मोबाइल बंद कर दिया
गले पड़ी आफत को गुड बाय कह दिया
 
मिश्री की डली थोड़ी देर में पिघल गई
चॉकलेट सी जबान पर चढ़ गई
मैंने कहा, तांगे का टट्टू थोड़े ही हूं
 
वह बोली, मैं कब कहती हूं
मैं बोला, यही तो कहा है
इधर उधर देखने से मना किया है
 
वह बोली, किसने तुमको बताया
मैंने कहा, झूठ, बेटे से कहलवाया
खुश हो बोली, समझदार हो गया है
 
गृहस्थी के घोड़े की चाल समझने लगा है
पट्टा ना बांधो, घोड़ा रास्ता भटकने लगता है
सवारी कहां ढूंढोगे बेटा है
 
पट्टा कोई और नहीं बेटे की मम्मी है
तांगा कहीं से नहीं लाना गृहस्थी है
बेटे की मम्मी बोली, कहो कैसी रही
 
घोड़े की गृहस्थी नाक की सीध में चलेगी कि नहीं
घोड़ा बेचारा, क्या कहता
अपनी घास से दुश्मनी थोड़े ही करता
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