ज़मीनी रंग है कुछ उसका भी
राजकुमार कुम्भज
बिजली का खंबा नहीं है दिसंबर कि भीतरी रंगत का रंग बिखेर ही दे बहुत बाहर तक एक अलहदा एकांत है होंठों पर, होंठों का जो चूमे , वो जाने गूंगों का गुड़ सुरक्षित है आदिकाल से और सागर पार की गरमाहट में ख्याल उनका वे जानें, हमें क्याहमें तो हमारी बस्ती का अलाव चाहिए चूल्हे पर पकती दाल रोटी चाहिए नदी में बहते साफ पानी संग एक नौका चाहिए चाहिए, चाहिए वफादार चाकू जैसी दिसंबर की खब्त भी चाहिए बिजली का खंबा नहीं है दिसंबर ज़मीनी रंग है कुछ उसका भी ग़र याद रहे।