जख़्म कब तक खुले रखेंगे हम
-बालस्वरूप राही
जो जुलूसों को साथ लाए हैं सुर्खियों में वही समाए हैं राहगीरों की बात मत पूछोवो तो दिन-रात पिसते आए हैं वक्त ने छीनकर सभी फुरसतकुछ खिलौने हमें थमाए हैं संत को लोग ठग समझते हैं आप धूनी कहाँ रमाए हैं क्या हुआ खुद से दुश्मनी गर कीहमने कुछ दोस्त तो कमाए हैं अपनी पाकीजगी दिखाने को लोग अब खून से नहाए हैं ढूँढ़िए आग भी कहीं होगीचंद चेहरे जो तमतमाए हैं जख़्म कब तक खुले रखेंगे हम आप अब तक नमक छिपाए हैं ढूँढ़ जिसकी मची है शहरों में लोग जंगल में छोड़ आए हैं इन अँधेरों से पूछना राही हम भी कुछ रोज टिमटिमाए हैंसाभार : समकालीन साहित्य समाचार