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गाँव सुहाना भूल गए
देवमणि पांडेय नई सदी के रंग में ढलकर हम याराना भूल गएसबने ढूँढे अपने रस्ते साथ निभाना भूल गए।शाम ढले इक रोशन चेहरा क्या देखा इन आँखों नेदिल में जागीं नई उमंगें दर्द पुराना भूल गए।ईद, दशहरा, दीवाली का रंग है फीका-फीका सात्योहारों में इक दूजे को गले लगाना भूल गए।वो भी कैसे दीवाने थे खून से चिट्ठी लिखते थेआज के आशिक राहे-वफा में जान लुटाना भूल गए।बचपन में हम जिन गलियों की धूल को चंदन कहते थे।बड़े हुए तो उन गलियों में आना जाना भूल गए।शहर में आकर हमको इतने खुशियों के सामान मिलेघर-आँगन, पीपल-पगडंडी, गाँव सुहाना भूल गए।साभार: अक्षरम् संगोष्ठी