• Webdunia Deals
  1. मनोरंजन
  2. बॉलीवुड
  3. गीत-गंगा
  4. Anand Song, Naa Jiya Laage Naa, Salil Chaudhary
Written By

ना, जिया लागे ना, तेरे बिना मेरा कही जिया लाने ना...

ना, जिया लागे ना, तेरे बिना मेरा कही जिया लाने ना... - Anand Song, Naa Jiya Laage Naa, Salil Chaudhary
- सुशोभित सक्तावत
 
ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्‍म 'आनंद' (1971) का यह गीत है। फिल्‍म में कुल चार गाने थे। सभी एक से बढ़कर एक। लेकिन संगीतकार सलिल चौधरी ने फिल्‍म की अपनी सबसे पक्‍की धुन स्‍वरकोकिला के लिए बांधी। यह खमाज ठाट के राग मालगूंजी में निबद्ध रचना है, जिस पर जैसे राग रागेश्री और बागेश्री का मंद-मंद मुस्‍काता चंद्रहास। लता का स्‍वर उसकी चांदनी को रूई की तरह चींथता है।
 
गीत का प्रसंग? भला इससे मीठा प्रसंग और क्‍या होगा? डॉ. भास्‍कर बनर्जी (अमिताभ बच्‍चन) के मन में रेणु (सुमिता सान्‍याल) के प्रति कोमल भावना है, रेणु के मन में भी यही ऊभ-चूभ, किंतु संकोच की लक्ष्‍मणरेखाएं अलंघ्‍य हैं। पर एक दिन आनंद (राजेश खन्‍ना) सब बखेड़ा कर देता है। 
 
ये तीनों डॉ. भास्‍कर के कमरे पर हैं और आनंद निहायत बेतक़ल्‍लुफ़ी से उन दोनों के बीच निर्मित संकोच के बांध को तोड़ देता है। दिल की बस्‍ती के निचले कोनों-अंतरों में बाढ़ का पानी घुसने लगता है। कुछ देर बाद आनंद डॉ. भास्‍कर को अपने साथ घुमाने ले गया है और अब रेणु कमरे में अकेली रह गई है। वह क्‍या करती है? कमरे के पारदर्शी परदों को सहलाती है, मानो उसमें भास्‍कर के स्‍पर्श को अनुभव करने की कोशिश कर रही हो। 
बिखरे सामान को जमाती है, बिस्‍तर की सिलवटें दुरुस्‍त करती है। शीशे के सामने खड़ी होकर अपनी चोटी ठीक करती है। अपने प्रिय की अनुपस्थिति में उसकी उपस्थिति को अनुभूत करने की छोटी-छोटी चेष्‍टाएं। उसी प्रसंग पर आता है यह गीत।
 
लता का गाढ़ा-संतप्‍त स्‍वर इस गीत का अंतर्भाव। सलिल दा का तबला लगातार उससे होड़ लगाए हुए है, जैसे धौंकनी चल रही हो। इंटरल्‍यूड में सितार के दिल ख़ुश कर देने वाले टुकड़े। मद्धम आंच पर पकने वाली मोहब्‍बत की ख़ुशबू हवा में फैलती है। गीत की तकनीकी ख़ासियत यह कि इसमें दो अंतरे हैं, लेकिन वो दो बराबर के टुकड़ों में टूटे नहीं हैं। 
 
'पिया तेरी बावरी से रहा जाए ना' की कड़ी पहले अंतरे को अप्रत्‍याशित रूप से दूसरे अंतरे से जोड़ देती है, जैसे विशाल पंखों वाली कोई अबाबील धरती पर 'लैंडिंग' करते-करते फिर 'पिक-अप' करे, फिर एक 'फ़्लाइट' ले, और इस बार कुछ इस तरह सातवें आसमान को भी लांघ जाए कि जिसके बाद कोई वापसी मुमकिन न हो।
 
'वो घड़ी...' पर आलाप लेते हुए लता उसी सातवें आसमान को छू आती हैं और हम, जो इस चमत्‍कार के विवश साक्षी हैं, श्रोता हैं, अनुभोक्‍ता हैं, फिर वहां से लौटकर नहीं आ सकते। बस कुर्सी पर हमारा कोट टंगा रह जाता है!
 
ऋषि दा, सलिल दा, लता जैसों के बिना यह संभव नहीं हो सकता। और सुमिता सान्‍याल की उस ऐकांतिक किंतु सरल-मंदस्मित छवि के बिना भी। एक उचित विग्रह न हो, व्‍यक्ति-व्‍यंजना न हो, मेटाफ़र न हो, तो दृश्‍य-कला के महत से महत अभियान भी खंख रह जाते हैं, और सुमिता सान्‍याल का 'परसोना', उनके होने का व्‍याकरण, यहां इस गीत को वह मधुर परिपूर्णता देता है, जो कि उसका प्रारब्‍ध था, और हमारा भी।