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27 मार्च : विश्व रंगमंच दिवस आज, कैसे हुई ग्लोब थिएटर की स्थापना

27 मार्च : विश्व रंगमंच दिवस आज, कैसे हुई ग्लोब थिएटर की स्थापना - World Theatre Day (WTD)
Globe Theatre
 
इंग्लैंड का इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जा रहा था। ये वह दौर था जब रानी एलिज़ाबेथ 'प्रथम' इंग्लैंड के राजपद पर विराजमान थीं। कई वर्षों की राजकीय उथल-पुथल के बाद देश अब चैन की सांसे ले रहा था। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक... हर एक मोर्चे पर इंग्लैंड अपने कदम मजबूत कर रहा था। ऐसे में साहित्य और कला क्षेत्र में भी उत्साह का वातावरण उमड़ने लगा। किताबें लिखी जाने लगी, कविताएं रची जाने लगी, रंगमंच पर नए-नए आविष्कार होने लगे... इंग्लैंड के सांस्कृतिक विश्व का सूरज कंचन सुनहरी धूप बिखेरने लगा। 
 
उन्हीं दिनों साहित्य के क्षेत्र में एक चमचमाता सितारा बड़ी तेजी से लोकप्रियता के बुलंदी की ओर अग्रसर था। उस का नाम था 'विलियम शेक्सपीयर'। सन् 1599 में विलियम शेक्सपीयर ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर लंदन में एक थिएटर की स्थापना की। उस थिएटर का नाम रखा गया 'ग्लोब थिएटर'। 
 
उस समय नाट्य व्यवसाय फल-फूल ज़रूर रहा था पर फिर भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिली थी। व्यावसायिक ओहदे की सीढ़ी पर नाटक, रंगमंच का काफी निचला स्थान था। इसी कारणवश 'ग्लोब' को लंदन शहर के बीचों-बीच नहीं बल्कि शहर के बाहर बनवाया गया। ग्लोब अर्धवृत्ताकार में बना एक ओपन एयर थिएटर था। इसके ओपन एयर संरचना के दो बड़े फायदे थे। एक फायदा ये था कि बंद थिएटरों के मुकाबले ग्लोब की प्रेक्षक क्षमता कई गुना ज्यादा थी। 
 
करीबन ढ़ाई से तीन हजार लोग एक साथ नाटक देख पाएं इतना बड़ा था ग्लोब थिएटर। दूसरा फायदा ये कि यहां आसानी से मिलने वाली प्राकृतिक रोशनी के कारण मोमबत्तियां, चिरागदान, मशालें इन सब की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। प्रकाश योजना पर कोई खर्चा नहीं करना पड़ता था। खर्चा कम तो टिकटों के दाम भी कम। इस वज़ह से आम से आम आदमी भी अब आसानी से टिकट खरीद कर नाटक देखने का आनंद लेने लगा। नाट्य व्यवसाय और ख़ास कर के शेक्सपीयर के नाटकों को समाज जीवन के सभी स्तरों तक पहुंचाने में ग्लोब की उन कम कीमत वाली 'वन पैनी' टिकटों का सबल योगदान रहा।  
 
तब निर्मातागण नाटक में वेशभूषा, सेट्स पर ज्यादा पूंजी नहीं लगाते थे। ऊंचे कपड़े और कीमती सेट्स का ज्यादा महत्व नहीं था। सारा दारोमदार हुआ करता था भारी भरकम डायलॉग्स पर। कलाकारों की बुलंद आवाज़ें नाट्यशाला में गूंजती तो दर्शकों में ज़ोश की लहर-सी दौड़ जाती थी। तालियों की गड़गड़ाहट आसमान चीरती थी। प्रेक्षकों को नाटक 'देखने' से अधिक रूचि नाटक 'सुनने’ में हुआ करती थी। संवाद जबरदस्त तो नाटक हिट। 
 
रंगमंच के ठीक आगे की जगह उपरोक्त 'वन पैनी' टिकट धारकों के लिए निर्धारित थी जिसे 'पीट' कहते थे। पीट में बैठने के लिए आसन नहीं होते थे। बस खड़े होने भर के लिए जगह होती थी वहां। या तो खड़े रहिए या तो जमीन पर अपना आसन जमाइए। नाट्यगृह के प्रवेश द्वार पर एक बक्सा 'बॉक्स' रखा जाता था जिसमें एक पैसा (पैनी) डाल कर नाट्यगृह के अंदर प्रवेश मिलता था। इस 'बॉक्स' में जमा हुई राशि उस दिन के खेल का नफ़ा या नुकसान निर्धारित करती थी। 'बॉक्स ऑफ़िस' और 'बॉक्स ऑफ़िस कलेक्शन' की संकल्पना उन दिनों से आज तक चली आ रही है। 
 
ग्लोब की एक बड़ी मज़ेदार खासियत थी। जब रंगमंच पर शो चल रहा हो तब भरे शो में प्रेक्षकों को कलाकारों के साथ बातें करने की, उन्हें अपनी प्रतिक्रिया देने की पूरी छूट थी। दर्शकों के खास डिमांड पर कभी संवाद रिपीट किए जाते तो कई बार बदले भी जाते थे। प्रशंसा की तालियां जी भर बजाई जाती तो आलोचना की फटकार भी जमकर रसीद की जाती थी। पीट के इर्दगिर्द तीन सतह पर प्रेक्षक दीर्घाएं बनी थी। इन दीर्घाओं में बैठने की व्यवस्था होती थी और सिर के ऊपर छत होती थी। जाहिर हैं कि इन टिकटों की कीमत भी अधिक हुआ करती थी।
 
सन् 1613, जून के महीने का एक दिन था। ग्लोब के रंगमंच पर हमेशा की तरह नाटक का खेल हो रहा था। स्टेज पर किसी समारोह का सीन था। इस सीन में बतौर स्पेशल इफेक्ट मंच पर तोप की सलामी हुई। दुर्भाग्यवश तोप की चिंगारी सीधे ग्लोब के छत पर जा गिरी। लकड़ी से बना ग्लोब थिएटर धधक उठा। केवल दो ही घंटे के भीतर पूरा थिएटर जल कर राख़ हो गया। इस घटना के बाद मात्र दो सालों में ही ग्लोब दोबारा बनाया गया।
 
1642 में फिर एक बार देश में राजकीय अस्थिरता का माहौल बन गया। राजसत्ता की खिलाफ जनता ने विद्रोह कर दिया। नई सरकार बनी। नए सरकार ने समूचे नाट्य जगत पर प्रतिबंध लगा दिया। अब इंग्लैड में नाटक बनाना और देखना क़ानूनन जुर्म बन गया। देश के सारे थिएटरों की तरह ग्लोब भी बंद हुआ। उसकी इमारत भी नष्ट हुई। कुछ वर्षों के बाद राजसत्ता फिर प्रस्थापित हुई और नाटकों की पाबंदी भी हट गई पर ग्लोब मलबे के ढ़ेर तले दबा का दबा रह गया। 
 
अगले साढ़े तीन सौ सालों में ग्लोब थिएटर का नाम इंग्लैंड की धरती से और जनता के दिलों-दिमाग से पूरी तरह से मिट गया। जूलियस सीज़र, हैमलेट, ऑथेलो, मैकबेथ, किंग लेयर जैसी कहानियां जिस रंगमंच के लिए लिखी गई, जहां सर्वप्रथम प्रदर्शित की गई वह रंगमच, वह वस्तु किसी को याद तक नहीं रही।
 
तीन सदियां बीतीं, समयचक्र फिर घूमा। एक अमरिकन लेखक और दिग्दर्शक सैम वनमाकर ने पहल की और ग्लोब थिएटर के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया। 1999 में पुनर्निर्माण का काम संपन्न हुआ। मूल ग्लोब का रंग रूप लेकर ही इस नए ग्लोब का निर्माण किया गया। 'यू टू ब्रूटस...', 'टू बी ऑर नॉट टू बी' जैसे अजरामर संवादों का जहां सर्वप्रथम उच्चारण हुआ वह ग्लोब थिएटर विनाश की खक से फीनिक्स की तरह उभरा। दुनिया भर के नाट्यकर्मियों के लिए अब वह मानों एक तीर्थस्थल बन गया हैं। साहित्य के भीष्म पितामह विलियम शेक्सपीयर का ग्लोब थिएटर अपने गौरवपूर्ण विरासत को माथे पर सजाएं लंदन में आज बड़े शान से खड़ा हैं।
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