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आकाश ख्यालों के कवि चन्द्रकांत देवताले का महाप्रस्थान

आकाश ख्यालों के कवि चन्द्रकांत देवताले का महाप्रस्थान - Chandrakant Devtale
* स्मृति शेष

-कुमार सिद्धार्थ 
 
ख्यातनाम यशस्वी कवि चन्द्रकांत देवताले 15 अगस्त 2017 को संसार से बिदा होकर  सचमुच 'आजाद-लोक' में प्रस्थान कर गए। उनका आज हमारे बीच न होना एक गहरे शून्य  के उभरने के समान है जिनके विचारों और हस्तक्षेप की आज के बदलते और कठिन दौर में  जरूरत थी। 81 बरस के जीवन की इस पारी में उन्होंने जो कुछ भी लिखा-रचा, उसमें  जीवंतता, संवेदनशीलता और जीवटता के अलावा साहस और सजगता का भाव दिखलाई  पड़ता है। 
 
फक्कड़पन, बेबाकी, साफगोई, जिंदादिली उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा थे जिसका  निर्वहन वे जीवनपर्यंत करते रहे। वे हिन्दी साहित्य के उन पुराधाओं में से एक थे जिन्होंने  साहित्य के मूल्यों को अपने जीवन में जीया तथा युवा साहित्यकारों की पीढ़ी तक उन्हीं  अंदाज में पहुंचाने का सफल प्रयास किया।
 
मैं उन्हें कई मायनों में आदर्श मानता हूं। वे सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित थे और  किसी तरह का समझौता करना पसंद नहीं करते थे। वे प्रगतिशील विचारधारा के कवि के  रूप में जाने जाते थे। प्रगतिशील होने के साथ ही गहरी सोच वाले मानवीय लेखक भी थे। 
 
मैं अपने को सौभाग्यशाली मानता हूं कि देवतालेजी जैसी शख्सियत का सान्निध्य इंदौर/  उज्जैन में पिछले 2 दशक से अधिक समय तक मुझे मिला। उनके सान्निध्य से भाषा-  साहित्य की बारीकियों के साथ चीजों को देखने के नजरिए को परिष्कृत किया। वे जब भी  मिलते थे, हमेशा लिखने और किताबें पढ़ने के लिए उकसाते रहते। अक्सर सवाल करते थे  और फिर मेरे विचारों को टटोलने के साथ उस मुद्दे के प्रति मेरी सोच की गहराई को  समझने का प्रयास करते। उज्जैन-इंदौर की कई यात्राएं उनके साथ कीं जिससे उनकी  नजदीकियां, आत्मीयता और स्नेह मिला और मैं उनके परिवार का सदस्य जैसा होने के  नाते उन पर साधिकार था। 
 
देवतालेजी ने हिन्दी कविता के पिछले 6 दशकों को अपनी रचनाधर्मिता से आलोकित  किया। उन्होंने दर्जनभर कविता-संग्रह और आलोचना की एक किताब लिखी। उनका रचना  संसार वृहद था। उनके कविता संग्रहों में हड्डियों में छिपा ज्वर (1973), दीवारों पर खून से  (1975), लकड़बग्घा हंस रहा है (1980), रोशनी के मैदान की तरफ (1982), भूखंड तप रहा  है (1982), आग हर चीज में बताई गई थी (1987), बदला बेहद महंगा सौदा (1995),  पत्थर की बेंच (1996), उसके सपने (1997), इतनी पत्थर रोशनी (2002), उजाड़ में  संग्रहालय (2003), जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा (2008), पत्थर फेंक रहा हूं (2011)  उल्लेखनीय कृतियां हैं। 
 
अपने प्रिय कवि 'मुक्तिबोध' की तरह देवताले मराठी से आंगन की भाषा की तरह बर्ताव  करते थे। यह उनकी कविताओं में बार-बार देखा जा सकता है। उनकी कविता में समय के  सरोकार के साथ-साथ समाज के सरोकार भी मौजूद हैं। लीलाधर मंडलोई के शब्दों में  देवताले वंचितों की महागाथा के कवि थे जिन्होंने अपनी रचनाओं में दलितों, वंचितों,  आदिवासियों व शोषितों को जगह दी। 
 
न्याय पक्षधरता के साथ गुस्सा, खीज, आक्रोश और गहरा मानवीय-राजनीतिक सरोकारी-स्वर  उनकी कविता में दिखाई देता और वह लगता है, जैसे आम आदमी के स्वर को गुंजायमान  कर रहे हैं। यदि आप देवतालेजी की कविताओं को पढ़ते हैं तो वे आपको बेहद बेचैन कर  देंगी। उससे उनके व्यक्तित्व और कवि को समझने में बहुत सहायता मिलती है। वे सिर से  पांव तक निश्छलता की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उनके व्यक्तित्व में कहीं भी कोई दुराव-छिपाव  नहीं था, वे जितने बाहर से आपके प्रति आत्मीय दिखते थे, भीतर इससे अधिक स्नेह  आपके लिए भरा होता था। नाराजगी और गुस्सा उन्हें व्यवस्था के प्रति होता है, जो उनकी  कविता में भरपूर व्यक्त होता रहा। 
 
उनसे आप लंबे समय के बाद भी मिलते तो ऐसा नहीं लगता था कि लंबा अंतराल आ गया  हो। वे ऐसे मिलते थे, जैसे आपसे रोज की मुलाकात हो। वे आपको एहसास भी नहीं होने  देते थे कि वे आपको पहचान पा रहे या नहीं। बाद में जरूर कोई करीबी साथी से उसका  परिचय ले लेते थे। उनकी आवाज का उतार-चढ़ाव और भाव-भंगिमाएं शब्दों और भावों के  अनुरूप इस तरह क्रियाशील हो उठती थीं कि कविता साक्षात हो जाती थी। इस तरह के कई  मौके मुझे उनके साथ मिले। 
 
उज्जैन में एक संस्थान में काम करने के दौरान वे अपनी हाथ से लिखी नवीन कविताओं  को मुझे भिजवा देते थे। मैं उन्हें टाइप की हुई कविताएं भिजवाता था। तब कई बार फोन  पर ही कविताओं का पाठ कर वे मुझे सुनाते और राय लेते थे। पृथ्वी, नदी, समुद्र,  रेगिस्तान, जंगल, पहाड़, पठार, स्त्री, मां, कुत्ता, वनस्पति, ग्रह, नक्षत्र, चांद, तारे जैसे शब्द  उनकी चिंताओं में इस कदर शामिल होते थे कि लगता है, जैसे समूची सृष्टि ही देवतालेजी  की कविताओं के कथ्य को बयान करने के लिए कम पड़ने वाली हो।
 
देवतालेजी के साथ जब भी व्यक्तिगत या दूरभाष पर लंबी चर्चाएं होती थीं, उस वक्त  महसूस होता था कि उनका हर शब्द किसी तरह कागज पर उतार लूं। उनकी बातें कहने का  लहजा कभी-कभी गंभीर कटाक्ष की तरह होता तो कभी चुटकियों से भरा होता। वे अपने  बारे में कहते थे कि 'जब सौ जासूस मरते होंगे, तब एक कवि पैदा होता है। मेरे जैसे के  भीतर तो कविता का कारखाना कभी बंद नहीं होता। मैं पूरे वक्त का कवि हूं। संकोची इसे  बड़बोलापन समझेंगे तो मुझे कोई आपत्ति न होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं  कविताओं का ढेर लगाता हूं। उत्पाद वाला कारखाना नहीं यह। कविताएं बेहद उधेड़बुन और  हड़बड़ी में आती हैं। कविता लिखते हुए मैं घिरा हुआ महसूस करता हूं। उस मुसाफिर की  तरह जो यादों, सपनों और अपने यथार्थ के जख्मों का असबाब लिए प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी  ट्रेन पकड़ने दौड़ता है और जैसे-तैसे सवार हो जाता है।' 
 
साहित्य अकादमी के पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार  में उन्होंने साफगोई से कहा था कि 'आज के इस विद्रूप समय में जब संस्कृति स्वयं बाजार  का हिस्सा बन गई है, छपे हुए शब्द हाशिए में पड़े हैं, करोड़ों अनपढ़-असाक्षर और लाखों  लोग कुपोषित हैं, समाज में अत्याचार और हिंसा का बोलबाला है। वैश्वीकरण ने हमें  विस्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हमारे देश के कवियों की आवाज अपनी-अपनी  जगह की बित्ताभर जमीन, भाषा और जीवन को बचाने की कोशिश है। कविता गवाही ही  तो दे सकती है। यह वक्त वक्त नहीं, एक मुकदमा है। हम गूंगे नहीं हैं।'
 
उन्हें ढेर सारे पुरस्कार मिले थे जिसमें अंतिम महत्वपूर्ण पुरस्कार 2012 का 'साहित्य  अकादमी' पुरस्कार था। यह उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए दिया गया था।  इसके अलावा मध्यप्रदेश शिखर सम्मान तथा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से भी नवाजा जा  चुका है। सम्मान की बात करें तो देवतालेजी को कविता समय सम्मान (2011), पहल  सम्मान (2002), भवभूति अलंकरण (2003), शिखर सम्मान (1986), माखनलाल चतुर्वेदी  कविता पुरस्कार और सृजन भारती सम्मान से सम्मानित किए गए थे। 
 
उनका हम सबसे बिछुड़ना दुखदायी है। उनकी बातें, सीख बार-बार स्मरण कराती रहेंगी कि  सवाल करने की आदत को बनाए रखना। समाज को अपनी नजर से देखना सीखो, बजाय  बनी-बनाई नजरों से। 
 
उनके शब्दों में- 'कविता आकाश की तरह कवि के साथ हमेशा रहेगी, जैसे आकाश और  समय हमेशा उसके साथ रहता है, उसका कविपन हमेशा साथ रहता है। ऐसा नहीं उसने  कोट की तरह से अपनी कविताई उतार दी और धंधेबाज की तरह अपनी बंडी पहन ली।'  (सप्रेस)
 
(कुमार सिद्धार्थ स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यों से संबद्ध हैं।)

साभार - सप्रेस 
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