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Written By WD

प्रभाष जोशी : एक बहाव ने लिया पड़ाव

आक्रामक पत्रकारिता के जनक प्रभाष दादा

प्रभाष जोशी
राजशेखर व्या
ND
प्रभाष जोशी समकालीन पत्रकारिता में एक अहम मुहावरा थे। आक्रामक पत्रकारिता के पर्याय बन चुके प्रभाष जी को देखकर कोई अंदाज नहीं लगा सकता था कि इस शिष्ट, शांत, संयत और शालीन व्यक्तित्व के भीतर एक धधकते हुए ज्वालामुखी का लावा भरा होगा।

मालवा के छोटे से गाँव सुनवानियाँ 'महाकलिया' में जन्में प्रभाषजी के बारे में कोई यह आँकलन भी कैसे कर सकता था कि साधारण अध्यापकीय जीवन से शुरूआत करने वाले संकोची प्रभाषजी नईदुनिया से होते हुए सर्वोदयी यात्रा तक और सर्वोदयी यात्रा से 'इंडियन एक्सप्रेस' तक का सफर इतनी कुशलता और खूबी से करेंगे कि एक दिन पत्रकारिता-जगत के पुरोधा की उपाधि से नवाजे जाएँगे।

हिन्दी पत्रकारिता के सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद लेकिन मानक संपादक प्रभाष जोशी संवेदनशील व्यक्ति थे। वे मूलत: एक लेखक, नाटककार, उपन्यासकार, खेलप्रेमी, खिलाड़ी और ‍कवि ह्रदय व्यक्ति थे, यह हमारा सौभाग्य था या उनका ऐसा कोई दुर्योग कि वे पत्रकारिता में आ फँसे। खुद उनका मानना था कि 'आए थे हरिभजन को,ओटन लगे कपास'। प्रभाष जोशी उस संपादकीय परंपरा के वाहक थे जिनमें समर्थ रचनाकारों ने संपादकीय कर्म करते हुए भी अपनी रचनाधर्मिता को मरने नहीं दिया था।

संस्कारवान ब्राह्मण परिवार में जन्में प्रभाष जोशी समृद्ध अतीत ज्ञान के भंडार, वर्तमान संसार का सम्यक विश्लेषण करने वाले, भविष्य के गर्भ में छिपी संभावनाओं के दार्शनिक, बहुआयामी, विलक्षण मेधासंपन्न व्यक्तित्व थे। ऊपर से सरल-सहज दिखने वाले इस व्यक्तित्व का मूल्यांकन एक सीधी रेखा में करना संभव ही नहीं है। अंग्रेजी पत्रकारिता(इंडियन एक्सप्रेस) से निकल कर प्रभाषजी जब हिन्दी पत्रकारिता की सपाट जमीन पर आए तो लोग एकदम से भौंचक्क रह गए, अरे, यह नाम तो पहली बार सुना।

खासतौर से जब उन्होंने 'जनसत्ता' का पुनर्प्रकाशन किया तो राष्ट्र की राजधानी में खलबली मच गई। जनसत्ता के इस आगमन के पीछे प्रभाष जी के लेखन कर्म की ईंटे, अनुभव की रेत और उनके प्रतिभा-परिश्रम का सीमेंट लगा था यह तथ्य कितने लोग जानते हैं? तकरीबन छ: माह तक वे जनसत्ता को दिल्ली से प्रकाशित करते रहे लेकिन पाठकों के लिए नहीं, विशेषज्ञ और अनुभवियों के लिए। देर रात तक जनसत्ता का स्वरूप तय किया जाता था। यही कारण है कि जनसत्ता के माध्यम से उनके प्रयोगों ने हिन्दी पत्रकारिता की परती जमीन तोड़ने की कोशिश की। उनकी अनूठी शैली आगे चलकर 'जनसत्ताई' शैली ने नाम से पत्रकारिता संसार में पहचानी गई। उनका प्रयोग इस मायने में सफल कहा जा सकता है कि उनकी भाषा और आक्रामकता देश के हर छोटे-बड़े अखबारों के लिए अनुसरण का उदाहरण बन गई।

उनकी पत्रकारिता के लिए कितनी शुभ और सुखद बात रही होगी कि जनसत्ता का सर्कुलेशन ढाई लाख से अधिक होने के बाद प्रभाषजी को यह घोषणा करनी पड़ी थी-पाठक इसे मिल-बाँटकर पढ़ लें। हमारे पास अब इससे अधिक प्रिंट ऑर्डर बढ़ाने का मशीनी सामर्थ्य नहीं है।

प्रभाष जी की धारदार, तीखी, और तेजतर्रार लेखनी का जादू एक समय में ऐसा रहा कि वे आम आदमी के एकदम निकट आ खड़े हुए। उनके आक्रोश में आम आदमी अपना आक्रोश पाता रहा। प्रभाषजी के पास जबर्दस्त भाषा, बेपनाह तर्क, पाठक मन की गहरी समझ और अद्वि‍तीय साहित्यिक ज्ञान था। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि प्रभाषजी ने अकेले अपने बलबूते और पुरुषार्थ पर नई टीम लेकर एक नई भाषा, नई शैली का अखबार निकाला और लाखों लोगों तक उसे पहुँचाने में भी सफल रहे। उनकी अपनी टीम का पत्रकारिता को यह फायदा हुआ कि बजाय दस नई प्रतिभा सामने आती, एक ही प्रतिभा के दस नए रूप सामने आए।

प्रभाष जोशी वह नाम नहीं था, जो पद, प्रतिष्ठा और विशेषण से शोभा पाए बल्कि वह नाम था उस शख्सियत का जिससे जुड़कर पद, प्रतिष्ठा और विशेषण ने शोभा पाई थी। प्रभाष जी के लिए उन्हीं के बिंदास अंदाज में कहा जा सकता है कि वे साहित्य में होते तो कबीर होते, क्रिकेट में होते तो सी.के. होते और संगीत में होते तो कुमार गंधर्व होते यानी वे जहाँ भी होते कमाल होते।

जब मैं उनकी पुस्तक 'मसि कागद' का संपादन कर रहा था तब मजाक के हल्के फुल्के क्षणों में ठेकबीरी अंदाज में उन्होंने कहा था-हमहीं मरे मरेंहिं संसारा। आज लग रहा है उनके मुख से कबीर ही बोले थे। एक बहाव थे प्रभाष जी जिन्होंने जीवन भर कभी कोई पड़ाव नहीं लिया। आज लेखनी का बहाव थम गया। प्रभाष जी ने पड़ाव ले लिया।