मैं हूं कान... हम दो हैं... जुड़वां भाई...
लेकिन हमारी किस्मत ही ऐसी है
कि आज तक हमने अपने दूसरे
भाई को देखा तक नहीं...
पता नहीं.. कौन से श्राप के कारण
हमें विपरित दिशा में चिपका कर
भेजा गया है ...
दु:ख सिर्फ इतना ही नहीं है...
हमें जिम्मेदारी सिर्फ सुनने की मिली है..
गालियां हों या तालियां..,
अच्छा हो या बुरा..,
सब हम ही सुनते हैं...
धीरे धीरे हमें खूंटी समझा जाने
लगा...
चश्मे का बोझ डाला गया,
फ्रेम की डंडी को हम पर फंसाया
गया...
ये दर्द सहा हमने...
क्यों भाई..???
चश्मे का मामला आंखों का है
तो हमें बीच में घसीटने का
मतलब क्या है...???
हम बोलते नहीं तो क्या हुआ,
सुनते तो हैं ना...
हर जगह बोलने वाले ही क्यों
आगे रहते है....???
बचपन में पढ़ाई में किसी का दिमाग
काम न करे तो
मास्टर जी हमें ही मरोड़ते हैं..
जवान हुए तो
आदमी,औरतें सबने सुन्दर सुन्दर लौंग,
बालियां, झुमके आदि बनवाकर
हम पर ही लटकाए...!!!
छेदन हमारा हुआ,
और तारीफ चेहरे की...!
और तो और...
श्रृंगार देखो... आंखों के लिए काजल...
मुंह के लिए क्रीम...
होठों के लिए लिपस्टिक...
हमने आज तक कुछ मांगा हो तो
बताओ...
कभी किसी कवि ने, शायर ने
कान की कोई तारीफ की हो तो बताओ...
इनकी नजर में आँखे, होंठ, गाल,
ये ही सब कुछ है...
हम तो जैसे किसी मृत्युभोज की
बची खुची दो पूड़ियां हैं..,
जिसे उठाकर चेहरे के साइड में
चिपका दिया बस...
और तो और,
कई बार बालों के चक्कर में
हम पर भी कट लगते हैं ...
हमें डिटॉल लगाकर पुचकार दिया
जाता है...
बातें बहुत सी हैं, किससे कहें...???
कहते है दर्द बांटने से मन हल्का
हो जाता है...
आंख से कहूं तो वे आंसू टपकाती
हैं...नाक से कहूं तो वो बहता है...
मुंह से कहूँ तो वो हाय हाय करके
रोता है...पर मैं क्या करूं...
और बताऊं...
पंडित जी का जनेऊ,
टेलर मास्टर की पेंसिल,
मिस्त्री की बची हुई गुटखे की पुड़िया, कंडक्टर के सिक्के,
सब हम ही संभालते हैं...
और कोरोना में नया नया मास्क
का झंझट भी हमने ही झेला है
कान नहीं जैसे पक्की खूंटियां हैं हम...
और भी कुछ टांगना, लटकाना हो
तो ले आओ भाई...
तैयार हैं हम दोनों भाई...!