नई कविता:गिरिजाकुमार माथुर
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सुशोभित सक्तावत 50
के दशक के अंत में (संभवत: 'कृति' के किसी अंक में) श्रीकांत वर्मा ने गिरिजाकुमार माथुर के कविता संकलन 'धूप के धान' का रिव्यू लिखा था और उनकी कविता की गीतात्मकता और प्रगतिशील लोकचेतना की सराहना की थी। लेकिन तक़रीबन 10 साल के अंतराल में ही यह मंतव्य बदल जाता है। वर्ष 1968 में हुई एक परिचर्चा में श्रीकांत वर्मा अकविता आंदोलन के संदर्भ में ये बातें कहते हैं- 'हज़ार साल कविता लिखने के बाद भी साहित्य इन अकवियों को स्वीकार नहीं करेगा। अकविता लिखने वाले जितने भी कवि हैं, वे सभी गँवई संस्कारों से आते हैं और उनके आदर्श गिरिजाकुमार माथुर हैं।'गरज़ यह कि अगर आप गिरिजाकुमार माथुर की कविता पर बात कर रहे हैं तो लगातार स्टैंड बदलना आपकी मजबूरी होगी। ब्रजभाषा में सवैये लिखने से शुरुआत करने के बाद गिरिजाकुमार माथुर का पहला जो संकलन ('मंजीर') आया, उसमें गीत संकलित थे, और उसकी भूमिका महाप्राण निराला ने लिखी थी।फिर वे 'तारसप्तक' के ज़रिए नई कविता के स्वर बने। (ग़ौरतलब है कि 'तारसप्तक' के लिए माथुर का चयन स्वयं अज्ञेय ने किया था)। |
श्रीकांत वर्मा अकविता आंदोलन के संदर्भ में कहते हैं- 'हज़ार साल कविता लिखने के बाद भी साहित्य इन अकवियों को स्वीकार नहीं करेगा। अकविता लिखने वाले जितने भी कवि हैं, वे सभी गँवई संस्कारों से आते हैं और उनके आदर्श गिरिजाकुमार माथुर हैं...
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अकविता आंदोलन में उनकी भूमिका को श्रीकांत वर्मा ने नेतृत्वकारी रेखांकित किया है। नवगीत और राजनीतिक कविता में भी उनकी गतियाँ रहीं, लेकिन मुक्तिबोध और फिर रघुवीर सहाय के बाद का हिंदी कविता का जो परिदृश्य बनता है- उसमें गिरिजाकुमार माथुर की आवाजाही शिथिल पड़ती चली गई थी। अंतत: वे न बच्चन-सुमन-अंचल-नवीन की श्रेणी के जनगीतकार या वीरेंद्र मिश्र-मुकुटबिहारी सरोज की श्रेणी के गीतकार रह गए, न धूमिल-सौमित्र-जगूड़ी की तरह अकवि कहलाए, न ही नागार्जुन-त्रिलोचन-केदार की प्रगतिवादी कविता की श्रेणी में उन्हें रखा जा सका। गिरिजाकुमार माथुर पर किताब लिखने के लिए आपको इन तमाम अलग-अलग पोजीशंस पर क्रिटिकली खड़े होकर इनके कारणों और समकालीन साहित्य की स्थितियों के बारे में बात करना होगी।नई कविता के परिप्रेक्ष्य में गिरिजाकुमार माथुर पर केंद्रित डॉ. अजय अनुरागी की किताब में पोजीशन या स्टैंड्स बदलने की इसी प्रक्रिया के पर्याप्त तनाव का अभाव परिलक्षित होता है। यह अभाव या शैथिल्य आलोचकीय विवेक का भी स्खलन है, जबकि किसी भी आलोचना कृति से उसी आलोचकीय विवेक की अपेक्षा रहती है।
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वैसे समूची अज्ञेय-पीढ़ी ही अस्तित्ववाद से प्रभावित रही थी, जिस पर टी.एस. इलियट की स्थापनाओं का गहरा असर था। इस मिथक को बाद में मुक्तिबोध ने जड़ीभूत बताते हुए ध्वस्त किया। इसी अध्याय में माथुर .... |
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हमें शिक़ायत साहित्य-शिक्षण और समीक्षण संबंधी रस-विच्छेदन और मीमांसा की उस प्रक्रिया से भी है, जिसकी ओर नोबल लॉरिएट डोरिस लेसिंग ने व्यक्तिगत चिंता के साथ संकेत किया था।डॉ. अनुरागी की किताब उनके अकादमिक श्रम का परिणाम है, लेकिन उसमें रचनात्मक या आलोचकीय व्यू-पॉइंट धुँधलाता है। किताब को देखकर अनुमान होता है कि यह डॉ. अनुरागी का शोध प्रबंध होगा, क्योंकि अन्यथा किसी कवि पर 230 पृष्ठों का ग्रंथ तभी लिखा जाएगा, जब आलोचक के पास कुछ मौलिक स्थापनाएँ और ऑब्ज़र्वेशंस हों। बहरहाल, 6 अध्यायों में विभाजित इस किताब में नई कविता के विकासक्रम से लेकर गिरिजाकुमार माथुर के लिखे-जिए तक का लेखाजोखा समेटने की कोशिश की गई है। प्रसंग की पुष्टि के लिए पहला अध्याय नई कविता को समर्पित किया गया है। दूसरे अध्याय में माथुर के जीवन और उनकी कविता का परिचयात्मक विवरण है। तीसरे से लेकर छठे अध्याय तक नई कविता के विकास में माथुर के प्रवृत्ति विषयक, संस्कृति विषयक, भाषा संबंधी और कलापक्ष्ा विषयक योगदानों की पड़ताल की गई है।
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बहुसोपानों के शरणार्थी होने के बावजूद गिरिजाकुमार माथुर एक दुर्बोध या जटिल कवि नहीं हैं। ऐसे में संभवत: उनकी कविता में प्रवेश करने के लिए किसी भी शोध-प्रबंध की अपेक्षा स्वयं उनकी कविता ही बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकती है ... |
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प्रवृत्ति विषयक अवदान के संबंध में बात करते हुए डॉ. अनुरागी ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि छायावादी और प्रगतिवादी कविता आंदोलनों के बाद नई कविता की प्रतिष्ठा में गिरिजाकुमार माथुर का विशिष्ट योगदान था। इसके लिए उनके पास 'तारसप्तक' का साक्ष्य है, लेकिन सच यह भी है कि 'तारसप्तक' के ही कवि होने के बावजूद डॉ. रामविलास शर्मा आज आलोचक की तरह याद किए जाते हैं और शेष कवियों में से भी केवल अज्ञेय और मुक्तिबोध ही नई कविता के आधार-स्तंभ सिद्ध हुए थे। बहरहाल, माथुर की विभिन्न काव्य-प्रवृत्तियों के विवरणस्वरूप पर्याप्त उद्धरण इस अध्याय में दिए गए हैं। समकालीन बोध और वैज्ञानिकता संबंधी प्रवृत्तिगत काव्य-उद्धरण उन्हें 'तारसप्तक' के समय की नई कविता का प्रमुख हस्ताक्षर सिद्ध करते भी हैं। चिंतन विषयक योगदान वाले अध्याय में माथुर को अस्तित्ववाद से प्रभावित कवि बताया गया है। वैसे समूची अज्ञेय-पीढ़ी ही अस्तित्ववाद से प्रभावित रही थी, जिस पर टी.एस. इलियट की स्थापनाओं का गहरा असर था। इस मिथक को बाद में मुक्तिबोध ने जड़ीभूत बताते हुए ध्वस्त किया। इसी अध्याय में माथुर को आधुनिक और राजनीतिक भावबोध वाले कवि के साथ ही सांस्कृतिक-पौराणिक चेतना वाला कवि भी सिद्ध करने की कोशिश की गई है। इस बिंदु पर आकर यह मामला घालमेल हो जाता है। वैसे तो मुक्तिबोध में भी तंत्र-साधना के संकेत खोजने के प्रयास हुए हैं। भाषा विषयक अवदान वाले अध्याय में माथुर की कविता में प्रयुक्त देशज, अँग्रेज़ी और उर्दू-फ़ारसी शब्दों की सूची बनाकर दिखा दी गई है। यही अकादमिक रवैया प्रतीक-योजना और बिम्ब-विधान की पड़तालों में भी बरक़रार रहा, प्रतीकों के पीछे झाँककर देखने की कोशिश नहीं की गई। अकविता आंदोलन को गति देने में किसी समय गिरिजाकुमार माथुर की सक्रिय और ऊर्जस्वित भूमिका थी, लेकिन इस किताब में उनके रचनाकर्म के उस हिस्से को छूने की कम से कम कोशिश की गई है। यहाँ तक कि उनकी कविता के उद्धरणों में भी अकविता के लक्षणों से बचा गया है। इससे माथुर के कृतित्व की समूची छवि शायद पाठक के मन में न बन पाए। बहुसोपानों के शरणार्थी होने के बावजूद गिरिजाकुमार माथुर एक दुर्बोध या जटिल कवि नहीं हैं। ऐसे में संभवत: उनकी कविता में प्रवेश करने के लिए किसी भी शोध-प्रबंध की अपेक्षा स्वयं उनकी कविता ही बेहतर विकल्प सिद्ध हो सकती है। किताब का कलेवर बहरहाल, ख़ूबसूरत है। इसे पंचशील प्रकाशन जयपुर ने प्रकाशित किया है। लाइब्रेरी एडिशन हार्डबाउंड है। क़ीमत भी उसी के मुताबिक़। गिरिजाकुमार माथुर की कविता के संबंध में किसी भी तरह के रेफ़रेंस की तलाश करने वाले नए शोधार्थियों के लिए यह काम की किताब साबित हो सकती है, लेकिन शोधार्थियों के इतर हिंदी साहित्य के अध्ययनशील पाठकों को संभवत: इसमें कुछ उल्लेखनीय न मिल सके।पुस्तक : नई कविता /गिरिजाकुमार माथुर लेखक : डॉ. अजय अनुरागी प्रकाशक : पंचशील प्रकाशन फिल्म कॉलोनी , चौड़ा रास्ता , जयपुर 302003 मूल्य : तीन सौ रुपए