-राजेश्वर त्रिवेदी,मुझे यह भी लगता है कि आज के युवाओं में विनम्रता की कमी है। जब उन्हें थोड़ी सी भी सफलता मिलती है तो वे सोचते हैं कि वे पंडित, उस्ताद और किंवदंतियां हैं। मैं वास्तव में पंडित की अपनी उपाधि को त्यागना चाहता हूं क्योंकि हर टॉम, डिक और हैरी एक पंडित और एक उस्ताद हैं -पंडित रविशंकर एक साक्षात्कार में
भारतीय शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाले संगीत रसिकों तथा हिंदी के सुधी पाठकों के लिए संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली की त्रैमासिक पत्रिका 'संगना' का नया अंक विश्व विख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर पर एकाग्र है। उनके जन्मशती वर्ष पर प्रकाशित इस अंक में न केवल भारतीय वाद्य संगीत का इतिहास बल्कि भारत रत्न पंडित रविशंकर के जीवन में संगीत और उससे संबंधित प्रसंगों, घटनाओं तथा संगीत के माध्यम से उनके वैश्विक प्रवास जैसी अनेक बातों का बखूबी उल्लेख मिलता है।
सौ साल पहले बनारस में जन्में इस महान सितार वादक की विरासत में गहन सांगितिक परिवेश शामिल था। उनके पिता एक संगीतज्ञ तथा दार्शनिक थे, जिन्होंने औपनिवेशिक काल में कोवेंट गार्डन लंदन में प्रस्तुति दी थी। बडे़ भाई उदय शंकर उस दौर के एक प्रतिष्ठित नर्तक थे। उदय शंकर के मार्गदर्शन से ही रविशंकर ने कला संसार में प्रवेश किया। किन्तु वाद्य यंत्रों के प्रति विशेष आकर्षण के चलते उन्होंने 18 साल की उम्र में नृत्य छोड़कर सितार की तालीम हासिल करने का फैसला किया और उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां के शागिर्द बनें। पंडित रविशंकर के संगीत व जीवन पर एकाग्र संगना का यह अंक दो खंड में विभाजित किया गया है।
पहला खंड लेख तथा दूसरा साक्षात्कार पर केंद्रित है। इसमें कई घरानों के मूर्धन्य सितार वादकों से साक्षात्कार के साथ ही पंडित रविशंकर के शिष्य उनके प्रस्तुतियों में सहायक संगतकारों व आयोजकों के अनुभव शामिल हैं।
किस तरह कोई रचनाशील व्यक्ति अपने माध्यम में सतत अन्वेषण और प्रयोग के साथ अपनी यात्रा पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर रहता है, सुकन्या रवि शंकर के आलेख से यह बात बहुत ही विश्लेषणात्मक ढंग से प्रतीत होती है। भारत का सूर्य शीर्षक वाले इस आलेख में सुकन्या जी ने रविशंकर के व्यक्तित्व, संगीत व सृजित रागों (जो लगभग 30 से अधिक है) की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है।
रविशंकर कर्नाटक संगीत शैली से बेहद प्रेरित थे, और इससे प्रेरणा लेकर कई रागों को अपनी शैली के अनुकूल परिवर्तित कर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से परिचित कराया। उनकी प्रयोगधर्मिता, अन्वेषण तथा तकनीकी दक्षता का एक अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण कुछ ऐसा है कि-
उनके गुरु उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां सितार नहीं बजाते थे, वे मुख्य रूप से सरोद वादक थे। इस वज़ह से रविशंकर को सितार के अनुकूल तकनीक को विकसित करने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा। उन्होंने अपनी शैली के अनुकूल एक सितार बनाया, जिसकी ध्वनि अनोखी थी। उन्होंने सुरबहार की विशेष बातों को सितार पर लाने के प्रयास किए और सितार के साथ कुछ वर्षों तक सुरबहार बजाया। द्रुत हिस्सों को बजाने के लिए उनके द्वारा किए गए हुक पद्धति के अविष्कार का प्रयोग अधिकतर सितार वादकों द्वारा किया जाना सामान्य बात है।
उन्होंने चालीस के दशक में मध्यकाल की स्वरलिपि पद्धति के आधार पर नई स्वरलिपि पद्धति विकसित की। उन्होंने कोण से बजाए जाने वाले वाद्यों के लिए दाहिने हाथ से किए जाने वाले आधातों (stroke) के विशेष चिन्ह बनाए। सितार के साथ वे अपना निजी और आध्यात्मिक रिश्ता मानते थे। कहा जाता है कि उन्होंने सितार को नाम भी दिया हुआ था- सुर शंकर। वे उसे सुर शंकर नाम से ही पुकारते थे।
उन्होंने अपने उत्तरार्ध जीवन का अधिकांश समय पश्चिम में व्यतीत किया। सैकड़ों कंसर्ट किए, सितार की शिक्षा दी व शिष्य बनाएं। भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिम में लोकप्रिय बनाने में उनका महानतम योगदान सर्वविदित है। वह पहले ऐसे भारतीय संगीतकार हैं, जिन्होंने एक कंपोजर के रूप में पश्चिमी संगीतकारों के साथ मिलकर कई प्रयोग किए। बाद में कई भारतीय संगीतकार उनकी राह पर चलें। येहूदी मेन्यूहिन, जार्ज हैरिसन, जॉन काल्तरें, जिमी हेंड्रिक्स व डेविड मर्फी आंद्रे प्रीविन, फिलिप ग्लास वह जुबिन मेहता जैसे अनेक पश्चिमी संगीतकारों के साथ उन्होंने पूर्व और पश्चिम के मिश्रण से जो फ्यूजन संगीत तैयार किया वह वैश्विक स्तर पर सर्वमान्य हुआ और इसके लिए उन्हें पांच ग्रैमी अवार्ड सहित कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए।
इस मूर्धन्य सितार वादक ने समय-समय पर कई नवोदित कलाकारों, संगतकारों को अपने साथ काम करने का मौका दिया। इन्हीं में से एक नाम है गुजराती सुगम संगीत गायक आशित देसाई का। अशित जी को पंडित जी का महत्वपूर्ण सानिध्य मिला और इसी सानिध्य से उनकी की सांगीतिक सृष्टि और बेहतर हुई। एशियाड 82,रिचर्ड एटनबरो की प्रसिद्ध फिल्म गांधी तथा मास्को में आयोजित फेस्टिवल ऑफ इंडिया में जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों में अशित देसाई ने पंडित रविशंकर की अभिकल्पनाओं को साकार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
अशित जी ने वरिष्ठ संगीत समीक्षक संजय पटेल से साक्षात्कार में पंडित रविशंकर के साथ अपने सांगीतिक अनुभव व प्रसंगों को बहुत ही मनोयोग से साझा किया। इस अंक में संजय पटेल द्वारा समय-समय पर लिए पांच विभिन्न शास्त्रीय संगीतकारों के साथ संवाद प्रकाशित है।
रविशंकर के सिनेमा संगीत के योगदान पर संगीत समीक्षक कुशल गोपालका अपने आलेख मैं कहते हैं, गांधी हो या गोदान, पंडित जी ने हर फिल्म की भूमिका और दायरा भांपकर उसकी आवश्यकता अनुसार संगीत की मात्रा और उसका जायका तय किया है। उनकी फिल्में रचनाओं में रागदारी संगीत के तत्वों का बोझ या स्वयं की विद्वत्ता जताने की लालसा नहीं है, इसलिए वह हर सुनने वाले को भाती है। उनकी हर रचना में कुछ नई बात या सीख मिलती है।
हमारे समय के महान फिल्मकार सत्यजीत रे से रविशंकर की घनिष्ठता थी। इसी घनिष्ठता के चलते उन्होंने सत्यजीत रे की तीन कालजयी फिल्मों- पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपूर संसार का संगीत तैयार किया था। इन फिल्मों के संगीत को कोई भी सिने प्रेमी भुला नहीं सकता। नीचा नगर, धरती के लाल, पाथेर पांचाली, अपराजितो, काबुलीवाला, पारस पत्थर, अपूर संसार, अनुराधा गोदान, चार्ली, मीरा व गांधी जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने जिस तरह का संगीत रचा वह अप्रतिम है।
एक युवा नर्तक से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध संगीतकार के रूप में स्थापित होने की रविशंकर की यह यात्रा संगना के इस अंक में बेहद लयात्मक ढंग से अनुभूत होती है। सुकन्या शंकर, विद्याधर व्यास, रोनू मजूमदार इरफान जुबेरी, शन्नो खुराना, विजय शंकर मिश्र, असित राय, कुशल गोपालका, आलोक पराड़कर, सोमजीत दासगुप्ता, रविंद्र त्रिपाठी, शशि प्रभा तिवारी, संजय पटेल, विनय उपाध्याय, राजेश गनोदवाले जैसे कलाकार,कला रसिक, कला समीक्षक व गुणी श्रोताओं के लेख व साक्षात्कारों से संगना का यह अंक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण संगीतकार के जीवन, कृतित्व, व्यक्तित्व उनकी सृजनशीलता का ईमानदारी से बखान करने में सफल रहा है।
रविशंकर द्वारा सृजित राग, देश-विदेश में उन्हें प्रदान की गई विभिन्न उपाधियां, अलंकरण व उनके द्वारा निर्देशित नृत्य नाटिकाओं की सूची के साथ ही उन पर प्रकाशित दो नई किताबों राग माला और द इंडियन सन की समीक्षाएं भी इस अंक में शामिल हैं। पंडित रविशंकर पर एकाग्र संगना के इस अंक की कल्पना को साकार रूप देने में अतिथि संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत संकाय की पूर्व डीन प्रोफेसर सुनीरा कासलीवाल व्यास व प्रकाशक ॠतास्वामी चौधरी का अथक प्रयास इसमें प्रकाशित आलेखों की संख्या गुणवत्ता और तारतम्यता में स्पष्ट परिलक्षित होता है। कलाकार, कला रसिक व हिंदी के सुधी पाठकों के लिए रविशंकर पर एकाग्र संगना का यह अंक निश्चित ही एक महत्वपूर्ण संदर्भ की तरह है।
(राजेश्वर त्रिवेदी लेखक और कला समीक्षक हैं )