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ठेठ गांव से लेकर अपार्टमेंट और शहरी परिवेश की चमक-दमक तक उनकी निगाहों में है लेकिन देवताले के कवि मन को इस लंबे अंतराल ने कभी सकून नहीं लेने दिया। कभी ऐसी स्थिति नहीं बन पाई कि उन्हें लगे कि बस अब एक कवि को आराम करना चाहिए। देवताले के इस लंबे अंतराल का यह अनुभव है 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं।' आग और गुस्से का साथ नहीं छोड़ना एक ऐसी विषम स्थिति की ओर इशारा है जिसमें चैन की नींद नहीं सोई जा सकती है। एक वरिष्ठ कवि की ये चंद पंक्तियां हमारे राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को बयां करती हैं और यह भी कि इस बीच साहित्य की जगह चाहे जितनी भी सिकुड़ी हो लेकिन उसकी जरूरत बेतहाशा बढ़ी है।
देवताले जी के सामने चूंकि ये विषम परिस्थितियां रही हैं, उन्होंने कठिन समय को अपनी आंखों के सामने देखा है इसलिए उनका कवि मन हमेशा जागरूक रहा है। वे लिखते हैं 'मेरी यही कोशिश रही/ पत्थरों की तरह हवा में टकराएं मेरे शब्द।' चूंकि समय भयावह है इसलिए शब्द मृदु नहीं होंगे बल्कि वे आपस में पत्थर की तरह टकराएंगे।
आज जब इस दुनिया की संस्कृति चापलूसी की संस्कृति और अंधानुकरण की संस्कृति है तब देवताले जैसे कवि ही यह लिख सकते हैं कि 'ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे/ जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे/ मैं हर किसी की तारीफ करके भटकता रहूं/ मेरे दुश्मन न हों/ और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूं।'

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चंद्रकांत देवताले के यहाँ चिंतन बहुत गहरे धंसकर आया है। यह समाज और समय क्यों कठिनतम होता जा रहा है, देवताले यह जानते हैं और इसे इशारों में कहना भी चाहते हैं। 'यह तो उजागर है कोई फर्क नहीं आपकी निगाहों में मिसाइलें बनाने और वीणा बजाने में।' देवताले इस संस्कृति की चिंता में उदास हैं और यह पूछ रहे हैं कि आखिर इतिहास की यह फटी कमीज कौन रफू करेगा। संस्कृति और समय की यह बेइंतहा चिंता ही चंद्रकांत देवताले को हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाती है और इस संग्रह को महत्वपूर्ण।
पुस्तक : पत्थर फेंक रहा हूं
कवि : चंद्रकांत देवताले
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य : 250 रुपए