-महात्मा गाँधी मानव शरीर की गूढ़ संरचना को विस्तार से जानने के पूर्व ‘स्वास्थ्य’, इस शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। वह व्यक्ति स्वस्थ है, जिसका शरीर सभी बीमारियों से मुक्त है, जो बिना थकान के अपनी सामान्य गतिविधियों को संचालित कर सकता है। ऐसा व्यक्ति, जो एक दिन में आसानी से दस से बारह मील तक चलने और थकान महसूस किए बगैर सामान्य शारीरिक श्रम करने में समर्थ हो।
जो सादे भोजन को पचा सके। जिसका मन मस्तिष्क सुख और दु:ख में विचलित न हो। इस परिभाषा में शारीरिक क्षमता के बल पर ईनाम जीतने वाले शामिल नहीं हैं। यह आवश्यक नहीं कि असाधारण शारीरिक क्षमताओं वाला व्यक्ति स्वस्थ हो। संभव है कि वह अपनी मांसपेशियाँ किसी अन्य चीज की कीमत पर विकसित करता है।
ऊपर बताई गई स्वास्थ्य की परिभाषा के अनुसार स्वास्थ्य हासिल करने के लिए मानव शरीर का पर्याप्त ज्ञान होना भी आवश्यक है।
प्राचीन काल में जिस तरह की शिक्षा प्रदान की जाती थी, वह तो केवल ईश्वर ही जानता है। इस विषय पर शोध करने वाले शायद हमें इस बारे में कुछ बता सकते हैं, परंतु हम सभी ने इस देश में आधुनिक शिक्षा का अनुभव लिया है। इसका हमारे दैनिक जीवन से कोई संबंध नहीं है। इस तरह से यह हमें हमारे अपने शरीर के बारे में पूरी तरह से नासमझ ही छोड़ देती है। अपने गाँव और अपने खेतों के बारे में हमारे ज्ञान का भी यही हाल है।
दूसरी ओर हमें उन चीजों के बारे में पढ़ाया जा रहा है, जिनका हमारे दैनिक जीवन से कोई संबंध ही नहीं है।
दूसरी ओर हमें उन चीजों के बारे में पढ़ाया जा रहा है, जिनका हमारे दैनिक जीवन से कोई संबंध ही नहीं है। मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है, परंतु हर चीज का अपना स्थान होता है। हमें सबसे पहले हमारे अपने शरीर, अपने घर, अपने गाँव और उसके आसपास का, वहाँ उगने वाली फसल का और वहाँ के इतिहास का ज्ञान होना चाहिए। सामान्य ज्ञान हमारे प्राथमिक ज्ञान को बहुत विस्तृत आधार प्रदान करता है। यह अकेला ही हमारे जीवन को समृद्ध बना सकता है।
प्राचीन दार्शनिकों के अनुसार हमारा शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है - मिट्टी, पानी, हवा, जल, अग्नि और आकाश (निर्वात)।
हमारी सभी क्रियाओं का नियंत्रण दस इंद्रियों के द्वारा किया जाता है। इनमें से पाँच क्रियाओं का संयोजन करती है - हाथ, पैर, मुँह, गुदा और जननांग और पाँच हमारी समझ का निर्धारण करती हैं, नाक, जिह्वा, आँखें, कान और मस्तिष्क। सोचने का काम मस्तिष्क के द्वारा किया जाता है, कुछ लोग इसे ग्यारहवीं इन्द्री भी कहते हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन सभी के मध्य बेहतर संयोजन होना आवश्यक है।
मानव शरीर रूपी इस मशीन की आंतरिक कार्यविधि आश्चर्यजनक है। मानव शरीर ब्रह्मांड का सूक्ष्म रूप है। किसी दार्शनिक ने इस संबंध में एक सूत्र भी दिया है कि अंदर का ब्रह्मांड, बाहर के ब्रह्मांड को ही प्रतिबिंबित करता है। इस तरह से इसका तात्पर्य हुआ कि शरीर के संबंध में हमारा ज्ञान परिपूर्ण हुआ तो ब्रह्मांड के संबंध में भी हमें पूर्ण ज्ञान होगा, परंतु अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर और हकीम भी इस ज्ञान को हासिल नहीं कर पाते हैं। आज तक कोई हमें ऐसा यंत्र नहीं दे सका, जिससे मानव मस्तिष्क के बारे में जानकारी मिलती हो।
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वैज्ञानिकों ने शरीर के अंदर और बाहर की गतिविधियों के बड़े ही आकर्षक विवरण प्रस्तुत किए हैं, लेकिन कोई यह नहीं बता सका कि इस चक्र को कौन घुमाता है। क्यों एक नियत समय पर मृत्यु हो जाती है, कोई इसकी पूर्व भविष्यवाणी क्यों नहीं कर सकता?संक्षेप में, अनगिनत पुस्तकें पढ़ने और लिखने के बाद, अनगिनत अनुभव हासिल करने के बाद मानव को यह मालूम हुआ कि वह कितना कम जानता है।
शरीर की मशीन की कार्यप्रणाली उसके अंगों के तालमेल पर निर्भर करती है। यदि ये सभी अपने क्रम में कार्य करते हैं तो मशीन अपनी लय में काम करती रहती है। यदि इसमें एक का भी क्रम बिगड़ा तो पूरा शरीर ढीला और सुस्त हो जाता है। इसलिए जो व्यक्ति कब्ज और अपच का शिकार होता है वह अच्छे स्वास्थ्य का ‘अ, ब, स’ भी नहीं जानता है। ये दो चीजें अनेक बीमारियों की जड़ हैं।
अगला प्रश्न जो हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहता है : इस मानव शरीर का उपयोग क्या है? इस संसार में हर वस्तु का कोई-ना- कोई उपयोग या दुरुपयोग किया जाता है। यही बात मानव शरीर पर भी लागू होती है। जब हम इसका उपयोग स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए करते हैं तब वास्तव में हम इसका दुरुपयोग करते हैं।
इसका सही दिशा में प्रयोग तभी होता है जब हम आत्म नियंत्रण का अभ्यास करते हैं और इसे पूरे विश्व की सेवा में अर्पित करते हैं। मानव की आत्मा ब्रह्मांड के नियंता परमात्मा का एक अंश है। जब हमारी सारी गतिविधियाँ इस संबंध के एहसास को पुष्ट करती हैं तब हमारा शरीर एक मंदिर बन जाता है।
शरीर की मशीन की कार्यप्रणाली उसके अंगों के तालमेल पर निर्भर करती है। यदि ये सभी अपने क्रम में कार्य करते हैं तो मशीन अपनी लय में काम करती रहती है। यदि इसमें एक का भी क्रम बिगड़ा तो पूरा शरीर ढीला और सुस्त हो जाता है।
हमारे शरीर को गंदगी की खान बताया गया है। यदि इसे सही संदर्भों में देखा जाए तो इस वाक्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यदि शरीर वास्तव में कुछ नहीं बल्कि गंदगी की खान है तो इस बात में कोई शक नहीं कि इसका ख्याल रखना भी कष्टप्रद होगा। लेकिन यदि इस तथाकथित गंदगी की खान का सही उपयोग करना है तो सबसे पहले इसे स्वच्छ और दुरुस्त रखने की आवश्यकता है।
सोने और कोयले की खदान भी सतह पर से साधारण ही दिखती है। इस बात का ज्ञान होने पर कि खदान के भीतर सोना और अन्य कीमती पत्थर हैं, मनुष्य उन खदानों पर लाखों रुपए और दिमाग खर्च करता है ताकि खदान के भीतर के तत्वों को प्राप्त किया जा सके। ठीक इसी तरह हमें अपने शरीररूपी इस मंदिर को स्वस्थ और दुरुस्त रखने के लिए बहुत अधिक कष्ट नहीं सहना पड़ते हैं।
इस संसार में मानव ईश्वर और उसकी कृतियों की सेवा कर अपने ऋणों को चुकाने के लिए आता है। इस विचार को ध्यान में रखते हुए इंसान को अपने शरीर के संरक्षक की भूमिका निभानी होती है। यह उसका फर्ज है कि वह अपने शरीर का ख्याल रखे ताकि वह इसके माध्यम से सेवा का कार्य अपनी योग्यता के अनुसार बेहतर ढंग से कर सके।