आक्रोश : पूरी तरह नहीं बनी बात
बैनर : बिग स्क्रीन एंटरटेनर, ज़ी मोशन पिक्चर्सनिर्माता : कुमार मंगत पाठक निर्देशक : प्रियदर्शन संगीत : प्रीतमकलाकार : अजय देवगन, बिपाशा बसु, अक्षय खन्ना, अमिता पाठक, परेश रावल, रीमा सेन, समीरा रेड्डी (मेहमान कलाकार) केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 25 मिनट * 16 रील रेटिंग : 2.5/5आधुनिक होने का हम भले ही कितना भी दावा कर ले, लेकिन ये आधुनिकता सिर्फ कपड़ों या शॉपिंग मॉल्स के रूप में ही नजर आती है। सोच और विचारों में अभी भी भारत के ढेर सारे लोग रूढ़िवादी है। जाति, धर्म, छुआछुत और ऊँच-नीच की जड़े अभी भी फैली हुई हैं। सिर्फ नाम बताया जाए तो सामने वाला सरनेम भी पूछता है और उसके आधार पर व्यक्ति का आँकलन करता है। ऑनर किलिंग के नाम पर अपने ही परिवार के सदस्यों की हत्या करते हुए लोगों के हाथ नहीं काँपते हैं। ‘आक्रोश’ फिल्म के अंत में एक संवाद है कि हमें तब तक अपने आपको आजाद नहीं मानना चाहिए जब तक कि इस तरह बातें हमारे समाज में मौजूद हैं, जो सही भी है। कॉमेडी के ट्रेक को छोड़ निर्देशक प्रियदर्शन ने ‘आक्रोश’ के जरिये ऑनर किलिंग पर फिल्म बनाई है, लेकिन इस विषय को लेकर जिस तरह की हार्ड हिटिंग फिल्म होनी थी, वो प्रभाव फिल्म पैदा नहीं कर पाई। तीन छात्र झाँझर गाँव से लापता हो जाते हैं। इस मामले को सीबीआई को सौंपा जाता है। दो ऑफिसर्स सिद्धांत चतुर्वेदी (अक्षय खन्ना) और प्रताप कुमार (अजय देवगन) जाँच करने के लिए झाँझर आते हैं, लेकिन उनके लिए यह काम आसान नहीं रहता।
गाँव की पुलिस, नेता और प्रभावशाली लोग आपस में मिले हुए हैं और इस बारे में कोई बोलने को तैयार नहीं है। सिद्धांत और प्रताप पीछे नहीं हटते और तमाम मुश्किलों के बावजूद मामले की तह तक जाते हैं। बिहार की ग्रामीण की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह छोटे गाँवों में ऊँची जातियों के लोगों द्वारा दलितों के मन में खौफ पैदा किया जाता है। जाति के नाम पर हत्या करना इनके लिए मामूली बात है, लेकिन ऑनर किलिंग के मुद्दे को सतही तौर पर छूआ गया है जबकि फिल्म को प्रचारित करने में यह बात जोर-शोर से कही गई है कि यह ऑनर किलिंग पर आधारित है। इसलिए जो अपेक्षा लेकर दर्शक इस फिल्म को देखने जाता है उसे थोड़ी निराशा होती है। यदि ऑनर किलिंग का बैकड्रॉप हटा दिया जाए तो यह सीधे-सीधे दो हीरो बनाम भ्रष्ट पुलिस/नेता की कहानी हो जाती है जो हम हजारों फिल्मों में अब तक देख चुके हैं। फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले सहूलियत के मुताबिक लिखा गया है और ड्रामें में इतना दम नहीं है कि पूरी तरह दर्शकों को बाँधकर रखे। कही जगह फिल्म ठहरी हुई लगती है और कम से कम 20 मिनट छोटा कर इसमें कसावट लाई जा सकती थी। यदि फिल्म के सकारात्मक पहलू की बात की जाए तो कुछ सीन दमदार बन पड़े हैं। अभिनय की दृष्टि से फिल्म बेहद सशक्त है और संवाद कई जगह सुनने लायक हैं। फिल्म के एक्शन सीक्वेंस अच्छे बन पड़े हैं। बतौर निर्देशक प्रियदर्शन ने कहानी को अच्छे से स्क्रीन पर पेश किया है, लेकिन यदि उन्हें बेहतर स्क्रीनप्ले का साथ मिल जाता तो बात ही कुछ और होती। अजय देवगन ने अपनी आँखों और बॉडी लैंग्वेज के जरिये अपने किरदार में जान डाल दी है। नियम से चलने वाले ऑफिसर का रोल अक्षय खन्ना ने भी अच्छे से निभाया है। दोनों की जोड़ी अच्छी लगती है। परेश रावल इस फिल्म की जान है। अपने खलनायकी भरे तेवर उन्होंने हास्य के साथ इस तरह पेश किए हैं कि हँसी के साथ-साथ उन पर गुस्सा भी आता है।
फिल्म में पुरुष किरदारों का बोलबाला है, इसलिए महिला किरदार को पर्याप्त अवसर नहीं मिले हैं। बिपाश बसु का रोल छोटा है, लेकिन उनकी अभिनय प्रभावी है। हालाँकि बिपाशा का रोल ठीक से लिखा नहीं गया है। अपने पति से वे इतना डरती क्यों हैं, ये स्पष्ट नहीं है। रीमा सेन भी असर छोड़ती हैं। अमित पाठक के पास ज्यादा करने को कुछ नहीं था। प्रियदर्शन ने इस बार अपनी टीम के स्थापित कलाकारों (राजपाल यादव, ओमपुरी, मनोज जोशी, असरानी) के बजाय चरित्र भूमिकाओं में अन्य कलाकारों को लिया है और सभी ने अच्छा अभिनय किया है। समीरा रेड्डी पर एक सेक्सी गीत फिल्माया गया है। संगीत के नाम पर फिल्म निराश करती है जबकि बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। कुल मिलाकर ‘आक्रोश’ अपने विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाती है इसके बावजूद प्रयास की सराहना की जा सकती है।