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Written By Author जयदीप कर्णिक

जापान के जज्बे पर तैरती मन की सुनामी

जापान
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यही इंसानी जज्बा है जो हर भँवर के बीच उम्मीद का हाथ बढ़ाकर जिंदगी को बाहर खींच लाता है। यही वो जज्बा है जो रेगिस्तान में फूल खिलाता है और समंदर पर सेतु बनाता है।

जापान में सुनामी की लहरों से होने वाली तबाही के खौफनाक मंजर को टीवी पर 'लाइव' देखना मन में अजीब तरह के भाव पैदा कर रहा था। अव्वल तो जब ऊँची-ऊँची तरंगों को तेजी से तट पर पहुँचकर तबाही मचाते या बड़े-बड़े पानी के जहाजों को लहरों के साथ राजमार्ग पर आते हुए देखा तो मन को बार-बार ये समझाना पड़ रहा था कि ये कोई हॉलीवुड फिल्म के दृश्य नहीं हैं और न ही ये कोई एनिमेशन है, ये तो प्रकृति की विनाशलीला है जिसमें सचमुच के इंसान और उसकी बसाई दुनिया तबाह हो रही है।

तकनीक ने भी क्या गजब किया है। दुनिया में पहली बार सुनामी की त्रासदी को इस तरह टीवी पर देखा गया। जैसे-जैसे ये दृश्य और उनसे जुड़ी भयावहता सामने आ रही थी, मन में मनुष्य की नश्वरता के भाव और गहरे हो रहे थे। ये श्मशान-वैराग्य से अलग था। बहुत अलग। जब कोई कली चटक कर फूल बनती है, जब माँ बच्चे को जन्म देती है, जब कोई बीज अंकुरित होता है तो मन सृजन के उल्लास से भर जाता है।

उल्लास और आनंद के यही पंख लगाकर मन स्वप्न सजाता है, उन्हें हकीकत में बदलता है, निर्माण करता है। ऊँची इमारतें तानता है। बाँध बनाता है। पहाड़ चीरता है। पानी का वेग बदलता है। फिर ऐसी प्रलय की सुनामी आती है और सबकुछ बहाकर ले जाती है। जैसे वो सब समंदर किनारे बनाए हुए घरौंदे हों या फिर ताश के पत्तों की इमारत। मन में भँवर उठने लगते हैं। ये भँवर और बड़े होते जाते हैं।

जापान की सुनामी लहरों के बीच उठे बड़े-बड़े भँवरों की तरह विशाल। और इसी भँवर के बीच एक खालीपन भी तैरता है...अजीब-सा खालीपन। पूरी तरह खाली...निर्वात....वैक्यूम। इस खालीपन के इर्द -गिर्द कई सवाल घुमड़ते हैं। हम किस बात पर अकड़ते हैं? कहाँ तेजी से भागे जा रहे हैं? ये कौन-सी दौड़ है जो जीत लेना चाहते हैं? किस बात पर घमंड करते हैं? किसे नीचे दिखाना चाहते हैं? अहं की ऐसी कौन-सी इमारत है जो हकीकत की सुनामी से टकराकर ध्वस्त नहीं होगी?

सुनामी शायद होती ही इसलिए है कि हमें अपने बौने होने का एहसास करवा दे। लगता है कि हम कितने असहाय हैं? महेश भट्ट ने अपने ट्वीट में भी यही फलसफा दिया है- ऐसी त्रासदियाँ हमें मौन रहने पर मजबूर करती हैं और शब्दों के अर्थों को तहस-नहस कर देती हैं।

खालीपन के इर्द-गिर्द घूमते यही सवाल जब मन को भँवर में और गहरे खींचने की तैयारी कर रहे थे कि तभी इस खालीपन को भरने वो खबरें आईं कि जिनकी उँगली थामकर इस भँवर से बाहर निकला जा सकता था। निर्वात को खत्म करने वाली सौंधी-सी बयार भी थी, जो इस विध्वंस के बीच बह रही थी।

खबरें आईं कि किस तरह जापान ने खुद को इस तरह के भूकम्प और त्रासदी के लिए तैयार कर रखा था जिसकी वजह से बहुत सारी जिंदगियाँ बच गईं। किस तरह जापान के लोग भूकम्प को सहने और उससे बचने के लिए तैयार रहते हैं। किस तरह उन्होंने अपने तकनीकी कौशल का इस्तेमाल भूकम्प और सुनामी से निपटने के लिए किया है। वो अभ्यस्त हैं इस तरह की त्रासदियों के और इसके लिए सतत उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है।

शुक्रवार को आई सुनामी अनुमान से कहीं बड़ी और भयावह निकली, फिर भी जापानियों ने तुरंत सबकुछ सामान्य करने की दिशा में काम किया। प्रकृति तबाही मचा रही थी, देखने वाले स्तब्ध थे, पर जापान के लोगों ने गजब का अनुशासन दिखाया। कहीं अफरा-तफरी नहीं मची, नहीं तो ऐसे में तो कई लोग भगदड़ में ही मर जाते। दुनिया ने भी मदद का हाथ बढ़ाया।

...यही इंसानी जज्बा है जो हर भँवर के बीच उम्मीद का हाथ बढ़ाकर जिंदगी को बाहर खींच लाता है। यही वो जज्बा है जो रेगिस्तान में फूल खिलाता है और समंदर पर सेतु बनाता है। जब तक ये जज्बा कायम है...फूल के चटक कर कली बनने का, बीज के अंकुर बनने का, नवजीवन की किलकारी का, नया सुर रचने का, नई कविता रचने का, नई पेंटिंग बनाने का आनंद और उमंग कायम है।

यों तो त्रासदी का हासिल क्या हो सकता है, सिवाय दुःख के, लेकिन ऐसी सुनामी अगर हमारे अहं को बहा ले जाए, हमें जीवन की नश्वरता याद दिलाए, मानव सेवा के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रेरित करे तो तमाम दुःख के बावजूद बची हुई दुनिया के लिए ये बड़ा हासिल होगा।