दिल्ली में बलात्कार के ख़िलाफ उठ खड़े हुए युवा
नौजवानों ....मशाल जलाए रखो
दिल्ली के इंडिया गेट पर एक बार फिर युवा उमड़ पड़े हैं और जोशिले अंदाज में अपना आक्रोश प्रकट करते हुए नुक्कड़ नाटक खेलकर दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ विरोध दर्ज करवा रहे हैं। उनमें गुस्सा है, आक्रोश है, बलात्कार की उस घटना को लेकर जो बीते दिनों दिल्ली में हुई। गुस्से की यह चिंगारी पूरे देश में फैल चुकी है। चलती बस में गैंगरेप की शिकार हुई 23 साल की यह लड़की अभी भी अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रही है। इस घटना ने जिस तरह के विरोध और आक्रोश को जन्म दिया है वो अभूतपूर्व है और बहुत आवश्यक भी है। घटना शर्मनाक है, घृणित है, झकझोरने वाली है, गुस्सा दिलाती है, भयभीत भी करती है, जबर्दस्त झुंझलाहट भी होती है.... लेकिन ये झुंझलाहट यों ही अंदर दब के रह जाएगी तो क्या फायदा?
इस घटना पर संसद में बहुत गंभीर बहस हुई। महिला सांसदों ने कड़े तेवरों के साथ इस मुद्दे को उठाया। गृहमंत्री को बयान देना पड़ा। सोनिया गांधी ने शीला दीक्षित और शिंदे दोनों से बात की। इस सारी राजनीतिक और प्रशासनिक हलचल का नतीजा रहा कि चार आरोपी गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन महत्व इस हलचल का नहीं है। ... महत्व है युवाओं के आक्रोश का। उनके जागने का।राजनीतिक और प्रायोजित प्रदर्शनों से दूर क्लास रूम और कैंपस से बाहर उतर आने वाले युवाओं को पूरी बुलंदी के साथ आवाज उठाते हुए देखना सुकून भरा है। घटना शर्मनाक है, घृणित है, झकझोरने वाली है, गुस्सा दिलाती है, भयभीत भी करती है, जबर्दस्त झुंझलाहट भी होती है.... लेकिन ये झुंझलाहट यों ही अंदर दब के रह जाएगी तो क्या फायदा? इसीलिए युवाओं का आगे आना सुकून भरा है। ये सीधे उन्हीं से जुड़ा हुआ मुद्दा है। .... लड़ना होगा... सड़क पर आकर। सभी युवा उद्वेलित हैं।कुछ भावावेश में समूचे लोकतंत्र और सारी व्यवस्था को ही कोस रहे हैं। ... मुद्दे पर दृष्टि गड़ा कर गंभीर बात करनी होगी। ... लेकिन ठीक है। ये युवकोचित आक्रोश भी जरूरी है। चीखना भी जरूरी है। क्योंकि सरकार के पास, व्यवस्था के पास बहुत काम हैं.... घोटाले संभालने के, कुर्सी बचाने के, अगले चुनाव की तैयारी करनी है... बहुत व्यस्तता है। ...ध्यान खींचने के लिए मेहनत करनी होगी। बलात्कार एक बहुत गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अपराध है। घटते स्त्री-पुरुष अनुपात और बढ़ती कुंठाओं के बीच स्त्रियां समाज में दिन-ब-दिन असुरक्षित होती जा रही हैं। असुरक्षित तो वो घर में भी हैं, पर उस स्तर पर लड़ाई को बहुत अलग तरीके से लड़ना होगा।आमिर खान ने सत्यमेव जयते में इस मसले कि ओर इशारा किया भी था। पर जो समाज में, सड़कों पर खुले आम हो रहा है उस पर पहली बंदिश तो व्यवस्था के ख़ौफ से ही लगाई जा सकती है। निश्चित ही इससे समस्या पूरी तरह हल नहीं हो पाएगी। पर शुरुआत यहीं से होगी। बरसों तक दोषी को सजा नहीं मिल पाती। उसे तुरंत सजा मिले तो कुछ और सफलता मिलेगी। इतना तो व्यवस्था को करना ही होगा कि देर रात को लड़कियां आराम से घूम सकें और उनको देखकर जिस किसी के मन में बलात्कार का हैवान जागे वो व्यवस्था की सख़्ती और तुरंत मिलने वाली कड़ी सजा के कारण उसे त्याग दे। हम यकीन दिला सकें कि इस जहान में आने पर बेटी महफूज है हम उसके पंख नहीं नोचेंगे और उसे खुले आसमान में उड़ने की पूरी आजादी देंगे।
...
बाकी जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्तर पर होना है वो धीमी और लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए भी जागरूकता पहली सीढ़ी है। इस तरह के आंदोलन और आक्रोश जागरूकता लाने में मदद करेंगे।बेटी को दुनिया में लाने से पहले ही ख़त्म कर देने की दरिंदगी भी कम होगी अगर हम ये यकीन दिला सकें कि इस जहान में आने पर वो महफूज है। हम उसके पंख नहीं नोचेंगे और उसे खुले आसमान में उड़ने की पूरी आजादी देंगे। समूचे समाज का आंदोलित होना जरूरी है। युवा इसकी अगुआई करें तो पूरा हिंदुस्तान नई अंगड़ाई ले सकता है। युवाओं को लेकर बहुत बातें होती हैं, आंदोलनों में उनका इस्तेमाल भी होता है। पर वो खुद आगे आकर बदलाव का परचम कम ही थामते हैं। ... पर जब भी थामते हैं। बदलाव होकर रहता है... आमीन।