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Written By सुरेश बाफना

वोटों की अंधी दौड़ कब तक चलेगी?

वोटों की अंधी दौड़ कब तक चलेगी? -
भारतीय राजनीति में वोट का नशा इतना अधिक हावी हो गया है कि विवेक व तर्क के लिए कोई जगह नहीं बची है। मनमोहन सरकार द्वारा पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस के दामों में की गई बढ़ोतरी के बाद प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के प्रवक्ता की टिप्पणी थी कि यह आर्थिक आतंकवाद है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि मनमोहन सरकार ने अपने ताबूत पर अंतिम कील ठोंक दी है।

वामपंथी दलों ने पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरल में बंद की घोषणा करके वोट
  दिलचस्प बात यह है कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था को खत्म करने का निर्णय लिया था। यदि उस निर्णय को लागू कर दिया जाए तो आज रसोई गैस के सिलेंडर की कीमत 600 रुपए से अधिक होती      
की दौड़ में सबसे आगे रहने का संकल्प किया। तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी इस वोट-दौड़ में कैसे पीछे रहतीं, उन्होंने भी पश्चिम बंगाल बंद की घोषणा कर दी। पश्चिम बंगाल भाजपा भी चलती गाड़ी में बैठ गई। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान जब पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाए जाते थे, तब कांग्रेस भी इसी अंदाज में विरोध प्रकट करती थी। पश्चिम बंगाल की जनता को लगातार दो दिन तक बंद का सामना करना पड़ा।

पिछले दो साल की अवधि के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तीन गुना बढ़ गए। सरकारी तेल कंपनियों का नुकसान 2 लाख 45 हजार करोड़ तक पहुँच गया। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में बढ़ोतरी से केवल 22 हजार करोड़ रुपए ही प्राप्त होना हैं। कुल नुकसान की 85 प्रतिशत भरपाई किसी न किसी रूप में सरकारी खजाने से ही होना है। लगभग 1 लाख करोड़ रुपए के ऑइल बॉण्ड जारी किए जा रहे हैं, जिसका अर्थ है कि हमने अपना खर्च भावी पीढ़ी के कंधों पर डाल दिया है।

सरकार ने आयात व उत्पाद शुल्क में कटौती कर 22 हजार करोड़ रुपए का राजस्व छोड़ा है। आज दुनिया बड़े तेल संकट के दौर से गुजर रही है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे राजनीतिक दल इस विश्व संकट का मिल-जुलकर सामना करने की बजाय चुनावी फायदा उठाने की दौड़ में शामिल हो गए हैं। थोड़ा-सा भी विवेक रखने वाला व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि वर्तमान हालात में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाने के सिवाय सरकार के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था।

दिलचस्प बात यह है कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था को खत्म करने का निर्णय लिया था। यदि उस निर्णय को लागू कर दिया जाए तो आज रसोई गैस के सिलेंडर की कीमत 600 रुपए से अधिक होती। लोकसभा चुनाव की विवशता के चलते वाजपेयी सरकार ने अपने निर्णय को ही लागू करने से इंकार कर दिया था। इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने दो महीने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम नहीं बढ़ाए। आज यदि भाजपा की सरकार होती तो यही निर्णय लेती, जो मनमोहन सरकार ने लिया है।

यह बात समझ से परे है कि पेट्रोल व डीजल पर भारी सबसिडी का समर्थन
  आज हमारे सामने सवाल यह नहीं होना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ने चाहिए या नहीं? सवाल यह होना चाहिए कि आखिर हम कितनी ऑइल सबसिडी बर्दाश्त कर सकते हैं और क्या इस सबसिडी का लाभ गरीबों को मिल रहा है?      
करके वामपंथी दल किन गरीबों व मजदूरों का समर्थन कर रहे हैं? पेट्रोलियम सबसिडी का सीधा अर्थ है कि शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य कल्याणकारी योजनाओं के खर्च में कटौती होना। सरकार के निर्णय का विरोध करने वाली भाजपा ने आज तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ी कीमतों के संकट का समाधान किस वैकल्पिक नीति के माध्यम से संभव था?

माकपा ने जरूर यह सुझाव दिया कि घरेलू निजी तेल कंपनियों के मुनाफे पर कर लगाकर धन जुटाया जा सकता है। माकपा का यह सुझाव इसलिए व्यावहारिक नहीं माना गया कि निजी तेल शोधक कंपनियाँ अपना अधिकांश उत्पाद निर्यात करके मुनाफा अर्जित कर रही हैं।

वोट की इस अंधी दौड़ में उम्मीद की कुछ किरणें भी दिखाई दीं। कांग्रेस शासित राज्यों ने जब पेट्रोलियम पदार्थों पर बिक्री कर में कटौती करने का ऐलान किया तो भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह ने भी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को निर्देश दिया कि वे भी बिक्री कर में कटौती करें। अजीब विरोधाभास है कि केंद्रीय स्तर पर करों में कटौती की माँग करने वाले वामपंथी दल व भाजपा शासित राज्यों में पेट्रोलियम पदार्थों पर बिक्री कर 25 से 30 प्रतिशत के बीच है। भाजपा व वामपंथी दल शासित राज्य सरकारों द्वारा बिक्री कर में कटौती करने के निर्णय का अर्थ यह भी है कि इन दलों ने इस तथ्य को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया है कि तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय समस्या है, जिसका हल मिलकर ही संभव है।

1974 के बाद आए इस ऑइल शॉक से दुनियाभर को सबक लेने की आवश्यकता है। अर्थशास्त्री फिलहाल इस बात पर सहमत हैं कि निकट भविष्य में तेल की कीमत प्रति बैरल 125 डॉलर से नीचे जाने वाली नहीं है। भारत और चीन में बढ़ती माँग को देखते हुए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि कच्चे तेल की कीमत प्रति बैरल 200 डॉलर तक भी पहुँच सकती है। तेल की बढ़ती कीमतों ने दुनिया के उन देशों की अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है, जो आयात पर निर्भर है। भारत अपनी जरूरत का 70 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है।

ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया के तेल संसाधनों पर
  ओपेक देश अपनी मर्जी के अनुसार तेल उत्पादन की मात्रा में कमी और बढ़ोतरी करते रहते हैं। कच्चे तेल का बाजार मुक्त बाजार व्यवस्था के नियमों के तहत नहीं, बल्कि तेल उत्पादक देशों के कॉर्टेल द्वारा निर्धारित होता है      
वर्चस्व जमाने की होड़ चल रही है। तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने आयात पर निर्भर रहने वाले देशों को इस बात के लिए मजबूर कर दिया है कि वे न केवल वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के दोहन पर गंभीरता के साथ विचार करें, बल्कि विकास की वर्तमान अवधारणा में भी बुनियादी परिवर्तन करें। दुखद तथ्य यह है कि आर्थिक सुधारों की आड़ में केंद्र सरकार ने यातायात के निजी साधनों को बढ़ावा दिया है।

आज दिल्ली शहर में ही वाहनों की कुल संख्या 55 लाख से अधिक हो गई है। हमारे नीति-निर्धारक चाहते हैं कि अमेरिका की तरह भारत में भी लोग हजार किलोमीटर की यात्रा अपनी कार से करें। सब्जी लाने के लिए एक लीटर पेट्रोल खर्च करें। अन्य शहरों की बात छोड़ दीजिए, देश की राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक बस व्यवस्था इतनी खटारा है कि हर आदमी अपना वाहन खरीदना चाहता है। संपन्न परिवारों में बच्चों के लिए अलग कार रखने का रिवाज भी शुरू हो गया है।

दुनिया में आज सबसे बड़ा बिजनेस गिरोह (कॉर्टेल) अगर कोई है तो वह तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक है। ओपेक देश अपनी मर्जी के अनुसार तेल उत्पादन की मात्रा में कमी और बढ़ोतरी करते रहते हैं। कच्चे तेल का बाजार मुक्त बाजार व्यवस्था के नियमों के तहत नहीं, बल्कि तेल उत्पादक देशों के कॉर्टेल द्वारा निर्धारित होता है।

आज हमारे सामने सवाल यह नहीं होना चाहिए कि पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ने चाहिए या नहीं? सवाल यह होना चाहिए कि आखिर हम कितनी ऑइल सबसिडी बर्दाश्त कर सकते हैं और क्या इस सबसिडी का लाभ गरीबों को मिल रहा है? वास्तविकता यह है कि ऑइल सबसिडी का लाभ गरीबों के नाम पर अमीरों को मिल रहा है। सस्ता केरोसिन पेट्रोल में मिलाकर बेचा जा रहा है।

घरेलू बाजार में यदि पेट्रोलियम पदार्थों के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुरूप होते तो माँग में कमी होती और दाम गिरने की संभावना होती। इस तर्क में दम है कि हम ऑइल सबसिडी देकर तेल उत्पादक देशों को मालामाल कर रहे हैं। तेल सबसिडी देने की बजाय सरकार यदि उतनी ही राशि का नकद वितरण गरीबों को सीधे कर दे तो अधिक बेहतर होगा।