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Written By अनिल त्रिवेदी
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (14:41 IST)

भाजपा... अब राह कौनसी जाऊँ

भाजपा... अब राह कौनसी जाऊँ -
भाजपा के राजनीतिक क्षितिज से अटलबिहारी वाजपेयी के सर्वमान्य राजनीतिक कद एवं चेहरे को एकाएक हटाकर इतिहास की वस्तु बना दिया गया है। इतिहास बनाने वाला नेता अपने जीवनकाल में ही इतिहास की वस्तु बन जाए यह हमारे आज के राजनीतिक आचरण की क्रूर त्रासदी है।

भाजपा के संसदीय बोर्ड द्वारा लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का निर्णय इस रूप में महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्हें पार्टी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देखती है। इसका ऐतिहासिक महत्व यह है कि आधी शताब्दी से भी अधिक समय से जनसंघ-भाजपा के एकछत्र राष्ट्रीय नेता अटलबिहारी वाजपेयी जिन्हें देश के उदारवादी राजनीतिक तबके सहित आम जनता ने भी देश के नेता के रूप में स्वीकार किया था, उन्हें एकाएक रिमोट कंट्रोल से एक चैनल से दूसरा चैनल बदलने, लगाने की शैली में बिदाई दे दीगई।

अटलजी को संसदीय दल के फैसले की सूचना देने स्वयं भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह गए और अटलजी को सूचित करने के बाद भाजपा संसदीय दल ने लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा की ओर से देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। जिस यंत्रवत तरीके से एकाएक यह निर्णय हुआ और यह सार्वजनिक रूप से भी घोषित किया गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुहर एवं स्वीकृति के पश्चात ही आडवाणीजी को भाजपा का उम्मीदवार प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित किया गया।

इस निर्णय ने भाजपा के राजनीतिक क्षितिज से अटलबिहारी वाजपेयी के सर्वमान्य राजनीतिक कद एवं चेहरे को एकाएक हटाकर इतिहास की वस्तु बना दिया है। इतिहास बनाने वाला नेता अपने जीवनकाल में ही इतिहास की वस्तु बन जाए यह हमारे आज के राजनीतिक आचरण की क्रूर त्रासदी है।

अटलजी का शारीरिक स्वास्थ्य पिछले दो-तीन वर्षों से जिस तरह कमजोर हो रहा था उसके बावजूद वे देश के और भाजपा में सर्वमान्य कद्दावर नेता थे एवं उनके व्यक्तित्व को राजनीतिक परदे के मुख्य पात्र से हटाना या बिदा करना आज की भाजपा के संसदीय बोर्ड के बूते की बात नहीं थी। फिर भी एकाएक क्या हुआ कि अटलजी को भाजपा के राष्ट्रीय राजनीति के आकाश से अचानक ऐसे गायब करने के निर्णय की तत्काल जरूरत पड़ी।

देश के राजनीतिक क्षेत्रों एवं मीडिया के किसी भी कोने से अटलजी की ऐसी निर्मम राजनीतिक बिदाई की चर्चा भी नहीं होना आज की सत्ता की राजनीति का निर्मम चरित्र उजागर करता है। आडवाणीजी के प्रधानमंत्री पद हेतु भाजपा की उम्मीदवारी का जयघोष देशभर में तेजी के साथ किया जाकर उसे गुजरात चुनाव से जोड़ने का सतही एकालाप एकाएक प्रारंभ कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम के निहितार्थ भविष्य के घटनाक्रम की दिशा निर्धारित करेंगे।

जनसंघ भाजपा के जमाने से यह भाजपा का दावा था कि अटल-आडवाणी की अनूठी जोड़ी देश के साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी एक बेमिसाल उदाहरण है। हाल के कुछ महीनों में राजनीतिक हलकों में यह सवाल भी नहीं उठा कि अब अटलजी राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो गए और आगे राजनीतिक में सक्रिय नहीं रहना चाहते।

स्वयं अटलजी ने भी ऐसी कोई इच्छा या तत्परता तत्काल के घटनाक्रम में नहीं दर्शाई थी। फिर ऐसा क्या हुआ कि तत्काल भाजपा संसदीय दल को अटलजी के राजनीतिक चेहरे को हटाकर आडवाणीजी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करने की जरूरत पड़ी।

गठबंधन की राजनीति के इस दौर में एक दल के संसदीय बोर्ड द्वारा एक ऐसे विषय पर एकतरफा निर्णय घोषित करना क्या भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य दिशा की ओर कदम बढ़ाने का स्पष्ट संकेत है या भाजपा भी कांग्रेस की तरह गठबंधन राजनीति के चक्रव्यूह से हटकर आगामी लोकसभा चुनावों में एकला चलो के रास्ते पर कदम बढ़ाना चाहती है।

अटलबिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति में कट्टरवादी छवि की पार्टी के नेता होने के बाद भी कट्टरवादियों के साथ-साथ देश के उदारवादियों की राजनीतिक श्रद्धा एवं सहयोग के पात्र थे। जिन्ना प्रकरण में भाजपा के कट्टरवादियों तथा संघ परिवार के संगठनों ने आडवाणीजी के प्रति जो तेवर अपनाए थे और उस विपरीत राजनीतिक काल में लालकृष्ण आडवाणी एकाएक संघ एवं भाजपा की राजनीति द्वारा एकाकी राजनेता की मुद्रा में खड़े कर दिए गए थे और भाजपा में सामूहिक नेतृत्व के उदय की हलचल प्रारंभ हो गई थी। पर न तो भाजपा में सामूहिक नेतृत्व का उदय हो सका, न ही भाजपा की राजनीति में अटलजी का दबदबा खत्म हुआ और न ही आडवाणीजी का राजनीतिक कद ऐसा बढ़ा कि लोगों के मन से अटलजी के प्रति श्रद्धा का दबदबा खत्म हो जाए और सामूहिक नेतृत्व की योजना समाप्त हो जाए।

सत्ता की राजनीति बड़ी निर्मम है, इसमें जो बनना चाहता है उसे परिस्थितियाँ स्वाभाविक अवसर नहीं देती। झारखंड में आज निर्दलीय विधायक प्रदेश का मुख्यमंत्री है। सारी पार्टियों के संसदीय दल के उम्मीदवार अपनी नियति को मन मसोसकर देख रहे हैं और गठबंधन धर्म की कीमतचुका रहे हैं। जब गठबंधन की राजनीति नहीं थी और एक ही पार्टी का वर्चस्व था तब पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद बिना पूर्व उम्मीदवारी के लालबहादुर शास्त्री का नाम प्रधानमंत्री के लिए आया तो देश चौंक गया था। नरसिंहराव को लोकसभा के उम्मीदवार के योग्य भी, स्वास्थ्य के कारण नहीं समझने वाले संसदीय दल द्वारा राजनीति की करवट के दौर में देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था।

भारत की राजनीति का चरित्र ऐसा अनोखा और रोचक है जिसमें कभी भी प्रधानमंत्री पद की पूर्व उम्मीदवारी घोषित नहीं की जाती। आज भारत की राजनीति में प्रधानमंत्री बनाने के सूत्र किसी संसदीय बोर्ड भी इच्छा, रणनीति और निर्णय से नहीं देश की आज की अत्यंत तरल राजनीति के तत्वों को बटोरने की क्षमता रखने वाले राजनीतिक समूह के हाथ में होती है। विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री का पद मिलना इसका सबसे अनोखा उदाहरण है जिसमें जन मोर्चे को भाजपा और मार्क्सवादियों जैसे दो विपरीत ध्रुवों के राजनीतिक संतुलन की वजह से भारत का प्रधानमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ था।

देश की राजनीति में दो-दो राष्ट्रीय गठबंधन होने के बाद भी तीसरे मोर्चे की हाँडी राजनीतिक चूल्हे पर पकाने की तैयारी चल रही है। ऐसे में भारतीय सत्ता की राजनीति में त्रिभुज की कौनसी दो भुजाएँ मिलकर तीसरी भुजा को छोटा कर देंगी यह किसी को पता नहीं है। देश की राजनीति में दो-दो राष्ट्रीय गठबंधन होने के बाद भी राजनीतिक अनिश्चितता और असंभव घटनाक्रम घटने का दौर चल रहा है। आज की संसद में छियालीस राजनीतिक दल चुनाव जीतकर आए हैं।

अगली संसद में दो-चार और नए राजनीतिक दल चुनाव जीतकर आ गए तो गठबंधनों की गठानें एक-दूसरे में जुड़ने, अलग होने की जोड़-तोड़ में खुल और लग सकती हैं। भारतीय सत्ता की राजनीति का यह गणित परिकल्पना नहीं है। आज की वस्तुस्थिति और भारतीय राजनीति की यह वस्तुस्थिति, दशा और दिशा किसी से छुपी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में किसी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया जाता है तो केवल यही कहा जा सकता है कि 'मर्जी' है आपकी।