बुधवार, 24 अप्रैल 2024
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Written By आलोक मेहता

प्रतिबंध की राजनीतिक नौटंकी

प्रतिबंध की राजनीतिक नौटंकी -
विजयादशमी के पावन पर्व पर बजरंग दल ने केन्द्र सरकार को ललकारा- 'हमारे संगठन पर प्रतिबंध लगाने का दुस्साहस न करो, वरना 'गंभीर परिणाम' होंगे। जब तुम सिमी के खिलाफ अदालत में सबूत पेश नहीं कर पाए, तो हमारे विरुद्ध कौन-सा प्रमाण पेश कर सकोगे?' सचमुच बजरंग दल 'हिम्मतवालों' की पार्टी है। दशहरे के दिन ही आगरा में बजरंग दल का भगवा दुपट्टा लपेटे पचासों बजरंगी खुली गाड़ियों में बंदूक और पिस्तौल ताने घूमते रहे और मायावती की बहादुर सरकार ने उनका रास्ता रोकने या हथियारों के लाइसेंस माँगने का साहस नहीं दिखाया।

  सवाल यह भी है कि बजरंग दल पर प्रतिबंध से क्या किसी धार्मिक उन्माद को रोका जा सकेगा? कुछ नेता या उनके सलाहकार कुछ हफ्ते अपनी पीठ थपथपा लेंगे, लेकिन घृणा फैलाने वाले तत्वों ने तो अनगिनत नामों से मंडलियाँ बना रखी हैं।      
उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश या आंध्र-तमिलनाडु में भी जब राजनीतिक छत्रछाया वाले डाकू राइफलों से हवाई फायर करते या किसी बस्ती अथवा उपासना स्थल को जलाते हुए आगे बढ़ते हैं, तब उन्हें कोई नहीं रोकता। सिमी या ऐसे ही नए-पुराने नाम वाले संगठनों से जुड़े कुछ लोग सैकड़ों वर्षों से शांतिप्रिय रहे मेरे अपने मालवा क्षेत्र (उज्जैन-रतलाम-इंदौर) में महीनों तक छिपकर षड्यंत्र रचते रहे, लेकिन चार साल पहले किसी भी चौकस पुलिस अधिकारी ने समय रहते उन्हें गिरफ्तार कर दंडित नहीं करवाया।

दशहरे के दिन मुंबई में बाल ठाकरे परिवार के दो खेमों में बँटे परिजनों ने एक बार फिर उत्तर भारतीयों को धमकी दी -'अभी तो ट्रेलर देखा है। मुंबई केवल हमारे बाप-दादाओं की है। इन बाहरी दो करोड़ लोगों को झुककर, दबकर रहना होगा, वरना...।' इसी तर्ज पर कश्मीर घाटी में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी धमका रहे हैं-'कश्मीर सिर्फ हमारा है, दिल्लीवालों को बर्दाश्त नहीं करेंगे।'

मतलब हर तरफ से सरकार को धमकी मिल रही है। ऐसी स्थिति में बुधवार की रात 10 बजे हमारे अखबार (नईदुनिया) के एक वरिष्ठ संवाददाता ने कहा-'कैबिनेट की बैठक अभी देर रात तक चलने के आसार हैं। बजरंग दल के प्रस्ताव पर विचार हो रहा है।

इस खबर के लिए अखबार को छपने से कितनी देर रात तक रोका जाए।' मैंने कुर्सी से उठते हुए उन्हें स्नेहपूर्वक समझाया- 'आप दिनभर काम कर चुके हैं। यदि सपना ही देखना है, तो घर पहुँचकर खाना खाकर आज जल्दी सो जाएँ और यदि जल्दी सोने की आदत नहीं है, तो रावण-दहन की पूर्व संध्या पर पास में ही चल रही रामलीला देख आएँ। सत्ता के गलियारों में चल रही राजनीतिक नौटंकी से कुछ काम की बात नहीं निकलने वाली है।' हमारे साथी घर चले गए। उन्हें अधकचरी नाटकबाजी देखने का कोई उत्साह नहीं था।

देर रात समाचार एजेंसियों से यही खबर मिली कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने बजरंग दल पर प्रतिबंध के लिए देर रात तक विचार किया और कोई फैसला नहीं हो पाया। मंत्रियों में मत-भिन्नता देखने को मिली। हाँ, उड़ीसा में हुई हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं को जानने-समझने के लिए मंत्रियों का एक दल वहाँ जाएगा।

धन्य हैं हमारे देश के राष्ट्रीय स्तर के मंत्री, जिन्हें उड़ीसा में हफ्तों से चल रही हिंसा के कारणों को समझने के लिए स्वयं घटना-स्थल पर जाना पड़ेगा। सक्षम सरकार अपने दोस्त जॉर्ज बुश के दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से उड़ीसा के संबंध में भेजी जा रही रिपोर्टों की प्रतिलिपि ही कृपापूर्वक प्राप्त कर ले, तो अपने मंत्रियों को उड़ीसा जाने का कष्ट ही नहीं उठाना पड़े।

पता नहीं भारत में अमेरिकी गुप्तचर संगठन एफबीआई का दफ्तर होने के बावजूद भारत सरकार के बड़े गुप्तचर उससे कितना तालमेल रख पाते हैं? यहाँ तो एक काडर के रहते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों के आला अफसर समन्वय नहीं रख पाते और हिंसा की अथवा आतंकी घटनाएँ होती रहती हैं।

सवाल यह भी है कि बजरंग दल पर प्रतिबंध से क्या किसी धार्मिक उन्माद को रोका जा सकेगा? कुछ नेता या उनके सलाहकार कुछ हफ्ते अपनी पीठ थपथपा लेंगे, लेकिन घृणा फैलाने वाले तत्वों ने तो अनगिनत नामों से मंडलियाँ बना रखी हैं। तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद, सिमी पर देश-दुनिया के प्रतिबंधों के बावजूद हिंसक हमलों में कमी नहीं आई।

इसी तरह बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या किसी राजनीतिक दल पर प्रतिबंध के बल पर कोई सरकार शांति स्थापना नहीं कर सकती। बेईमान, भ्रष्ट और अपराधियों के लिए कभी कोई कानून काम नहीं करता।

जहाँ तक हिंसा का सवाल है, भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी या संघ के नेता सुदर्शन अथवा मोहन भागवत भी घोषित रूप से किसी हिंसक गतिविधि को उचित करार नहीं देंगे। यदि डॉ. मनमोहनसिंह की छवि एक आदर्श ईमानदार व्यक्ति की है, तो उन्हीं की पार्टी के मोतीलाल वोरा, मणिशंकर अय्यर, अंबिका सोनी अथवा प्रतिपक्ष में लालकृष्ण आडवाणी, नरेन्द्र मोदी, रमनसिंह, सुषमा स्वराज, शरद यादव, बुद्धदेव भट्टाचार्य और प्रकाश करात भी उनसे कम ईमानदार और समझदार नहीं हैं।

समस्या यह है कि ऐसे कुशल राजनीतिक नेतृत्वकर्ता हर पार्टी और हर राज्य में सक्रिय आपराधिक तथा घृणित सांप्रदायिक लोगों पर अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं। अस्सी के दशक में आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े लोग और बड़े तस्कर तक राष्ट्रपति भवन में शरण ले लेते थे।

सरकारी गुप्तचर एजेंसियों के ईमानदार अफसर तिलमिलाते रहते थे। इस खतरनाक स्थिति पर करीब 25 साल पहले एक खबर लिखने और छापने पर मुझे तथा मेरे तत्कालीन संपादक राजेन्द्र माथुर को सत्ताधारियों से बहुत भला-बुरा सुनना पड़ा था, लेकिन अब तो अपराधी शरण नहीं लेते, सत्ताधारी बन रहे हैं। गुरुवार को जब मुंबई में बाल ठाकरे का विभाजित परिवार केन्द्र सरकार तथा उत्तर भारतीयों को कोसते हुए दंड भुगतने की धमकी दे रहा था, उसी समय महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार के राजस्व मंत्री नारायण राणे -'ठाकरे परिवार के महान योगदान' की सार्वजनिक आरती उतार रहे थे। केन्द्र सरकार के पास हिम्मत है तो पहले घर में बैठे सांप्रदायिक और आपराधिक लोगों पर प्रतिबंध लगा उन्हें दंडित करे।

साढ़े चार साल से एक तर्क दिया जा रहा है कि गठबंधन की सरकार के कारण भलेमानुस प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के हाथ बँधे हुए हैं। किसी राज्य में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ने पर भी राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टियाँ तथा कुछ अन्य दल साथ नहीं देंगे। लेकिन कोई उन्हें याद दिलाए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा- आईएएस और आईपीएस अधिकारी तो किसी न किसी रूप में गृह और कार्मिक मंत्रालय तथा प्रधानमंत्री सचिवालय के लिए उत्तरदायी हैं।

पिछले साढ़े चार वर्षों में केन्द्रीय गुप्तचर एजेंसियों से ही विवरण मँगवाकर सांप्रदायिक आग में बारूद लगवाने वाले नेताओं की कठपुतली बन चुके कितने अधिकारियों को केन्द्र सरकार ने बर्खास्त करवाया? आखिरकार सामान्य पुलिसकर्मी इन्हीं अधिकारियों के आदेश पर नरम या कठोर रुख अपनाते हैं। केवल तबादलों या निलंबन की कागजी कार्रवाई से अपराधीनुमा किसी अधिकारी का कितना बाल बाँका होगा।

गुजरात, उड़ीसा, आंध्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक या दिल्ली में भी बड़ी से बड़ी लापरवाही के लिए क्या कुछ अधिकारी बर्खास्त हुए और उन्हें जेल भेजा गया? विहिप और बजरंग दल पर 'प्रतिबंध' की माँग करने वाले कम्युनिस्ट 10 साल पहले जब मंत्रिमंडल में शामिल थे, तब भी उन्होंने हिंसा से जुड़े कितने सांप्रदायिक लोगों को दंडित करवाया?

दो दिन पहले एक ईमानदार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा कि भ्रष्टाचार के सबसे बड़े डाकू तो सरकारी भ्रष्टाचार नियंत्रण विभागों में बैठे हुए हैं। उन्हें काबू कर पाना सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसे लोगों की पैरवी शीर्ष स्तर से आती है। फिर भी अपनी जान और नौकरी खतरे में डाल कुछ लोग काम करते रहते हैं।

ऐसी ही स्थिति विभिन्न राज्यों में है। वहाँ कई अधिकारी जातीय तथा सांप्रदायिक आधार पर सत्ताधारियों से जुड़े हुए हैं। इससे हर सांप्रदायिक तथा आपराधिक गिरोहों को नंगा नाच करने में आसानी हो जाती है। केन्द्र या राज्य में किसी दल की सरकार हो, यदि दृढ़ता के साथ प्रशासनिक मशीनरी को ही कठोरता से दंडित करने लगे, तो कम से कम अनावश्यक हिंसा और गड़बड़ियाँ रुक सकती हैं।