- रामसिंह राठवा
गुजरात में विधानसभा चुनाव को लेकर विभिन्न राजनीतिक दल सक्रिय हो गए हैं। ये चुनाव जहां भाजपा के लिए एक चुनौती बनते जा रहे हैं वहीं दूसरों दलों को भाजपा को हराने की सकारात्मक संभावनाएं दिखाई दे रही है। पिछले तीन चुनावों से शानदार जीत का सेहरा बांधने वाली भाजपा के लिए आखिर ये चुनाव चुनौती क्यों बन रहे हैं? एक अहम प्रश्न है जिसका उत्तर तलाशना जरूरी है। इस बार गुजरात के इन चुनावों में आदिवासी लोगों की महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका हो सकती है। मैं पिछले चार चुनावों से गुजरात के बड़ौदा एवं छोटा उदयपुर से जुड़े आदिवासी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता रहा हूं। आगामी चुनाव की पृष्ठभूमि में मैं आदिवासी समस्याओं और उनके समाधान में सकारात्मक वातावरण को निर्मित करने की आवश्यकता महसूस करता हूं।
आजादी के सात दशक बाद भी गुजरात के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ और नेता आदिवासियों के उत्थान की बात करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। आज इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार एवं विकास का जो वातावरण निर्मित होना चाहिए, वैसा नहीं हो पा रहा है, इस पर चिंतन अपेक्षित है। अक्सर आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ लेने वाली बातों को हवा देना एक परम्परा बन गई है। इस परंपरा को बदले बिना देश को वास्तविक उन्नति की ओर अग्रसर नहीं किया जा सकता। देश के विकास में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका है और इस भूमिका को सही अर्थों में स्वीकार करना वर्तमान की बड़ी जरूरत है और इसके लिए चुनाव का समय निर्णायक होता है।
गुजरात में अभी भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन कर रहे हैं। नक्सलवाद हो या अलगाववाद, पहले शिकार आदिवासी ही होते हैं। नक्सलवाद की समस्या आतंकवाद से कहीं बड़ी है। आतंकवाद आयातित है, जबकि नक्सलवाद देश की आंतरिक समस्या है। यह समस्या देश को अंदर ही अंदर घुन की तरह खोखला करती जा रही है। नक्सली अत्याधुनिक विदेशी हथियारों और विस्फोटकों से लैस होते जा रहे हैं। नक्सली सरकारों को मजबूती के साथ आँख भी दिखा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों को बाहरी ताकतों से लड़ने की बातें छोड़कर पहले देश की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास और रणनीति बनाना चाहिए। उनके वादे देश को आंतरिक रूप से मजबूत करने के होने चाहिए। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।
गुजरात को हम भले ही समृद्ध एवं विकसित राज्य की श्रेणी में शामिल कर लें, लेकिन यहां आदिवासी अब भी समाज की मुख्यधारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर मध्यप्रदेश से सटे नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। सरकार आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवनशैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अतः गुजरात की बहुसंख्य आबादी आदिवासियों पर विशेष ध्यान देना होगा।
अब जबकि आदिवासी क्षेत्र में भी शिक्षा को लेकर जागृति का माहौल बना है और कुछ शिक्षा के अधिकार का कानून भी आ गया है और यह अपने क्रियान्वयन की तरफ अग्रसर है तो यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि आदिवासी बच्चों की स्थिति में इससे क्या बदलाव आता है। जो पिछले 70 सालों में नहीं आ पाया। आदिवासी समुदाय में बालिका शिक्षा की स्थिति काफी बुरी है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुल आबादी का 10 प्रतिशत से भी कम प्राथमिक से आगे की पढ़ाई कर पाए हैं।
सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों को इस दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनानी चाहिए। जैसा कि मेरे संसदीय क्षेत्र छोटा उदयपुर में सुखी परिवार फाउंडेशन के द्वारा गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में बालिका शिक्षा एवं शिक्षा की दृष्टि से एक अभिनव क्रांति घटित हुई है। लेकिन आदिवासी समुदाय की शिक्षा राज्य एवं केन्द्र सरकार के लिए एक चुनौती का प्रश्न है। आदिवासी समुदाय में शिक्षा के स्तर को बढ़ाना एवं इसे सुनिश्चित करना जरूरी है। यह एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान हमें समग्रता से हल ढूंढना होगा, इसके लिए जरूरी है कि पहले हम उन समस्याओं को सुलझाएं जिनके कारण आदिवासी बच्चों का स्कूलों में ठहराव नहीं हो पा रहा है, उनका नामांकन नहीं हो पा रहा, पाठशाला से बाहर होने की दर, खासकर लड़कियों में लगातार बढ़ती जा रही है। बच्चे घरों में, होटलों या ढाबों पर या खेतों के काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल हमें समस्या की जड़ तक ले जाएगा। इससे निपटने के लिए समाज, राज्य एवं केन्द्र को सघन प्रयास करने होंगे।
हमें यह समझना होगा कि एकमात्र शिक्षा की जागृति से ही आदिवासियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। कोई परिवार ये नहीं चाहता कि उसके बच्चे स्कूल जाने के बजाय काम करें। ऐसे समुदाय जिन्हें विकास की सीमाओं पर छोड़ दिया गया है वो सारा दिन अपनी पूरी ताकत से सिर्फ इसलिए काम करते हैं कि वो दो वक्त का भोजन जुटा सकें पर कई बार इसमें भी सफल नहीं हो पाते हैं। अशिक्षा की समस्या एक ऐसा प्रश्न है जिसकी जड़ काफी गहरी जमी हुई है। नीतियों और कानून बना देने से ही ये समस्या हल हो जाएगी ये एक बचकानी सोच है। इसके लिए पहले हमें उन कारणों को समझना होगा जिनकी वजह से बच्चों को अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करना पड़ता है। इसकी जड़ में वो व्यवस्था है जो व्यक्ति एवं समुदायों को आम और खास में बांटता है। अब इस व्यवस्था के परिवर्तन की बात होनी चाहिए।
आदिवासियों की खुद की एक अपनी सभ्यता और संस्कृति है जिसमें वह जीते हैं। उनका एक तौरतरीका है, उनका रहन-सहन खुद का है, भाषा है, बोली है, संस्कृति है तथा अपना एक अलग तरीका है जीवन को जीने तथा समझने का, वो जिस हालत में हैं, वो खुश हैं उनके अपने स्कूल या शिक्षा तंत्र हैं, उनके खुद के खेल या प्रथाएं हैं, खुद के ही देवी-देवता हैं तथा खुद की ही परंपरा और सभ्यता है। इसी तरह सदियों से जंगल में रहते हुए उन्होंने खुद का ही एक स्वास्थ्य का या उपचार करने का तंत्र भी है जिससे वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं तथाकथित विकसित स्वास्थ्य सेवाओं से वे आज भी वंचित हैं। आज भी उनके बच्चों का जन्म परंपरागत तरीकों से ही दाई ही करती है। बुखार या ऐसी ही छोटी-मोटी बीमारियों के लिए डॉक्टरों की शरण नहीं लेते। इस तरह सरकार द्वारा उनके लिए जो सुविधाएं एवं सेवाएं सुलभ कराई जा रही हैं उनका वे लाभ नहीं ले पा रहे हैं। तकलीफ और परेशानी में जीना उनकी आदत सी है। ऐसी स्थितियों से उन्हें मुक्ति दिलाना वर्तमान समय की बहुत अपेक्षा है।
भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपए आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मैक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है, लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है।
आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है। विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है। आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासी कॉर्निवल में आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं की और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं।
आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतंत्र नागरिकों को बहुत गंभीरता से सोचना चाहिए और इस बार के गुजरात चुनाव इसकी एक सार्थक पहल बनकर प्रस्तुत हो, यह अपेक्षित है।
(लेखक छोटा उदयपुर (गुजरात) सीट से भाजपा सांसद हैं)