"स्क्रॉल डॉट इन" वेब पत्रिका ने "रोमन हिंदी" की पैरवी में हाल ही में एक लेख प्रकाशित किया था : "हिंदी नीड्स टु डिस्कार्ड देवनागरी एंड अडॉप्ट रोमन स्क्रिप्ट"। यह शीर्षक पढ़ते ही मेरा माथा ठनका। और लेख पढ़कर तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अंग्रेज़ी की दुनिया में हिंदी के प्रति दुर्भावना और श्रेष्ठताबोध तो रहता ही है, लेकिन वह इस सीमा तक चला जाएगा, इसकी कल्पना करना कठिन था।
शोएब डेनियल नामक एक व्यक्ति ने उस लेख में लिखा कि "रोमन हिंदी" ही आने वाले समय की मांग है और "देवनागरी" का अस्तित्व धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगा। अपनी इस अत्यंत हास्यास्पद स्थापना के पक्ष में उन्होंने निहायत लचर तर्क दिए, जैसे कि मोबाइल, "वॉट्सएप", "मैसेंजर" इत्यादि में "रोमन हिंदी" का बढ़ता इस्तेमाल, राहुल गांधी द्वारा "रोमन हिंदी" में लिखे एक परचे के आधार पर संसद में भाषण देना, बॉलीवुड सितारों द्वारा "रोमन हिंदी" में अपने संवाद याद करना। उन्होंने वर्ष 1951 की फ़िल्म "आवारा" का एक पोस्टर प्रस्तुत करके कहा कि देखिए फ़िल्म का नाम बड़े अक्षरों में "रोमन" में लिखा गया है। फिर उन्होंने कहा कि हाल ही में आई हिंदी फ़िल्म "मसान" में एक युवक अपनी प्रेमिका को "फ़ेसबुक" पर "रोमन" में मैसेज करता है। इतिहास को खंगालकर उन्होंने खोज निकाला कि उन्नीसवीं सदी में ही मिशनरियों द्वारा रोमन हिंदी-उर्दू में "बाइबिल" की प्रतियां छपवा ली गई थीं और वर्ष 1909 में फ़िरंगियों ने "फ़ौजी अख़बार" करके रोमन में एक अख़बार भी निकाला था। वे यह भी कह बैठे कि फ़िल्म "कभी ख़ुशी कभी ग़म" का रोमन संस्करण "Kabhi Khushi Kabhie Gham" उसके देवनागरी संस्करण से अधिक सटीक है, क्योंकि यह दूसरे "कभी" पर "बलाघात" प्रदर्शित करता है। चलते-चलते उन्होंने टिप्पणी की कि हिंदी अब धीरे-धीरे एक "किचन लैंग्वेज" बनती जा रही है। यह कथन उनकी दुर्भावना की चुगली कर गया।
मुझे हैरत हुई कि कोई एक व्यक्ति एक ही लेख में इतनी सारी मूर्खतापूर्ण बातें कैसे कर सकता है। हैरत इस पर भी हुई कि "स्क्रॉल" जैसी वेब पत्रिका इतने निकृष्ट लेख को छाप कैसे सकती है। संतोष है कि "स्क्रॉल" ने बाद में उस लेख का एक खंडन छापा। मैंने भी "इंग्लिश वेबदुनिया" पर उस पर एक लेख लिखा और ट्विटर पर जाकर भी शोएब डेनियल का प्रतिकार किया। शोएब डेनियल कहीं से खोज लाए कि मैंने एक बार "कुछ भी हो सकता है" वाक्य को "रोमन" में लिखा था तो मैं "रोमन" का विरोध कैसे कर सकता हूं। उनकी यह बात इसलिए मनोरंजक थी कि क्योंकि "कुछ भी हो सकता है" अनुपम खेर के एक चर्चित टीवी शो का शीर्षक था और उसे मैंने हैशटैग करके लिखा था। शोएब निश्चित ही मुझसे यह उम्मीद तो नहीं ही कर रहे होंगे कि मैं "कुछ भी हो सकता है" को अनूदित करता। प्रसंगवश, हम सभी जब अपने नाम अंग्रेज़ी में लिखते हैं तो वह रोमन में होता है। अगर किसी का नाम "सपना" है तो उसे "Dream" नहीं लिख सकती, उसे उसको "Sapna" ही लिखना होगा। लेकिन इससे रोमन लिपि की श्रेष्ठता सिद्ध होती हो यह कहना तो ख़ैर एक मज़ाक़ है।
स्पष्ट है कि शोएब डेनियल भाषा, लिपि, उच्चारण, ध्वन्यार्थ आदि के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। हिंदी को "देवनागरी" में लिखने का सुझाव इससे पहले चेतन भगत भी दे चुके हैं। उन्हें समझाने के लिए कहा जा सकता है कि क्या हो अगर शेक्सपीयर को देवनागरी लिपि में पढ़ा जाए, या ग़ालिब को ब्राह्मी लिपि में? ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कविता के अनुवाद को असंभव मानते हैं। जब "भाषांतर" ही संभव नहीं है तो "लिप्यांतर" की तो बात ही क्या करें। लिपि तो भाषा का रूप है, उसकी अर्थगम्यता भले फिर भी उसका अंतर्भाव हो जिसे अनूदित किया जा सकता हो। लेकिन लिपि किसी भी भाषा का मूल स्वरूप है और भाषा को अन्य लिपि में लिखने का सुझाव गहरे अर्थों में भाषा की अवमानना है। यहां सवाल केवल "रोमन हिंदी" का ही नहीं, यह "देवनागरी अंग्रेज़ी" के लिए भी उतना ही सही है।
"चैट" में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा, "एसएमएस" और मेल में इस्तेमाल की जाने वाली लिपि भला कब से भाषा का मानक हो गई? जब मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर आए थे, तो अंग्रेज़ी ही उनकी "डिफ़ॉल्ट भाषा" थी और हिंदी "फ़ॉन्ट" का समावेश उनमें बाद में किया गया। जब फ़ोन से हिंदी लिखने की सुविधा ही नहीं थी, तब जो लोग अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते थे, उनके सामने "रोमन" में हिंदी लिखने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। अलबत्ता, रोमन में हिंदी लिखने से बहुधा जो अर्थ का अनर्थ होता है, वह एक अलग ही कथा है। अब फ़ोन से हिंदी का उपयोग सुलभ होने के बावजूद बहुधा रोमन में "चैट-वार्तालाप" होता है और इंटरनेट की दुनिया रोमन में हुई चैट्स से भरी हुई है। उसका एक बड़ा हिस्सा "ट्रैश" है। उससे देवनागरी अपनी धुरी से अपदस्थ नहीं हो जाती!
शोएब डेनियल ने कहा है कि 1909 में ही रोमन हिंदी में अख़बार छापे जाने लगे थे। मैं उनसे जानना चाहूंगा कि आज पूरे सौ साल बाद कौन सा अख़बार रोमन हिंदी में निकल रहा है, जिसे करोड़ों की संख्या में पढ़ा जा रहा हो? शोएब डेनियल ने कहा है कि "Kabhi Khushi Kabhie Gham" अधिक सटीक है। मैं उनसे जानना चाहूंगा कि "ख़ुशी" में जो "नुक़्ता" लगता है, उसे आपकी "रोमन" लिपि क्यों नहीं प्रदर्शित कर पा रही है। "ख" और "ख़" के लिए वह "Kh" ही क्यों इस्तेमाल कर पा रही है, जबकि उर्दू में तो पांच तरह के "ज़" होते हैं। "फ़नेटिक्स" की अनेक शाखाएं देवनागरी से रोमन में किसी वाक्य को रूपांतरित करने पर उसमें "बलाघात" के संकेत जोड़ती हैं, जैसे कि "Mūlamadhyamakakārikā" ("मूलमाध्यमिककारिका") में मूल और कारिका पर बलाघात, इसके बावजूद यह लगभग असंभव और अवांछनीय भी है कि किसी एक लिपि में लिखी जाने वाली भाषा को दूसरी लिपि में लिखा जाए।
ऐसा इसलिए भी कि भाषा अर्थ की संवाहक ही नहीं होती, उसका एक चित्रात्मक सौंदर्य भी होता है, जो कि लिप्यांतर में जाता रहता है। देवनागरी में लिखी हिंदी और रोमन में लिखी अंग्रेज़ी का जो चाक्षुष सौंदर्य है, वह देवनागरी में लिखी अंग्रेज़ी और रोमन में लिखी हिंदी में जाता रहेगा। चीनी कवि बेई दाओ ने अपनी बेटी के लिए एक कविता लिखी थी, जिसमें यह पंक्ति आती है कि "तुम्हारे नाम में दो खिड़कियां हैं।" कारण, "मंदारिन" लिपि में उनकी बेटी का नाम लिखने पर उसमें दो खिड़कियां दिखाई देती थीं। यह बात "रोमन" में आप कैसे लेकर आएंगे। लुडविग विटगेंश्टाइन ने इसी को अपनी किताब "ट्रैक्टस लॉगिको फ़िलॉसॉफ़िकस" में भाषा की "चित्रात्मक सैद्धांतिकी" कहा था, जिसे आगे अपनी "विज़ुअल रूम" थ्योरी में उन्होंने विस्तार दिया। भाषा एक "चित्रलिपि" भी होती है। लेकिन शोएब डेनियल इतनी गहराई में कहां जा पाते?
अगर आप हिंदी पढ़ना चाहते हैं तो "देवनागरी" सीखिए। देवनागरी में ही लिखिए और उसमें ही पढ़िए। और अगर आप हिंदी में लिखना-पढ़ना नहीं चाहते तो यह आपका दुर्भाग्य है, हिंदी का नहीं। हिंदी स्वयं में गौरवशाली है। अस्तु।