शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By अनिल जैन

देह व्यापार को वैधानिक बनाने के खतरे

देह व्यापार को वैधानिक बनाने के खतरे - Prostitution
भारतीय स्त्री की गुलामी की जंजीरें सदियों से पुरुष, पूंजी और धर्म के हाथों में रही हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मानव समाज में ताकत के जितने रूप और संस्थान हैं, वे सब या तो स्त्री का शोषण करते हैं या अपने स्वार्थ के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। जिस्मफरोशी भी स्त्री-शोषण का ही एक रूप है। अपने देश में जिस्मफरोशी को वैध करने सवाल पर बहस पहले से होती रही है, जिसे हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपने प्रस्ताव के जरिए फिर से गरमा दिया है।
 
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम ने जिन तर्कों के साथ यौन कर्म को कानूनी जामा पहनाने का सुझाव दिया है उनका आधार व्यावहारिकता है और कमोबेश वही हैं जो ऐसी मांग करने वाले संगठन और लोग लंबे समय से देते रहे हैं। चूंकि आयोग की अध्यक्ष ने अपना प्रस्ताव केंद्रीय मंत्रिमंडल की अधिकार-प्राप्त समिति के सामने रखने की बात कही है, लिहाजा अब यह बहस ज्यादा प्रासंगिक हो गई है।
 
राष्ट्रीय महिला आयोग का दावा है कि वेश्यावृत्ति को वैधानिक कर देने से महिलाओं की तस्करी रुक जाएगी। साथ ही इसकी वैधता के बाद सुरक्षित तरीके से यौन संबंध बनाना आसान होगा। आयोग का यह भी कहना है कि इससे यौन कर्म में लगी महिलाओं का एचआईवी सहित तमाम संक्रामक यौन रोगों से भी बचाव हो सकेगा। आयोग की अध्यक्ष कहना है कि यौन-कर्म को वैधता प्रदान करने के साथ ही ऐसे कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए, जिससे इस पेशे में लगी महिलाओं के कामकाज के घंटे और उनका पारिश्रमिक तय हो सके ताकि उनके स्वास्थ्य की भी उचित देखभाल हो सके। निश्चित ही आयोग के उद्देश्यों से असहमत नहीं हुआ जा सकता। मगर इन उद्देश्यों से भी कहीं अधिक गंभीर है महिलाओं के इस असम्मानजनक कर्म से जुड़ा यह मुद्दा, जिससे कुछ व्यावहारिक प्रति-प्रश्नों के साथ समाज और मनुष्य को देखने के नजरिए से संबंधित सवाल भी जुड़े हैं। आयोग की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इन ज्वलंत सवालों के तार्किक जवाब भी तलाशे और समाज के सामने पेश करे।
 
दरअसल यह पूरा धंधा महिलाओं के घोर अमानवीय शोषण पर आधारित है। बदनाम बस्तियों में स्थित कोठों के मालिक-मालकिन, दलाल और संगठित गिरोहों की मिलीभगत से गरीब तबके की अशिक्षित लड़कियां तस्करी के जरिए लाई जाती हैं और फिर उन्हें इस अमानवीय पेशे में धकेल दिया जाता है, जहां उन्हें अपने बारे में कोई निर्णय लेने के लिए एक क्षण के लिए भी आजादी मयस्सर नहीं होती। इसलिए सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वेश्यावृत्ति को वैधता प्रदान कर देने के बाद देश में इस कर्म का कितना विस्तार हो जाएगा। जिस्मफरोशी की वैधता से जुड़े दूसरे देशों के अनुभव बताते हैं कि जहां-जहां भी वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दी गई है, वहां इस काम से जुड़ी महिलाओं की हालत पहले से बेहतर नहीं है। जर्मनी में इसको कानूनी रूप देने के बाद वहां महिला देहकर्मियों की संख्या संख्या दोगुनी हो गई। इसके बावजूद बहुमंजिली इमारतों मे चलने वाला यह कर्म अब भी 90 फीसद गैरकानूनी है। नीदरलैंड में इसको वैधानिक बना देने के बाद भी वहां इस कर्म से जुड़ी महिलाओं की कार्य-स्थितियां बेहद खराब हैं। नीदरलैंड सरकार खुद अब यह मानती है कि उसने इस काम को कानूनी मान्यता देकर एक राष्ट्रीय भूल की है।
 
एक समय गुलामी को हमेशा से चलती आई व्यवस्था के रूप में देखा जाता था। इसी विचार के वशीभूत हमारे देश में आज यौन-दासता और वेश्यावृत्ति को भी स्वाभाविक बताया जा रहा है और इसे कानूनी जामा पहनाने का आग्रह किया जा रहा है। यूरोप और अमेरिका में भी न केवल यौन कारोबार से जुड़े, बल्कि सरकार और महिला आंदोलनों में भी कई ऐसे लोग हैं जो वेश्यावृत्ति का समर्थन करते हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2010 में यौनकर्मी महिलाओं के पुनर्वास के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका की सुनवाई करने वाली बैंच के एक जज ने कहा था कि अगर महिलाओं की एक बड़ी तादाद देह व्यापार में संलग्न है तो हमें इसे कानूनी दर्जा दे देना चाहिए, ताकि यौन कारोबार को विनियमित किया जा सके।
 
ऐसी टिप्पणी करते हुए इस अमानवीय पेशे के अंतहीन दलदल में धकेल दी गई छोटी-छोटी बच्चियों की दुर्दशा पर गौर करना जरूरी नहीं समझा गया। यही नहीं, कुछ हलकों में तो बड़ी आसानी और बेशर्मी के साथ जिस्मफरोशी के कारोबार में निवेश की बात भी कही जाती है। शायद इसलिए कि इसमें आमतौर पर गरीब और निचली समझी और कही जाने वाली जातियों की औरतें होती हैं। कुछ लोग तो बड़े भोलेपन से भूख और वेश्यावृत्ति के बीच एक 'वास्तविक' चुनाव की बात भी करते हैं। सवाल है कि क्या ऐसा सरकार को महिला नागरिकों के प्रति जिम्मेदारी से बरी करने की मंशा से नहीं किया जा रहा?
 
अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम 1956 के तहत यौन कर्म के व्यवसायीकरण को अपराध माना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक महिला अपने शरीर का इस्तेमाल एकल आधार पर कर सकती है। परंतु सार्वजनिक तौर पर उसे इस कर्म को करने की मनाही है। महिला आयोग का इरादा इसी कानूनी निषेध को खत्म कर महिलाओं के यौन कर्म से जुड़े कारोबार को वैधता प्रदान कराना है। लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा देने के बजाय उनके देह व्यापार को वैधता प्रदान करने का रास्ता क्यों चुना जाना चाहिए? आखिर क्यों इन महिलाओं को अन्य कामों की बजाय देह कर्म को ही विकल्प के रूप में चुनना पड़ रहा है? एक दशक पहले 2004 में केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने एक सर्वे कराया था, जिसमें देश में 28 लाख से भी ज्यादा महिलाएं देह कर्म के कारोबार मे संलिप्त पाई गई थीं।
 
अनुमान है कि आज तो यह आंकड़ा 35 लाख को पार कर चुका होगा। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें एक तिहाई के करीब कम उम्र की बच्चियां शामिल हैं। इसी सिलसिले में बाल संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट भी बताती है कि हर साल 60 हजार से भी अधिक बच्चियों को उनके घर से बड़े शहरों में लाकर देह व्यापार में झोंक दिया जाता है। इस कारोबार में पूरा का पूरा एक संगठित तंत्र शामिल है। हैरत की बात है कि वर्ष 2013-14 में गायब हुए 67 हजार बच्चों में से 45 फीसद बच्चों की तस्करी देह व्यापार के लिए की गई थी। स्थिति यह है कि आज देश मे हर आठ मिनट में एक बच्ची का अपहरण हो जाता है।
 
राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा देह कर्म को कारोबार की शक्ल में वैधता प्रदान कराने के पीछे की मंशा इस पेशे से जुड़ी महिलाओं का आर्थिक शोषण रोकने, उन्हें कोठा संचालकों, दलालों और पुलिस की प्रताड़ना से बचाने तथा रोजगार की गारंटी प्रदान करने की लगती है। अहम सवाल यह है कि देश में देह कारोबार को कानूनी दर्जा दे देने से क्या ऐसे नेटवर्क टूट जाएंगे? या इससे उपरोक्त गिरोहों को खुलकर देह व्यापार चलाने का मौका नहीं मिल जाएगा? भारत में सबसे बड़ी बदनाम बस्ती या रेड लाइट एरिया माने जाने वाले कोलकाता के सोनागाछी में कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं का अनुभव बताता कि जब वहां सुरक्षित यौन संबंध के उपाय लागू किए गए, तो कंडोम अपनाने के प्रति अनिच्छुक ग्राहकों से कोठों के मालिक और दलाल ज्यादा पैसा वसूलने लगे।
 
यह सच है कि इस कारोबार के प्रति झुकाव के लिए देश की गरीबी और बेरोजगारी के साथ ही सरकारों की गरीब विरोधी नीतियां अधिक जिम्मेदार हैं, लेकिन क्या देह व्यापार को वैध कर देने से महिलाओं में गरीबी और बेरोजगारी की समस्या किसी भी हद तक कम हो जाएगी। हकीकत यह है कि कोई भी महिला खुशी-खुशी अपनी इच्छा से इस काम को नहीं अपनाती। बहुआयामी अनवरत शोषण और रोजगार की विकल्पहीनता ही उन्हें मजबूरन इस कर्म की ओर खींचकर ले आती हैं। देश मे देह व्यापार को वैधता मिलने के बाद इससे जुड़ी समस्याओं में और इजाफा ही होगा। महिला और बाल तस्करी बढ़ने से महिलाओं व बच्चियों की दुर्गति तो होगी ही, साथ ही कॉलगर्ल जैसे अभिजात्य देह कर्म का भी और ज्यादा फैलाव होगा। तथाकथित आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज की खुली और भोगवादी जीवनशैली ने आज स्त्री-पुरुष के पुरातन वैवाहिक संबंधों का रूपांतरण कर दिया है। विवाह संस्था लगातार कमजोर पड़ रही है। देह कर्म का कारोबार भी वैवाहिक रिश्तों के बिगड़ने-टूटने का एक कारक बना हुआ है। 
 
फिर सबसे अहम सवाल यह भी है कि क्या किसी सभ्य समाज में यौन-क्रिया के व्यापार की इजाजत होनी चाहिए? यह दलील कतई स्वीकार्य नहीं हो सकती कि इस धंधे को आज तक रोका नहीं जा सका, इसलिए इसे वैधानिक दर्जा दे देना चाहिए। इसे आज तक रोका नहीं जा सका है तो यह हमारी शासन और समाज व्यवस्था की विफलता है। दरअसल यह धंधा इसलिए चल रहा है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाजों ने महिलाओं को इंसान न समझ कर सिर्फ और सिर्फ भोग की वस्तु और बच्चे पैदा करने की मशीन ही समझा है। चूंकि समाज में इस मानसिकता से संचालित देह के सौदागर मौजूद हैं, अतः सिरे से अस्वीकार्य इस बुराई को भी पेशा कहा जाना आम प्रचलन में है।
 
जिस्मफरोशी को वैधानिक रूप देने के बजाय जरूरत इस बात की है कि इससे संबंधित मौजूदा कानून में ऐसे संशोधन किए जाएं, जिससे इस काम में लगी लाचार-बेबस महिलाएं ही मुजरिम न ठहराई जाएं। कानून के निशाने पर तो वे लोग होने चाहिए, जो इस धंधे का संचालन करते हैं और जो पैसे के जोर से यौन-सुख खरीदते हैं। उन पुलिसकर्मियों को भी सुधारने की जरूरत है जो ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई न कर पीड़ित महिलाओं का ही आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण करते हैं। 
 
सही मायनों में यह सरकारों ही जिम्मेदारी बनती है कि वह उन हालात पर भी ध्यान दें जिनके चलते किसी महिला को देह कर्म अपनाने पर मजबूर होना पड़ता है। सरकारें इस पेशे में लगी महिलाओं को ऐसे विकल्प उपलब्ध कराएं जिनसे कि वे इस दलदल से बाहर निकल सकें और उनका रचनात्मक  पुनर्वास हो सके। ऐसा करने के बजाय इस काम को वैधानिकता प्रदान करना निश्चित ही दूसरी सामाजिक बुराइयों को न्योता देना होगा। लक्ष्य अंततः इस बुराई का आमूल-चूल खात्मा होना चाहिए।