अपने हरे-भरे वातावरण के लिए देशभर में पहचाने जाने वाले भोपाल की हरियाली आज कुछ ज्यादा ही नम होगी। 40 डिग्री से अधिक के तापमान वाले इन दिनों में भी आज कई पेड़ों पर बूंदें दिखाई दे सकती हैं। ये बूंदें संभवत: उन आंसुओं की होंगी, जो यहां के पेड़-पौधों ने अपने संरक्षक महेश नीलकंठ बुच के अवसान पर बहाए होंगे। महेश नीलकंठ बुच यानी एमएन बुच, जो अपने पूरे नाम के बजाय इस संक्षिप्त नाम से ज्यादा जाने जाते थे, कल रात नहीं रहे। भोपाल की हरियाली को बचाए रखने वाला और उसके लिए हमेशा लड़ने वाला एक योद्धा चला गया।
भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी के बजाय उनकी पहचान एक सिटी प्लानर और पर्यावरण प्रेमी के रूप में अधिक थी। अपने प्रशासनिक कार्यकाल के शुरुआती दौर में ही, जब वे संभवत: मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में एसडीएम रहे होंगे, उन्होंने बंगाल से आए विस्थापितों को माना में व्यवस्थित रूप से बसाने में जो भूमिका निभाई संभवत: आगे चलकर वही उनकी सिटी प्लानर छवि का आधार बनी। बाद में उन्होंने राजधानी भोपाल के पर्यावरण को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज भोपाल यदि हरा-भरा और अन्य भीड़भाड़ वाली राजधानियों की तुलना में ज्यादा साफ हवा वाला शहर है, तो इसका काफी कुछ श्रेय बुच साहब को जाता है।
एक सख्त प्रशासक की छवि वाले एमएन बुच जनहित और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर किसी से भी टकराने की हिम्मत रखते थे। फिर चाहे वो राजनीतिक व्यवस्था हो या वो प्रशासनिक तंत्र, जिसका वे स्वयं कभी हिस्सा रहे थे। गलत बात के खिलाफ अड़ जाना उनका स्वभाव था लेकिन वे अडि़यल नहीं थे। करीब 3 दशक की प्रशासनिक सेवा, जो उन्होंने 1984 में ही छोड़ दी थी, के बाद उन्होंने एक तरह से समाजसेवा को ही अपना लक्ष्य बना लिया था।
खुद को समाजसेवा के लिए पूरी तरह से समर्पित कर देने से पहले बुच ने राजनीति के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया था। उन्होंने 1984 में उसी बैतूल से लोकसभा का चुनाव लड़ा था, जहां कभी वे प्रशासक रहे थे। बैतूल में आज भी बड़ी संख्या में उनके प्रशसंक हैं और शायद उन्हें लगा होगा कि उनके चाहने वाले उन्हें कभी हारने नहीं देंगे। लेकिन राजनीति की फितरत अलग ही होती है और एमएन बुच उसके लिए बने भी नहीं थे। वो चुनाव एक तरह से दो बर्रूकाट भोपालियों के बीच की टक्कर थी। एक तरफ थे कांग्रेस के पूर्व ओलंपियन, मशहूर हॉकी खिलाड़ी असलम शेरखान और दूसरी तरफ एमएन बुच। बुच ने असलम को पसीने ला दिए थे। उन्हें 1 लाख से अधिक वोट मिले थे।
लेकिन उसके बाद बुच ने राजनीति से तौबा कर ली। और जब वे समाजसेवा और लेखन के क्षेत्र में उतरे तो वही राजनीति और वही राजनेता उनसे सलाह लेने आते, जो कभी उनके मुकाबिल खड़े थे। उनकी खासियत थी कि उन्होंने इतनी लंबी पारी में खुद को कभी किसी खास राजनीतिक विचारधारा का पक्षधर नहीं बनने दिया। उन्हें जहां भी, जो भी गलत लगा, उन्होंने उसे धुन दिया। अपने नाम के अनुरूप उन्हें कड़वाहट को पीना बहुत अच्छी तरह आता था। पर उन्होंने कभी कड़वाहट को उगला नहीं। जो भी कहा साफ-साफ और खरा। किसी को भला लगे या बुरा। यह उनकी ही फितरत थी कि भोपाल के मास्टर प्लान पर अपनी आपत्तियों को दर्ज कराते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया था कि इससे तो अच्छा है भोपाल दाऊद इब्राहीम को दे दिया जाए।
देश के कई प्रतिष्ठित मीडिया समूहों में बुच के आलेख अभी तक छपते रहे हैं। उनकी लेखनी हर विषय पर चली। विषय को समझना, उसका अध्ययन करना और फिर लिखना उनकी आदत में शुमार था। मैंने उनके घर में उनकी समृद्ध लाइब्रेरी देखी है। उनका ज्यादातर समय किताबों के बीच ही बीतता था। अंतिम समय तक उनकी सक्रियता देखने लायक थी। कल रात जब उनके निधन की खबर आई और कारण बताया गया ‘ब्रेन स्ट्रोक’ तो लगा, जैसे जनता का यह हिमायती, अपने अंतिम समय में भी जनता के ही किसी मुद्दे पर घनघोर उधेड़बुन में लगा रहा होगा।
वैसे तो देश में आईएएस अधिकारियों की फौज है। लेकिन एमएन बुच जैसे अधिकारी बिरले ही होते हैं, जो इस सेवा को केवल रौब झाड़ने या पैसा बनाने का जरिया नहीं मानते। उनके लिए यह अधिकार जनता के लिए है और इसे जनता के प्रति ही समर्पित होना चाहिए। आमतौर पर आईएएस अफसरों के लिए 'नौकरशाह' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन एमएन बुच सही मायनों में सरकार के ‘नौकर’ कभी नहीं रहे। उन्होंने यदि नौकरी की भी, तो जनता की... ऐसे अफसर अब मिलना मुश्किल हैं।